Vedrishi

अध्यात्म सरोवर

Adhytma Sarovar

70.00

Subject: Yogdarshanam Swami Satyapati ji, Darsha
Edition: 2018
BindingNULL
Dimensions: 30X15CM
Weight: NULLgm

इस पृथ्वी पर रहनेवाले मनुष्यों में अधिकतर ऐसे मनुष्य हैं जिन्हें यह पता नहीं है कि यह जीवन क्या है ? किसने दिया है ? इसका क्या प्रयोजन है ? किन कारणों से इसकी प्राप्ति होती है ? जीवन में सुख-दुःख क्यों होता है ? मानव जीवन की सफलता का मार्ग, साधन और विधि क्या क्या है ?
अमेरिका आदि नितान्त भौतिकवादी देशों को कुछ देर के लिए छोड़ दें किन्तु ऋषि-मुनियों की जन्मस्थली, वसुन्धरा की परम-पावन-अनुपम-दिव्यधरा 1 इस भारतवर्ष में जन्म लेने वाले तथा भारतीय कहलाने वाले भी अपनी वैदिक-संस्कृति-सभ्यता से रहित तथा अपरिचित होकर इधर उधर भटक रहे हैं । सत्य, धर्म, न्याय, आदर्श आदि के लिए अन्यत्र दृष्टिपात् कर रहे हैं । अपनी इन परिस्थितियों को सूक्ष्मता व दूरदर्शिता पूर्वक विचार करने का प्रयत्न ही नहीं कर रहे हैं । ईश्वर, वेद, ऋषियों, महापुरुषों पर कोई आस्था नहीं रख पा रहे हैं। जिन महानुभावों ने हमारे जीवन की उन्नति व सुख समृद्धि के लिए साधन और विधि आदि का निर्देश किया है। उनके प्रति किसी को विश्वास ही नहीं होता । धर्माधर्म, कर्मफल, पुनर्जन्म आदि सिद्धान्तों का सर्वत्र तिरस्कार हो रहा है। हिंसा, छल-कपट, अन्याय से प्रताड़ित व्यक्ति प्रतिदिन अनगिनत मृत्युओं को देखकर भी यह विचार नहीं उठाता कि अन्ततः मुझे भी एक दिन इसी प्रकार समाप्त हो जाना है पुनः अधर्म, अन्याय पूर्वक मैं लोक संग्रह क्यों करता जा रहा हूँ ?
सुख की प्राप्ति व दुःखनिवृत्ति के लिए जो उपाय किये जा रहे हैं वे सब अपूर्ण हैं, वास्तविकता से दूर हैं। मानव जीवन की उन्नति के उचित उपायों को न अपनाने से सतत प्रयत्नशील होते हुए भी असफल हो रहे हैं। यह ऐसी ही स्थिति है जैसे मुरझाये वृक्ष को हरा भरा बनाने के लिए कोई जड़ो में पानी न देकर शाखाओं व पत्तियों को सींच रहा हो। आज राष्ट्र में बाह्य दुःखनिवृति के लिए पर्याप्त साधन व अवसर हैं। आज भौतिक संसाधनों के नित्य नये आविष्कार बढ़ते जा रहे हैं. किन्तु इतना सब-कुछ होने पर भी अन्दर-अन्दर स्थिति भयंकर होती जा रही है । श्रद्धा, प्रेम, सहयोग के विपरीत नास्तिकता, अभिमान, स्वार्थ, संशय, असन्तोष, खिन्नता-उद्विग्नता आदि बढ़ते ही जा रहे हैं। ऋषियों के विरुद्ध चलने का यही तो दुष्परिणाम है। 2 1
यथार्थतः जब तक मानसिकरूप से ईश्वर पर विश्वास करकेआध्यात्मिक गुणों का जीवन में समावेश नहीं किया जाएगा तब तक चाहे प्रत्येक व्यक्ति के पीछे एक-एक आरक्षी (पुलिस) भी लगा दिया जाय पुनरपि पाप अनाचार का समापन संभव नहीं है । सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के रचयिता, पालक सर्वरक्षक के गुणों को जब तक मनुष्य धारण नहीं करता तब तक कोई भी राजा न्यायाधीश आदि सब की रक्षा करने में समर्थ नहीं हो सकेंगे।

आज चोर चोरी करने से नहीं डरता अपितु चोर कहलाने से डरता है। संसार से डरता है किन्तु ईश्वर से नहीं डरता। घर-परिवार में परस्पर विश्वास लुप्त होता जा रहा है । कब कौन क्या अनिष्ट कर देगा कुछ नहीं कहा जा सकता । विषयवासनाओं के दलदल में हर कोई फँसा जा रहा है । जैसे-तैसे कोई बिरला ही शुद्ध आध्यात्मिक पर्वतीय चट्टानों में अपनी डोर फँसाकर अपने अस्तित्व को बचा पा रहा है ।

स्वयं की निर्दोषता तथा परदोषदर्शन की भावना पराकाष्ठा को प्राप्त हो चुकी है। व्यक्ति को स्वयं के अतिरिक्त समस्त संसार दोषी ही दोषी प्रतीत होता है किन्तु स्वयं को सर्वथा निष्कलंक समझता है। अपने सुधार की कोई अपेक्षा नहीं रखता सदैव अन्यों के ही बारे में विचारता रहता है। ऐसे तथाकथित शुभ-चिन्तक महाशयों को राह चलते रास्ते पर पड़े पत्थर भी दिखाई नहीं देते हैं। अगर दिख भी जाए तो चिन्तन में इतने व्यस्त होते हैं कि पत्थर को वहाँ से हटाने का अवसर भी नहीं निकाल पाते । पत्थर को वहीं का वहीं छोड़कर आगे निकल जाते हैं। संयोग से उनको ठोकर भी लग जाय तो अपनी भूल नहीं मानते किन्तु लोगों के आलस्य, प्रमाद, कर्त्तव्यहीनता का पुष्ट प्रमाण प्राप्त कर लेते हैं । कह उठते हैं कैसे लोग हैं ? दूसरों -की क्षति का कोई ध्यान ही नहीं रखते हैं ? अखिल विश्व में किसी भी देश के नागरिक अपने देश को माता के नाम से नहीं पुकारते परन्तु राष्ट्र की रक्षार्थ पूर्णतः समर्पित रहते हैं। भारत एक ऐसा देश है जहाँ के नागरिक अपने देश को माता के नाम से स्मरण करते हैं किन्तु राष्ट्र रक्षण में बेचारे बने हुए हैं। यही दुर्दशा गौ और गंगा की भी कर रखी है। इन देवियों के आँसू पोछने वाला कोई भी सुपुत्र सामने नहीं आ रहा है । अत्याचारी और स्वार्थी इनका प्रताड़न, अतिदोहन और दूषण कर मालामाल हो रहे हैं किन्तु किसी में उनके विरूद्ध आवाज उठाने का साहस नहीं है। आर्थिक समस्त समस्याओं के समाधान का एक मात्र उपाय मातृ गौरव का हनन ही सबको सुगम दिखायी दे रहा है।

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