Vedrishi

मै मनु और संघ

Mei Manu Aur Sangh

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Subject: Adhytma Sarovar
Edition: 2011
Pages: 374
BindingPaperback
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सातारा के 'विचारवेध सम्मेलन' की याद आते ही मैं आज भी कांप उठता हूँ। महाराष्ट्र के पुरोगामी और परिवर्तनवादी आंदोलन के कुछ विचारशील व्यक्तियों ने प्रतिवर्ष विचारवेध सम्मेलन आयोजित करने का निर्णय किया था। उसके अनुसार दि. १९ और २० फरवरी १९९४ को सातारा में पहला विचारवेध सम्मेलन आयोजित किया गया। पहले सम्मेलन में विचार करने के लिए 'धर्म' विषय चुना गया।

सम्मेलन का प्रचार-विज्ञापन सारे महाराष्ट्र में बहुत बड़े पैमाने पर किया गया था। सम्मेलन में भाग लेनेवाले महानुभाव भी उच्चश्रेणी के थे। डॉ. आंबेडकर अकादमी के अध्यक्ष डॉ. आ. ह. साळुखे, डॉ.य.दि. फड़के, डॉ. श्रीराम लागू, प्रा. मे. पुं. रेगे जैसे लोग भी उस में शामिल थे। धर्मनीति सब नीतियों की जननी है। शायद इसी कारण विचार विनिमय के लिये सबसे पहले 'धर्म' विषय का चयन किया गया था।

वाद विवाद खुले वातावरण में हो सके इसलिये विभिन्न विचारधाराओं के लोगों को सम्मेलन में आमंत्रित किया गया था। संघ से श्री.भि.रा. इदाते, डॉ. अशोक मोडक और मैं, आमंत्रित थे। परंतु डॉ. मोडक व श्री इदाते कुछ पूर्व नियोजित कार्यक्रमों में व्यस्त होने के कारण सम्मेलन में भाग नहीं ले सके। अतः मैं स्वयं और डॉ. अरविंद लेले ये दो लोग ही सम्मेलन में जा सके। हम दोनों को सम्मेलन में होनेवाले वादविवाद में बोलना था और पररिसंवाद के विषय को अपनी दृष्टि से प्रस्तुत करना था। >
इस सम्मेलन के पीछे एक और देशव्यापी वैचारिक पृष्ठभूमि थी। रामजन्मभूमि आंदोलन के कारण सारे देश में मंथन हुआ था। हिंदुत्व के बारे में सब जगह चर्चा होने लगी थी। समाजवाद, सर्वधर्मसमभाव, सेक्युलॅरिझम आदि विषयों पर चर्चा शुरु हो गई थी। सारे देश में हिंदू जागृति की अभूतपूर्व लहर आई हुई थी। राजीव गांधी और विश्वनाथ प्रतापसिंह की सरकारें इन लहरों की चपेट में आकर ढह गई थीं। राजकीय क्षेत्र में भाजपा की घुड़दौड़ जारी थी। विचारवेध सम्मेलन के पीछे हिंदत्व की पार्श्वभमि भी थी। 'हिंदत्व' यानी धर्मनीति, और धर्मनीति के आधार पर यदि राजनीति की गई तो हम फिर एक बार मध्ययुग में पहुंच जाएंगे, ऐसी आशंका महाराष्ट्र के विचारवंतों को होने लगी थी। इसी कारण धर्म के बारे में विचार विनिमय होना आवश्यक है, ऐसा उन्हें लगता था।

मुझे जिस परिसंवाद में सहभागी होना था, उसका विषय था 'क्या धर्मभावना से जातिवाद को, प्रोत्साहन मिलता है? ' दूसरे शब्दों मे इसका अर्थ था कि 'क्या हिंदुत्व के कारण हिंदू समाज धर्मांध हो रहा है?' मुझे सिर्फ १५-२० मिनट ही बोलना था। भाषण देने की मुझे आदत थी। इस कारण भाषण देते समय मुझे किसी प्रकार का तनाव नहीं होता था। परन्तु यह था स्वसंसेवकों के सामने भाषण करते समय । अब जिन लोगों के सामने मुझे बोलना था, वे भिन्न विचारधारा के थे, उनकी तर्कप्रणाली भिन्न थी। इस कारण भाषण की अच्छी और पक्की तैयारी पहले से ही करना अत्यंत आवश्यक था।

मैंने अपने भाषण की सारी तैयारी पूरी की। भाषण की टिप्पणियां बनाई एक दिन पहले ही पूरा भाषण लिखकर डॉ. लेले को पढ़कर सुनाया। मेरे भाषण का आशय यह था : 'हिंदू धर्म जातिवादी कभी नहीं बन सकता। कारण जातिवादी बनने के लिये दो बातें आवश्यक होती हैं। पहली बात यह है कि धर्म का एक सर्वमान्य ग्रंथ; एक प्रवर्तक और एक ही आचार संहिता होनी चाहिये। हिंदू धर्म का कोई एक सर्वमान्य ग्रंथ नहीं है, कोई एक प्रवर्तक नहीं है और कोई एक आचारपद्धति भी नहीं है। जातिवादी बनने के लिये दूसरी आवश्यकता यह है कि समाज का संघटन पंथ या मत के आधार पर होना चाहिये। हिंदू समाज के संघटन का आधार पंथ या मत नहीं है। अतः हिंदू धर्म में समाज को जातिवादी बनाने का सामर्थ्य है ही नहीं।

'फिर हिंदू समाज आज इतना अस्वस्थ क्यों है? वह आक्रमक क्यों हो गया है? इसके कारणों का पता लगाना आवश्यक है। परन्तु ये कारण धर्म में ढूँढने से नहीं मिलेंगे। यह तो हिंदू समाज की प्रतिक्रिया है। यह प्रतिक्रिया मुस्लिम समाज का तुष्टिकरण और हिंदुत्व का तिरस्कार करने के कारण हुई है। हिन्दू धर्म की बुराइयों के लिए केवल हिंदुओं को ही जिम्मेदार ठहराया जाता है, परन्तु उसकी अच्छाइयों को मानवतावाद कहकर टाल दिया जाता है। एक मनु आपके हाथ क्या लग गया है कि उस के बहाने आप हिंदुत्व पर सतत आघात करते आ रहे हैं। उसकी प्रतिक्रिया कभी न कभी तो होने ही वाली थी। वही प्रतिक्रिया आज दिखाई दे रही है।'

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