Vedrishi

योगरत्नाकर :

Yogaratnakara

795.00

Subject: Rigved, Ishwar Granth, Vedas, Ved, Gujarati ved
Pages: 107
BindingPaperback
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शुक्र) की क्रियाएँ समावस्था में हो, तथा शरीर के मल, मूत्र, पुरीष, स्वेदादि अपने सामान्य रूप से विसर्जित होते हो

और जिस व्यक्ति की आत्मा, इन्द्रियाँ एवं मन प्रसन्न हो, उसे आयुर्वेद स्वस्थ मानता है। महर्षि चरक और महर्षि सुश्रुत ने अपनी-अपनी संहिताओं अष्टाङ्ग आयुर्वेद का निरूपण इस प्रकार किया है, किन्तु , दोनों के गणना में थोड़ा अन्तर है। चरक चिकित्सा प्रधान संहिता है, अत: इन्होने अष्टाङ्ग आयुर्वेद में प्रथमत: (१) कायचिकित्सा, (२) शालाक्य, (३) शल्य, (४) अगदतन्त्र, (५) भूतविद्या, (६) कौमारभृत्य, (७) वाजीकरण, (८) 2 रसायनतन्त्र

सुश्रुत संहिता- सुश्रुत शल्य प्रधान संहिता है, अत: उनकी गणना शल्य से होती है- (१) शल्य, (२) शालाक्य, (३) कायचिकित्सा, (४) भूतविद्या, (५) कौमारभृत्य, (६) अगदतन्त्र, (७) वाजीकरण और (८) रसायन तन्त्र।

> आयुर्वेद के प्रारम्भिक काल में ही महर्षि चरक ने अपनी संहिता में सभी धातुओं स्वर्ण, रजत, ताम्र, लोह, नाग, वङ्ग, कांस्य, पित्तल और लोहमल मण्डूर का विस्तृत वर्ण और उनके चूर्ण (भस्म) बनाकर रोगिओं और स्वस्थ व्यक्तियों पर श्रेष्ठतम प्रयोग देखा गया है। चरक संहिता में पुंसवन संस्कार का अद्भुद् प्रयोग बताया गया है। जो स्त्री बारंबार कन्या उत्पन्न करती है उनके लिए पुंसवन संस्कार एक चमत्कारी प्रयोग है। एतदर्थ दो माह के अन्दर की गर्भिणी में यह संस्कार कराया जाता है, जिसमें पुष्य नक्षत्र में शुद्ध स्वर्ण के तनु पत्र पर सोनी से पत्र पर पुरुषाकृति चित्र बनवा लिया जाता है, , में एक गाय जो पहली बार व्याई है और बच्चा पुरुष (बछड़ा) हो जो प्रायः लालवर्ण की गिर की गाय हो क्योंकि नन्दिनी गाय लाल वर्ण की थी (प्रभा पतंगस्य मुनेश्च हेतुः) (रघुवंश महाकाव्य) (देखें चरकसंहिता शारीर स्थान ८/१९) उस गाय के दूध एवं दही के साथ निगलने का विधान सर्व प्रथम इसी संहिता में है। अपि च- साथ हो नवजात बालक/बालिकाओं को नाभि नालच्छेदन के बाद शुद्ध स्वर्णपत्र को कठिन एवं चिकने पत्थर पर मधु के साथ घिसकर उस नवजात को चटाने का विधान पहली बार इसी संहिता में है, जिससे बालक अधिक बुद्धिमान् एवं अत्यधिक विद्वान् और दीर्घायु बाला होता है तथा इस बालक पर विष और गरविष का प्रभाव नहीं होता है।

यथा- हेम सर्वविषाण्याशु गरांश्च विनियच्छति ।

न सज्जते हेमपाङ्गे विषं पद्मदलेऽमबुवत् ।। (च.चि. २३/२४०) 

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