Vedrishi

शीघ्र आर्थिक सफलता विज्ञान

Shigra Aarthik Safalta Vigyan

500.00

Subject: Complete Vedas Set
ISBN : 9788200000000
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हम सभी नितांत दुःखों से छूटकर पूर्ण सुख को प्राप्त करना चाहते है। इसी के चलते हमारी अनेक प्रकार की इच्छाएँ होती हैं। जैसे पत्नी, पुत्र, धन, प्रतिष्ठा, पुण्य अर्थात् अच्छा जन्म आदि प्राप्त करना। उन्हें हम पूरा करना चाहते है। इनमें दो इच्छाएं प्रमुख है। बाकी सब व्यक्ति-व्यक्ति के अनुसार भेद देखने को मिल सकता है। उसमें से पहली…

प्राणेषणा

प्राणों की एषणा अर्थात् प्राणों को चाहना, अर्थात् मेरे प्राण, मेरा जीवन सदा बना रहे, मैं दीर्घ जीवन को प्राप्त करूँ और वह भी स्वस्थ होकर जीऊँ। मुझे कभी किसी प्रकार की हानि, रोग आदि ना हो । यह शरीर ही सभी इच्छाओं की पूर्ति का साधन व समस्त भोगों को भोगने का मूल आधार है। अतः यह इच्छा प्रत्येक मनुष्य में है, चाहे वह किसी भी देश या विचारधारा का क्यों ना हो सभी में प्रबल रूप से विद्यमान रहती है। दूसरी…

धनेषणा

धन की इच्छा, हम सभी जानते है छोटे से लेकर बड़े तक समस्त सांसारिक साधनों को प्राप्त करने का मुख्य साधन धन है। अतः दूसरे नंबर पर यह इच्छा आती है। पूरा संसार सुबह से लेकर रात तक जो भाग-दौड़ कर रहा है इसका कारण यह धन की इच्छा ही है। यदि बिना अर्थ, धन का लंबा स्वस्थ जीवन मिल भी जाए तो वह जीवन कष्टों से भरा हुआ होता है। अतः धन से ही जीवन उपयोगी साधनों को जुटाया जा सकता है। धन ही भोगों को प्राप्त करने का मुख्य साधन है और यह इच्छा भी हम सभी में प्रबल रूप से विद्यमान रहती है।

अब विचारणीय यह है कि क्या हम सभी अपने जीवन में दुःख रहित सुख, इस लक्ष्य को प्राप्त कर लेते है ? क्या हम सभी के जीवन में ऊपरोक्त दोनों ही प्रमुख इच्छाओं की पूर्ति हो जाती है? क्या हम कर लेते है ? वर्तमान में हमें प्राप्त है क्या ? इन बातों को विचार करने से पता चलता है कि, 'नहीं'। हम इन्हें पूरा करना चाहते है, प्रयत्न भी कर रहे है, हमें इसकी जरूर भी है पर अधिकतर संभावना यही बनी रहती है कि ये हमें इच्छित रूप में प्राप्त नहीं है । यदि ये प्राप्त नहीं है, तो इसका कोई ना कोई कारण तो जरूर होगा और वह कारण कहीं बाहर नहीं हमारे भीतर ही विद्यमान है, वह हम स्वयं ही है। हम इन इच्छाओं को अपनी-अपनी समझ, अपने-अपने सामर्थ्य, अपने-अपने पुरुषार्थ, अपनी-अपनी परिस्थितियों के अनुसार पूरा करने का प्रयत्न कर रहे है, जबकि ये इच्छाएँ उसके अपने नियम से ही पूरी होती है, केवल हमारे चाहने मात्र से नहीं। अत: जब तक हम वह नियम व्यवस्था जान न ले, इसका पूरा होना सम्भव भी नहीं है।

वह नियम यही है कि किसी भी कार्य सिद्धि हेतु हमें तीन
मुख्यतया बातों का समन्वय करना होता है। 'साध्य' – जो हमें चाहिए जो हमारा लक्ष्य है (आरोग्य, धन आदि) । 'साधन' – जिससे हम उस लक्ष्य को प्राप्त करेंगे (सफलता की विधि | 'साधक' – हम स्वयं, जिसकी कोई न कोई इच्छा है (आरोग्य, धन आदि प्राप्ति की ) ।
अब यहाँ समझने की बात यही है कि 'साध्य ' हमेंशा निश्चित ही होता है, जैसे धन । वह संसार मे से कहीं चला नहीं जाता। जब भी हम इसे प्राप्त करेंगे यहीं से करेंगे, यहीं से मिल जाएगा, जैसे दूसरों को भी मिला है। दूसरा 'साधन', प्रत्येक लक्ष्य के अनुरूप उस लक्ष्य को प्राप्त करने के साधन निश्चित्त ही होते है। तीसरा 'साधक', हम स्वयं है। अब जो भी गड़बड़ है या होती है, वह सारी हम में ही है। अतः जो कुछ भी पुरुषार्थ का क्षेत्र है वह हम में ही है। अतः हमें स्वयं के ऊपर ही पुरुषार्थ करना होता है, परिवर्तन आदि जो भी होता है वो सब कुछ हमें अपने आपमें ही करना होता है। जो व्यक्ति स्वयं में या स्वयं पर पुरुषार्थ ना करके केवल साध्य या साधन के पीछे ही लगा रहता है वह कभी भी अपने जीवन में सफलता को प्राप्त नहीं कर सकता। इसलिए सर्वाधिक स्वयं में क्या दोष है, कमी है, जिसे दूर करना है और कौन-कौन से गुण अपेक्षित है, जिन्हें धारण करना है। इसे जानकर व अपनाकर ही हम 'अपने जीवन को बदल सकते है और अपने जीवन को बदलने से जीवन की परिस्थिति अपने आप बदल जाती है।

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