संहिता शब्द ऊहापोह यास्काचार्य एवं पाणिनि ने अपने अपने ग्रन्थों में किया है। “पर: सन्निकर्ष: संहिता” (पा.सू.1.4.109) अर्थात् स्वरों का एवं स्वरसंमिश्रव्यंजनों का परस्पर स्वाभाविक अर्धमात्रा से अधिक काल के व्यवधान से उच्चारण करना ही संहिता है। परन्तु यास्काचार्य ने संहिता के स्वरूप को अत्यन्त भिन्न ही कहा है–“पदप्रकृति: संहिता” (नि.सू.1.6.12) इस सूत्र का अर्थ दो प्रकार से उपपन्न होता है – 'पदानां संधीयमानानां प्रकृतिः संहिता' इस प्रकार षष्ठीतत्पुरुष समास से यह अर्थ निष्पन्न होता है कि परस्पर संधि भाव को प्राप्त हुए अनेक पदों के एकत्रीकरण हेतु जो मूल कारण है वह संहिता है । तात्पर्य यह हुआ कि संहिता प्रकृति है, एवं पद उसकी विकृति है और बहुब्रीहिसमास से द्वितीय अर्थ यह निष्पन्न होता है कि 'पदान्येव प्रकृतिर्यस्याः सा' पद ही है प्रकृति जिसकी, वह संहिता है । अर्थात् पद प्रकृति है और संहिता विकृति है।
संहिता शब्द का विचार इतिहास पद्धति के अनुसंधित्सु अनेक प्रकार से करते हैं। 'संहन्यन्ते एकत्रीक्रियन्ते मन्त्राः सूक्तानि वा अस्यां सा संहिता' इस व्युत्पत्ति के अनुसार 'सूक्त' जिन ऋषियों के नाम पर आज उपलब्ध है वे उनके कर्ता अथवा द्रष्टा थे और उनके वे मन्त्र एवं सूक्त भी पृथक्-पृथक् थे। कालान्तर में उन्हें एकत्र करके जो ग्रन्थ तयार किया गया वह 'संहिता' पदवाच्य है । परन्तु आधुनिक विचार के ये विचार कपोलकल्पित हैं। 'मन्त्र' अथवा 'सूक्त' यदि विभिन्न ऋषियों द्वारा किये गये होते और कालान्तर में यदि उनका एकत्रीकरण हुआ होता तो- एकत्रीकरण करने वाले का नाम अथवा उस कालका संकेत अवश्य होता, या फिर अविच्छिन्न परम्परा से उपर्युक्त कथन में दृढ़ विश्वास होता । परन्तु इन प्रमाणों का उपर्युक्त कथन में सर्वथा अभाव ही है। शाखाप्रवर्तक ऋषियों यदि एकत्रीकरण का कारण कहें, तो वह भी असम्भव ही है ।
क्योंकि यह प्रत्यक्ष स्वभावविरुद्ध है कि मंत्र कर्ता ऋषि स्वयं के नाम पर अन्य ऋषि के नाम का व्यवहार सहन करे। उदाहरणार्थ माध्यन्दिन संहिता में माध्यन्दिन ऋषि का एक भी मंत्र नहीं है और यदि अनेक ऋषियों द्वारा निर्मित सूक्तों का एकत्रीकरण ही संहिता है, तो भिन्न-भिन्न ऋषियों द्वारा भावी एकत्रीकरण हेतु अनुकूल पुनरूक्ति, न्यूनाधिक्य अन्यथाभाव, परस्परविरुद्धता, आदि दोष, जो कर्तुत्व के कारण, काल के कारण, सम्भव होते हैं, उनका अभाव उसमें क्यों हैं? और भी प्रकरणश: विशिष्ट आनुपूर्वी अर्थों के अनुसार मंत्र रचना या आविर्भाव सहजगत्या संभवनीय है क्या ? इसका विचार पूर्ण मनोयोग से पाठकवृन्द को करना चाहिये। मंत्रों अथवा सूक्त के ऋषि कर्ता न हो कर द्रष्टा हैं। 'ऋषिर्दर्शनात्' इस सूत्र से यास्काचार्य ने भी यही कहा है। ऋषियों का द्रष्टृत्व भी मंत्रों के अथवा सूक्तों के मूल विनियोग में (प्रयोजन में) अर्थात् प्रयोज्य प्रयोजकभाव व कार्यकारणभाव में और उससे उत्पन्न होने वाली फलनिश्पत्ति में है। यह कथन तत्तत् मंत्रों के अथवा सूक्तों के ऋषि, छन्द, देवता, एवं विनियोग के परस्पर सम्बन्ध का मनन पूर्वक अवलोकन करने से स्पष्ट हो जाता है। इसमें यह श्रुति प्रमाण है'तदेतत्सत्यं मंत्रेशु कर्माणि कवयो यान्यपष्यँस्तानि त्रेताद्यां बहुधा संततानि' (मु.उ. 2.1)
अतः इस प्रकार का आधुनिकों का संहिताविषयक चिन्तन सारहीन, कपोलकल्पित एवं उपहासास्पद है।
यह संहिता पुनः तीन प्रकार की है – 1. ऋक्संहिता, 2. यजुसंहिता, 3. सामसंहिता
कात्यायनाचार्य ने प्रातिशाख्य में 'एकपदद्विपदत्रिपदचतुः पदानेकपदाः पादाः', 'वर्णानामेक: प्राणयोग: संहिता' (प्र. अ. सू. 157. 158) इन दो सूत्रों के द्वारा क्रम से ऋक्, यजु, साम संहिता के स्वरूप को स्पष्ट किया है
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