Vedrishi

बृहती ब्रह्ममेधा

Brihtee Brahmamedha

900.00

100 in stock

Subject: Adhyatma Vidya
ISBN : 9788170000000
BindingHard Cover
Dimensions: NULL
Weight: NULLgm

पुस्तक का नाम बृहती ब्रह्ममेधा
सम्पादक का नाम सुमेरू प्रसाद दर्शनाचार्य
स्वामी सत्यपति जी परिव्राजक जी ने ऊँची योग्यता वाले दर्शनों के विद्वानों, व्याकरण के विद्वान और योगविद्या में रुचि, श्रद्धा रखने वाले योग जिज्ञासुओं के लिए लगभग तीन मास आषाढ़ शुक्ला द्वादशी वैक्रमाब्द 2060 से आश्विन शुक्ला त्रयोदशी 2060 तक तदनुसार 11 जुलाई 2003 ई. से 8 अक्टूबर 2003 पर्यन्त एक त्रैमासिक उच्चस्तरीय क्रियात्मक योग प्रशिक्षण शिविर का आयोजन किया था। उस शिविर का प्रयोजन था शिविरार्थी स्वयं विशुद्ध वैदिक योग के विद्वान बनें और क्रियारूप में अभ्यास करते हुए समाधि के द्वारा ईश्वर साक्षात्कार तक पहुँचे तथा अन्यों को अपने समान बनाने का प्रयास करें।
उस शिविर में वेद, वैदिक दर्शन, उपनिषद्, सत्यार्थप्रकाश आदि ग्रन्थों का क्रियारूप में किये अपने योग सम्बन्धी अनुभवों, योग से सम्बन्धित यम नियम आदि आठ अङ्गों का व्यवहार के रूप में पालन, ईश्वर प्राणिधान, स्व स्वामी सम्बन्ध, विवेक वैराग्य उनका अभ्यास, ईश्वर की उपासना, सम्प्रज्ञात और असम्प्रज्ञात समाधि के भिन्न भिन्न स्तर, प्रलयावस्था सम्पादन, समाधिप्राप्त योगी की अनुभूतियाँ और उनसे होने वाले लाभ, लोक में योग के नाम से प्रचलित अनेक भ्रान्तियों का स्वरूप और उनका निवारण तथा आत्मनिरीक्षण आदि अनेक विषयों का विशेषरूप से प्रशिक्षण दिया गया था।
उसी शिविर में स्वामी जी के उपदेशों और साधकों के प्रश्नों को लिपिबद्ध करके प्रस्तुत पुस्तक रूप में प्रकाशित किया गया है।
ये पुस्तक तीन भागों में विभाजित है जिसमें प्रथम भाग का नाम यज्ञीयोपदेश है। इसमें प्रातःकालीन यज्ञकाल में उपदिष्ट प्रवचनों का सङ्कलन है, इसीलिए इसका नाम यज्ञीयोपदेश रखा है।
द्वितीय भाग क्रियात्मक योगाभ्यास है। इसमें प्रायः किसी वेदमन्त्र को लेकर अर्थसहित जप और ध्यान व मनोनियन्त्रण के प्रयोगों का अभ्यास करवाया जाता था। मनोनियन्त्रण आदि का क्रियात्मक स्वरूप इसमें विशेषरूप से बताया गया है। अतः इसका नाम क्रियात्मक योगाभ्यास रखा गया है।
तृतीय खण्ड़ का नाम ज्ञानखण्ड़ रखा गया है। इसमें विवेक वैराग्य व सिद्धान्त से सम्बन्धित बातें है, जो कि योगाभ्यासी के लिए अत्यन्त आवश्यक है। इसमें स्वामी जी ने योगदर्शन के अनित्याशुचि सूत्र के आधार पर विद्या अविद्या और अपने वैराग्य के प्रमुख उपाय प्रलयावस्था का विशेष वर्णन किया है। साधक की मानसिक तथा व्यावहारिक अवस्था कैसी होनी चाहिए आदि विषयों को विशेष रूप से स्पष्ट किया गया है।
आशा है कि योग साधकों के स्वाध्याय के लिये यह पुस्तक अत्यन्त लाभदायक होगी।

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