आत्मनिरीक्षण
यन्मे छिद्रं चक्षुषो हृदयस्य मनसो वातितृण्णंबृहस्पतिर्मे तद्दधातु ।शन्नो भवतु भुवनस्य यस्पतिः ।।यजुर्वेद ३६/२
भावार्थ – हे जीवन दाता ! मैंने गीता , रामायण , दर्शन , उपनिषद् , वेद आदि ग्रन्थों को पढ़ा , किन्तु मन की पुस्तक को तो कभी खोलकर देखा ही नहीं । मन में उठने वाली अनिष्ट पापवृत्तियों की ओर तो मैंने कभी दृष्टि ही नहीं डाली । अन्तःकरण में कितने बुरे-बुरे विचार उत्पन्न होते हैं । इनकी पूरी गणना कभी की ही नहीं । हे देव ! मैं न देखने योग्य को देखता हूँ , न सुनने योग्य को सुनता हूँ , न खाने योग्य को खाता हूँ , न भोगने योग्य को भोगता हूँ , न विचारने योग्य को विचारता हूँ । न जाने इस जीवन में कितने घण्टे , कितने दिन , कितने सप्ताह , कितने वर्ष तक इन क्लिष्ट वृत्तियों को उठाता रहा हूँ । न जाने कितना पाप संग्रह कर लिया है । जब इन सबका आंकलन कर रहा हूँ तो शरीर काँप उठता है , मन घबराने लगता है और मेरी आत्मा अशान्त हो जाती है ।
शान्त एकान्त स्थान में आँखें बन्द करके अन्तःकरण में झाँकता हूँ तो पापों की गठड़ियाँ भरी हुई प्रतीत होती हैं । इन पापवृत्तियों ने कुसंस्कारों के चट्टानों की कितनी ऊँची तह जमा दी है और ये चट्टानें इतनी सुदृढ़ हो गयी हैं कि सामान्य सत्संग , उपदेश , स्वाध्याय , आत्मचिन्तन व निदिध्यासन से किञ्चित् मात्र भी उखड़ती हुई प्रतीत नहीं होती हैं ।
हे जीवन के स्वामी प्रभुदेव ! इन अविद्या , अनीति , कुसंस्कारों के पहाड़ों व चट्टानों को बनाने वाला मैं ही हूँ । मैंने ही इन संस्कारों की प्रवृद्धि की , इनको पाला-पोषा है , इनकी रक्षा की है । इनसे अधर्म , अन्याय , अत्याचार करता रहा हूँ और सतत् जीवन में भय , चिन्ता , असन्तोष , बन्धन , दुःखों की अनुभूति करता रहा हूँ । किन्तु अब मैं इस कुप्रवृत्तियों वाले जीवन से ऊब गया हूँ । प्रभो ! अब सच्ची श्रद्धा , आस्था , विश्वास के साथ आपकी शरण में आया हूँ । आज से मैं सर्वात्मा समर्पण करता हूँ और गद्-गद् होकर आपसे विनती करता हूँ कि बुरा देखने , बुरा सुनने , बुरा विचारने की जो विषैली पापवृत्तियाँ हैं उनको समाप्त कर दो ।
जब मैं एकान्त में जाकर आत्मनिरीक्षण करता हूँ तो पाता हूँ कि कैसे मैं मूढ़ , छल , कपट का आश्रय लेकर अपने स्वार्थ के लिए औरों को छलता रहा हूँ , उन्हें धोखा देता रहा हूँ । जो मुझे अपना हितैषी मानते हैं , मुझे भला व्यक्ति समझते हैं , अपना आत्मीय मानते हैं , सच्चा मित्र , भाई , सहयोगी , पवित्र , श्रेष्ठ , सज्जन , परोपकारी मानते हैं , उन्हीं को मैं धोखा देता रहा हूँ । प्रभो ! मैं अन्दर से ऐसा नहीं हूँ जैसा लोग मानते हैं , समझते हैं । मैं तो उनके विचारों , मान्यताओं से विपरीत बुरा हूँ , स्वार्थी हूँ , ढोंगी हूँ , पाखण्डी हूँ , बहरुपिया हूँ । हे अन्तर्यामी ! आप तो जानते ही हैं कि मैं इन सब को धोखा देता आया हूँ । आपसे क्या छिपा हुआ है ।
किन्तु अब मैं इन सब दुष्ट प्रवृत्तियों और अनिष्ट कुवासनाओं के परिणामों , प्रभावों व फलों का अनुमान लगाकर सिहर जाता हूँ । अब इन समस्त चेष्टाओं को एकदम समाप्त करना चाहता हूँ ।
इनके उद्गम कारणों को समूल उखाड़ देना चाहता हूँ । हे महान् ! गुणधर्म स्वभाव के सागर ! हे जगत् पिता ! आपसे विनम्र प्रार्थना है कि नेत्र , श्रोत्र , मन , वाणी , हस्त , पाद , उपस्थ आदि समस्त ज्ञानेन्द्रियों व कर्मेन्द्रियों की कुप्रवृत्तियों को अवरुद्ध करने का साहस बल , परिश्रम मेरे में उत्पन्न कर दो । कोई भी विचार , वाणी , कर्म की वृत्ति अशुभ न हो , अहितकर न हो । यह सब आपकी सहायता के बिना असम्भव है । अतः आपसे प्रार्थना है कि तत्काल इतना ज्ञान-विज्ञान , बल साहस , पराक्रम मुझे प्रदान करें कि मैं इन न्यूनताओं , दोषों , त्रुटियों , पाप वासनाओं को समाप्त कर दूँ और पवित्र बनाकर आपके दर्शन के पात्र बन जाऊँ । यही आपसे विनम्र प्रार्थना है । इसे आप अपनी कृपा से ही शीघ्र पुरी करो ।
भावार्थकर्ता — आचार्य ज्ञानेश्वरार्य