भक्त और भक्ति इस लोक के ऐसे असार द्रव्य हैं जो समस्त भौतिक संसाधनों के अभाव में भी आनन्द एवं पूर्णता का अनुभव कराते हैं। ईश्वर में अनुपम श्रद्धा ही भक्ति का सर्वसाधन है तथा ईश्वर का भक्त के प्रति अनुराग ही भक्ति का सर्वोत्तम फल है। भक्ति, प्रायः किसी श्रेष्ठ के प्रति ही की जाती है। भक्त सर्वदा अपने ईष्ट का स्मरण करता रहता है। इस अवस्था को प्राप्त करना प्रायः कठिन होता है लेकिन भक्ति के छोटे-छोटे साधनों के द्वारा ही भक्ति के चरम स्तर तक पहुँचा जा सकता है।
भक्त शिरोमणि प्रहलाद जन्म से राक्षस कुल में पैदा हुए थे लेकिन उनकी सात्त्विक प्रवृत्ति तथा भगवान् विष्णु के प्रति अटूट स्नेह ने उन्हें उत्तम कोटि का भक्त बना दिया। भाई का वैरी होने पर भी विभीषण ने अपने अगाध प्रेम तथा भक्ति को न त्यागते हुए भगवान् श्रीराम के चरणों का अर्चन-वन्दन करना ही उचित भक्त और भक्ति, ईष्या-द्वेष नामक मनुष्य के परम शत्रु का नाश करते हैं। हृदय में भक्ति का भाव उत्पन्न होते ही मनुष्य सभी जीवों से प्रेम करने लगता है और सभी जीवों में अपने ईष्ट को अनुभूत करने लगता है।
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