चातुर्मास, पितर पक्ष श्राद्ध, गुरू पूर्णिमा, काँवड़ यात्रा का तार्किक विवेचन
चातुर्मास श्रावण, भाद्रपद, आश्विन और कार्तिक चार महीने की अवधि है, जो आषाढ़ शुक्ल एकादशी से प्रारंभ होकर कार्तिक शुक्ल एकादशी तक चलता है। चातुर्मास के दौरान मांगलिक कार्यों पर रोक लग जाती है अपितु धर्म-कर्म और दान-पुण्य के लिए चातुर्मास का महीना अनुकूल माना जाता है। । जिसका कारण इन मासों की ऋतुजनित परिस्थितियाँ हैं जिसके कारण इन मासों में आहारशुद्धि रखने की बाध्यता उत्पन्न हो जाने के कारण यह ध्यान और साधना करने का स्वाभाविक काल होता है।
चातुर्मास का आरंभ श्रावण मास से होता है जिसका कारण इस मास में श्रवण नक्षत्र का होना है। श्रावण शब्द श्रवण से बना है जिसका अर्थ है सुनना तथा इसके नामानुसार इस मास में धर्म को ब्राह्मण, सन्यासी, साधु-महात्माओं से सुनकर समझने की परंपरा रही है, जिसके पीछे कई कारण है। प्रथम कारण यह है कि सावन और भादों माह में बारिश अधिक होती है, सभी नदी-नाले उफान पर होते हैं तथा कहीं आना-जाना कष्टकारी होता है जिसके कारण सदा घूमकर धर्म-प्रचार करने वाले संत-महात्माओं को किसी मंदिर, मठ या आश्रम में रूकना पड़ जाता है जो सामान्यतः अपने मूल आश्रम (स्थान) से अन्यत्र ही होता है। इन मासों में संत महात्मा ऋतु स्थिति के कारण रुककर धर्म का प्रचार-प्रसार और व्रतानुष्ठान करते हैं जिसके कारण गृहस्थ लोगों को इनकी सेवा-सुश्रुषादि द्वारा इन्हे प्रसन्न करके इनसे ज्ञानलाभ उठाने का विशेष सुअवसर उत्पन्न होता है।
आषाढ़ मास का अंतिम दिवस गुरू पूर्णिमा होता है जिसके अगले दिवस से चातुर्मास आरंभ हो जाता है। श्रावण मास के एक दिवस पूर्व ही गुरू-पूर्णिमा का होना यह संदेश देता है कि इस दिन से निकट के मठ-मंदिर आश्रम में साधु-सन्यासियों गुरूओं के दर्शन होना आरंभ हो जाएगा। प्रथम मास श्रावण में वेदादि-शास्त्रों का श्रवण लाभ उठाया जाता है अगले मास भाद्रपद में प्राप्त उपदेश को जीवन में धारण करने का प्रयास करते हुए भद्र पद प्राप्त करने का अनुष्ठान किया जाता है।
चातुर्मास के प्रथम दो महिनों श्रावण और भाद्रपद में पाचनशक्ति कमजोर होती है तथा भोजन और जल में बैक्टीरिया की संख्या बढ़ जाती है। अतः इन महिनों में फलाहार और जल पीकर समय व्यतीत करना उत्तम होता है, तथा इस व्रत में पत्तेदार सब्जियां, दूध, शक्कर, दही, तेल, बैंगन, नमकीन या मसालेदार भोजन, मिठाई, सुपारी का सेवन नहीं किया जाता। जिसके कारण ‘चातुर्मास’ के दो महिने, व्रत-भक्ति के मास कहे गये हैं। श्रावण में पत्तेदार सब्जियां यथा पालक, साग इत्यादि, भाद्रपद में दही, आश्विन में दूध, कार्तिक में प्याज, लहसुन और उड़द की दाल आदि का त्याग कर दिया जाता है।
गृहस्थों की भावना होती है कि संत-सन्यासी उनके घर आकर उनके घर को भी पवित्र करें किन्तु श्रावण व भाद्रपद वर्षा ऋतु होने के कारण उनकी सुविधा तथा व्रत का काल होने के कारण वे उन्हें अपने गृह पर आमंत्रित नहीं कर पाते अपितु इन दो महिनों गृहस्थ शुद्ध जल-फलादि लेकर उत्तम कोटी के साधु-सन्यासियों से ज्ञान प्राप्ति की आकाँक्षा लेकर पास के मन्दिर, मठ, आश्रम में जाते हैं जिसका विकृत स्वरूप वर्तमान की काँवड़ यात्रा है।
अब आगे ध्यान देने योग्य बात है कि चातुर्मास में ठीक वर्षा ऋतु की समाप्ति पश्चात् शरद ऋतु आरंभ होती है। इस ऋतु की सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि, इस ऋतु में भूख अधिक लगती है और जो भी खाया जाता है वह जल्दी हजम हो जाता है। इसीलिए इस ऋतु को शारिरीक पुष्टि का काल माना जाता है। कोहरे के कारण इस काल में भी साधु-सन्यासियों का आवागमन दुष्कर होता है। इसी काल को पितर पक्ष कहा गया है जो निष्प्रयोजन नहीं होता इसका सीधा संबंध गृहस्थाश्रम और सन्यास आश्रम के मध्य सेतु निर्माण और गृहस्थों द्वारा सन्यासआश्रम में स्थित लोगों के सत्कार की भावनाओं से जुड़ा तथा साधु-सन्यासियों के सेवा भाव की परंपरा से संबंधित होता है।
वर्षा के दो मास श्रावण-भाद्रपद समाप्त होते ही शरद् ऋतु आरंभ हो जाती है, आवागमन सुगम हो जाता है तथा आश्विन में श्रावण मास जैसा भोजन पर प्रतिबंध नहीं होता अतः यह समय होता है जब गृहस्थों को अवसर प्राप्त होता है कि वे मंदिर-मठ-आश्रमों में स्थित साधु-महात्माओं को रूचिकर भोजन करवाकर उन्हें तृप्त करने की लालसा पूर्ण करें। इसलिए भादो माह के तुरन्त पश्चात् आश्विन कृष्ण पक्ष प्रतिपदा से लेकर अमावस्या तक पंद्रह दिन पितरपक्ष का विधान किया गया है। इस एक पक्ष में ब्राह्मण, साधु-सन्तों और सन्यासियों को भोजनादि से तृप्तकर आश्विन शुक्ल पक्ष से लेकर कार्तिक मास तक चलने वाली हेमन्त ऋतु जिसे बल प्राप्त करने और शक्ति संचयन हेतु श्रेष्ठ माना जाता है उस अवधि में उन्हें ध्यान-उपासना, योगाभ्यास आदि के द्वारा उर्जावान होने के लिए प्रयोग करने दिया जाता है क्योंकि अभी चातुर्मास समाप्त नहीं हुआ होता है तथा व्रत-अनुष्ठान का अनुकूल समय कार्तिक मास तक होता है।
सनातन परंपरा के व्यक्ति केवल अपने रक्त संबंधियों को अपना पूर्वज नहीं कहते अपितु श्रीराम, श्रीकृष्ण आदि को जिस प्रकार वे अपना पूर्वज मानते हैं उसी प्रकार संत-महात्माओं में भी अपने पूर्वजों की छवि के दर्शन करते हुए उन्हें भोजनादि द्वारा तृप्ति प्रदान कर पितृ ऋण और ऋषि ऋण का अल्पांश उतारने का प्रयास करते हैं। जो लोग ऐसा सोचते कहते हैं कि श्राद्ध तो जीवित व्यक्तियों का ही किया जाता है मरे लोगों का श्राद्ध नहीं होता तो उन्हें समझना चाहिए कि पितृ यज्ञ के अन्तर्गत जीवित माता-पिता के प्रति श्रद्धायुक्त सेवा कार्य करने का तो विधान है ही तथा पितर पक्ष में मर चुके व्यक्ति का कोई संस्कार नहीं हो रहा अपितु उनकी स्मृति में अपने पितर तुल्य साधु-सन्यासी, ब्राह्मण व्यक्तियों की सेवा के पुण्य कर्म का आयोजन किया जाता है। जिस प्रकार अभी कुछ सौ वर्षों पूर्व तक लोग अपने पूर्वजों की स्मृति में कुँओं, जलाशयों, धर्मशालाओं, गऊशालाओं, पाठशालाओं आदि का निर्माण कराते थे उसी प्रकार की परंपरा पितर पक्ष में अपने पूर्वजों की स्मृति में ब्राह्मणों, साधु-सन्यासियों में अपने पूर्वजों की छवि देखते हुए उन्हें तृप्त करना है। आज विपरीत विचाराधारा समाज में इतनी अधिक व्याप्त हो गयी है कि सर्वप्रथम अच्छे साधु-सन्यासी घट गये हैं तथा सामान्य दिनों में शहरों में साधु-सन्यासियों के तो दर्शन ही दुर्लभ हो चले हैं तथा ब्राह्मणों तथा सन्यास आश्रम के प्रति वर्तमान काल में ऐसी अश्रद्धा उत्पन्न हो गयी है कि यदि कोई साधु-सन्यासी दिख भी जावे तो तथाकथित आधुनिक लोग उसे भिखमंगा समझ पिंड छुड़ाते हैं। ऐसी परिस्थिति में जो तार्किक व्यवस्था चातुर्मास तथा पितर पक्ष की है उसका परिशोधन करके उसे पुनः परंपरा में लाना उचित होगा जिससे समाज में धर्म-प्रचार कार्य बढ़े।
प्राचीन काल में भी चातुर्मास में साधु-संतो, सन्यासियों की धर्मपद यात्रायें रुक जाती थीं चातुर्मास में मठ आश्रमों में रहकर धर्म प्रचार-प्रसार की वैदिक परंपरा त्रेता, द्वापर और सतयुग में भी रही है। भगवान श्रीकृष्ण ने भी द्वारिका में साधु-संतों के चातुर्मास की व्यवस्था की थी। स्वामी दयानन्द सरस्वती जी ने भी चातुर्मास में अजमेर के पुष्कर स्थित ब्रह्मा मंदिर में चातुर्मास व्यतीत किया था। संत-सन्यासी काम्य कर्मों का परित्याग कर लोकहितार्थ निःस्पृह हो सदैव तपश्चरण करते हैं और पवित्र चातुर्मास में उनकी तपश्चर्या, व्रतनिष्ठा बढ़ जाती है।
सन्तों की प्रकृति बादलों की भाँति यायावरी होती है चातुर्मास्य काल में तप एवम् अनुष्ठान के माध्यम से शक्ति अर्जित करके जैसे बादल जल संग्रह करते हैं और बाद में यायावर की भाँति घूमकर उसकी वर्षा करते है उस प्रकार संत चातुर्मास की तपस्या से संचित की गई ऊर्जा से आत्मकल्याण करते ही हैं, तथा अपने सदाचार से समस्त संसार को पवित्र करते हैं।
ए॒व। पि॒त्रे। वि॒श्वऽदे॑वाय। वृष्णे॑। य॒ज्ञैः। वि॒धे॒म॒। नम॑सा। ह॒विऽभिः॑। बृह॑स्पते। सु॒ऽप्र॒जाः। वी॒रऽव॑न्तः। व॒यम्। स्या॒म॒। पत॑यः। र॒यी॒णाम् ॥६॥ ऋग्वेद मण्डल:4 सूक्त:50 मन्त्र:6
ऋग्वेद के इस मंत्र में ईश्वर से हम सभी के धन-ऐश्वर्य से सम्पन्न होने की प्रार्थना की गयी है और सम्पन्न व्यक्ति ही साधु-संत-सन्यासियों, ब्राह्मण आदि का सत्कार कर सकता है। अतः जो लोग अपनी विपन्नता का हेतु इनके सत्कार में असमर्थता के लिए जताते हैं उन्हें विचार करना चाहिए कि हमें वेदों की आज्ञा सम्पन्नता को धारण करके संतों का सत्कार करना चाहिए अथवा विपन्नता को धारण करके इससे मुक्त रहना चाहिए।
इस लेख के माध्यम से मैंने पितर पक्ष में अपने पितरों की स्मृति में श्रद्धापूर्वक किसका श्राद्ध होता है उसकी तर्कपूर्ण व्याख्या कर दी है। तर्क को ऋषि मानने वाली परंपरा के लोगों को यदि अब भी पितर पक्ष और श्राद्ध के इस तार्किक विवेचन से आपत्ति है और इसका विरोध करते हैं तो उन्हें इस लेख को पूर्वाग्रह त्यागकर समझना चाहिए और यदि उन्हें कुछ अनुचित लगता है तो तर्कों से इसका खंडन अवश्य करना चाहिए, किन्तु मेरी दृष्टि में विद्वत्जनों के सत्कार की एक तार्किक पुरातन परंपरा का विरोध मेरी दृष्टि में तो उचित नहीं है। यदि आप पितर पक्ष में संत सत्कार करने में असमर्थ है तो यह आपकी स्थितिजन्य हो सकता है किन्तु इसके कारण इसके प्रति अश्रद्धा रखना तो उचित नहीं। सुधी जनों को विचारपूर्वक भ्रष्ट हो चुकी सनातनी परंपराओं को ज्ञान और भावना दोनों का समन्वय करके तथा परिशुद्ध करके अपनाना चाहिए ऐसा मेरा व्यक्तिगत मन्तव्य है।