आयुर्वेद विश्व को भारतवर्ष की देन और संसार का सबसे पुराना चिकित्सा विज्ञान
माना जाता है। हालाँकि संसार में आजकल चिकित्सा की लगभग नब्बे पैथियाँ कार्यरत है और प्रत्येक पैथी का एक निश्चित चिकित्सा सिद्धान्त होता है। जैसे आधुनिक विज्ञान (एलोपैथी) का चिकित्सा सिद्धान्त है-बैक्टीरिया (BACTERIA), वायरस (VIRUS) और पैरासाइट वर्म-(PARASITE WORM) इसी प्रकार होम्योपैथी का चिकित्सा सिद्धान्त सोरा (SORA), सिफलिस (SYPHILIS) और साइकोसिस (SYCOSIS) है। इसी प्रकार आयुर्वेद का चिकित्सा सिद्धान्त-वात, पित्त और कफ है। इन तीनों के प्राकृत/समान अवस्था में रहने से शरीर स्वस्थ और इनके असमान होने पर शरीर रोगी हो जाता है। स्वास्थ्य का कारण होने से इन्हें "धातु" कहा जाता है और रोगों को कारण होने से इन्हें "दोष" कहा जाता है। आयुर्वेद इन्हीं तीन (वायु, पित्त, कफ) को शरीर का मूल कारण मानता है।
वायु रोग-यदि शरीर को पोषक आहार न मिले, किसी रोग के कारण शरीर निर्बल हो जाये, शरीर अथवा मन पर कोई भारी आघात आ पड़े या क्रोध, कलह, भय, शोक, चिन्ता आदि मानसिक भावों से ग्रस्त हो जाये या किसी विष द्रव्य (जैसे तम्बाकू, मद्य, कैफीन, भांग आदि) का चिरकाल तक सेवन किया जाये अथवा शरीर में मधुमेह, यूरिक एसिड, यूरिया आदि का या किसी रोग जीवाणु का विष चिरकाल तक बना रहे तो-शरीर का वायु तत्व निर्बल हो जाता है। शरीर व मन की क्षमता व सामर्थ्य कम हो जाते हैं। इस प्रकार शरीर की जीवनी शक्ति के निर्बल हो जाने से जो लक्षण हो जाते हैं उन्हें-"वायु रोग" या "वायु प्रक'! कहते हैं। इस अवस्था का प्रधान लक्षण शारीरिक अथवा मानसिक चलता असा विक्षोभशीलता है। यानि जब किसी अंग को रवत, आक्सीजन अथवा आहार द्रव्य कम मिले हैं तो उसमें चलता, वेदना, चमचमाहट, सुप्ति आदि लक्षण होने लगते हैं। इन्हीं लक्षणों से-वायु रोग का ज्ञान/अनुमान हो जाता है, क्योंकि से लक्षण वायु विकृति के सूचक होते हैं। चिकित्सा-मृदु स्निग्ध विरेचन/जुलाब अथवा बस्ति चिकित्सा के बाद रोगी के शरीर के पोषण को बढ़ाने के लिए-मधुर, स्निग्ध, उष्ण गुण आहार उचित मात्रा में देना चाहिए। फल व कच्ची सब्जियों के रस का सेवन कराया जाये और पूर्ण विश्राम के अतिरिक्त निद्राजनक अथवा शामक ओषधियों का प्रयोग किया जाये। तम्बाकू, मद्य आदि का सर्वथा त्याग किया जाये। मधुमेह आदि कोई रोग हो अथवा शरीर में कोई चिरस्थायी जीवाणु विष हो जो उसे दूर किया जाये तथा बल प्रदायक औषधियां (जैसे-महालक्ष्मी विलास, चिन्ता-मणि चतुमुर्ख रस, वृहद वात चिन्तामाणि, बसन्त कुसुमाकर, चन्द्र प्रभावित, महा-योगराज गुग्गुल, अजमोदादि चूर्ण, एरण्डबीज, शुण्डीचूर्ण, शताविराघृत, दशमूलरिष्ट, अश्वगन्धारिष्ट, प्राक्षारिष्ट, अर्जुनघृत आदि किसी का प्रयोग किया जाना चाहिए।
पित्त रोग-शरीर का यह पित्त तत्व यदि समान अवस्था में रहे तो शरीर की ऊष्मा ठीक रहती है, भूख-प्यास ठीक लगती है, त्वचा की कान्ति ठीक बनी रहती है, नेत्रों की दृष्टि ठीक रहती है, रक्त स्वच्छ रहता है। मस्तिष्क में हर्ष, प्रसाद और शूरता के भाव रहते हैं और बुद्धि निर्मल रहती है। शरीर की पित्ताग्नि को ठीक रखने के लिए आवश्यक है कि-आहार सुपच हो, मात्रा में थोड़ा हो, अति शीत, अति रुक्ष, अति स्निग्ध न हो तथा नियत समय पर लिया जाये। व्यायाम व शारीरिक श्रम से पित्ताग्नि प्रबल रहती है। दो भोजन कालों के बीच में कोई आहार-द्रव्य न लिया जाये तथा मानसिक आवेगों से बचते हुए प्रसन्न चित्त रहा जाये। –
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