कर्त्तव्य का अभिप्राय करणीय कर्म से है, अर्थात् हमारे लिए यथाशास्त्र निर्धारित जो करने योग्य कर्म है वही हमारा कर्त्तव्य है। प्रत्येक प्राणी का कर्त्तव्य स्थान, काल, परिस्थिति के अनुरूप होता निर्धारित होता है। समाज के सभी वर्ग यावत् पर्यन्त अपने कर्त्तव्यानुरूप कर्म करते हैं तावत् पर्यन्त किसी प्रकार की समस्या या प्रतिकूलता नहीं होती जैसे ही कोई व्यक्ति अपनी कर्त्तव्य सीमा का अतिक्रमण कर दूसरे के कर्त्तव्य क्षेत्र में हस्तक्षेप करता है वहीं से कलह, राग-द्वेष एवं अशान्ति का जन्म हो जाता है। यह अतिक्रमण जिस सीमा तक बढ़ता जायेगा समस्या भी उतनी ही विकट एवं भयावह बनती जायेगी।
विश्व कर्म प्रधान है, कर्म का संस्कार ही मानव की मूल शक्ति है, इसी के अनुसार मनुष्य के भाग्य का निर्णय होता है। कर्मभेद से ही मनुष्य विभिन्न योनियों – देव, मनुष्य, तिर्यक् आदि में भ्रमण करता है। इसी के अनुसार वह, लोक-लोकान्तर में जाता है। वेदों में कर्म की महिमा विस्तार से वर्णित है। यहाँ नित्य, नैमित्तिक, काम्य इन तीन प्रकार के कर्मों का विधान किया गया है। नित्य कर्म करने से विशेष फल तो नहीं मिलता पर न करने से पाप अवश्य होता है- अकरणे प्रत्यवायसाधनानि सन्ध्यावन्दनादीनि । जिन कर्मों के न करने से पाप नहीं होता किन्तु करने से पुण्य की प्राप्ति अवश्य होती है, नैमित्तिक कर्म कहलाते हैं यथा तीर्थदर्शनादि । तीर्थों के दर्शन न करने से पाप नहीं होता किन्तु दर्शन करने से पुण्य की प्राप्ति अवश्य होती है। किसी कामना विशेष से किए गये कर्म काम्य कर्म कहलाते हैं, इनके मूल में स्वार्थ निहित होता है यथा पुत्रेष्टि यागादि । उपर्युक्त सभी कर्म यथाकाल, यथास्थान, यथापरिस्थिति कर्त्तव्य के रूप में स्वीकार्य किये जाते हैं ।
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