दीपावली – रामराज्य की परिकल्पना /
Deepawali – Concept of Ram-Rajay
दीपावली अर्थात श्री राम की चौदह वर्ष के वनवास के पश्चात घर-वापसी। प्रजा प्रसन्न है, कि उनके वांछित युवराज का अब राज्याभिषेक हो सकेगा। प्रजा श्री राम के गुणों को जानती थी और ऐसा मानती थी कि श्री राम उन्हें एक अच्छा शासन देंगे। हिन्दू संस्कृति में मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम द्वारा किया गया आदर्श शासन “रामराज्य” के नाम से प्रसिद्ध है।
गांधीजी ने भारत में अंग्रेजी शासन से मुक्ति के बाद ग्राम-स्वराज के रुप में रामराज्य की कल्पना की थी। स्वयं गांधीजी के समय में ही उनकी रामराज्य की परिभाषा को ले कर लोगों में बहुत भ्रांतियां थीं और अनेकों अवसरों पर उन्हें स्वयं स्पष्टीकरण देना पड़ा था। ८ जनवरी १९२५ के [8.01.1925] काठियावाड़ अधिवेशन (यंग इंडिया, १९२४-१९२६, पृष्ठ ४७२) के [1924 – 1926; 472] अपने सम्बोधन में गांधीजी रामराज्य पर बोलते हुए उन्होंने कहा, “आधुनिक समय काल में प्रथम खलीफाओं को राम राज्य का संस्थापक कहा जा सकता है। अबु बकर और हजरत उमर ने करोड़ों में धनराशि एकत्र की परन्तु वे व्यक्तिगत रुप से एक अच्छे फकीर के भाँति ही थे।“
(अबू बकर व हजरत उमर जिन्होंने तलवार के बल पर इस्लाम को फैलाया था, स्वयं को अहिंसा का समर्थक व प्रचारक कहने वाले गांधीजी के लिए “अच्छे फकीर” कैसे हो सकते है इसका निर्णय तो गैर-मुस्लिम पाठक-गण को स्वयं करना है।)
वर्तमान समय में रामराज्य का प्रयोग सर्वोत्कृष्ट अथवा आदर्श शासन के रुप में किया जाता है। रामराज्य, लोकतंत्र का दोष- व त्रुटि- रहित वह रुप माना जा सकता है, जिसमें समाज के सभी वर्ग के लोगों के अधिकारों का सम्मान हो, उनके साथ किसी भी प्रकार का भेद-भाव न हो। समाज में सभी लोग निर्भीक रहते हुए अपना जीवन बिता सकें।
श्री तुलसीदास रचित रामचरितमानस के उत्तर कांड में दोहों एवं चौपाईयों द्वारा “रामराज्य” के विभिन्न आयामों का उल्लेख किया गया है। निम्न दोहा रामराज्य की एक सुन्दर व्याख्या देता है।
बरनाश्रम निज निज धरम निरत बेद पथ लोग चलहिं सदा पावहिं सुखहि नहि भय सोक न रोग (रामचरितमानस, उत्तर कांड, दोहा २०)
अर्थ: सब लोग अपने-अपने वर्ण और आश्रम के अनुकूल धर्म में तत्पर हुए सदा वेद-मार्ग पर चलते है और सुख पाते हैं। उन्हें न किसी बात का भय है, न शोक है और न ही कोई रोग ही सताता है।
हिंदी शब्दकोष में भी “रामराज्य” की परिभाषा निम्न है:
१. रामचंद्र जी का शासन जो प्रजा के लिये अत्यंत सुखदायक था
२. वह शासन जिसमें रामचंद्र के शासनकाल का सा सुख हो
यह कहना अतिशयोक्ति नही होगी कि रामराज्य एक ऐसा शासन माना गया है जिसमें उसके नागरिकों को सुख मिले, उन्हें कोई कष्ट न हो। ऐसी शासन प्रणाली हो जिसमें व्यवस्थाएँ नियमबद्ध एवं प्रकृति के अनुकूल हों।
श्री वाल्मीकि रामायण के उत्तर-कांड के ७३ वें [73] सर्ग में एक ब्राह्मण के अपने बालक के शव को राजद्वार पर लाने का उल्लेख है। वह ब्राह्मण अपने बेटे की अकाल मृत्यु से संतप्त है और पुकार रहा है कि किस पाप से उसका अल्प आयु का बेटा (१३ वर्ष, १० माह और बीस दिवस) पितृकर्म किए बिना बाल्यावस्था में ही मृत्यु को प्राप्त हुआ है। वह कहता है, “श्री राम के राज्य में तो अकाल-मृत्यु जैसी भयंकर घटना पहले कभी देखी अथवा सुनी नही गई थी। निःसंदेह इसमें श्रीराम का ही कोई दुष्कर्म है जिससे इनके राज्य में रहने वाले बालक की मृत्यु हुई है।“ वह आगे कहता है कि राजा के दोष से जब प्रजा का विधिवत पालन नहीं होता तभी प्रजावर्ग को ऐसी विपत्तियों का सामना करना पड़ता है। राजा के दुराचारी होने पर ही प्रजा की अकाल-मृत्यु होती है।
महाराज श्रीराम ब्राह्मण का करुण-क्रन्दन सुनते है और गुरु वसिष्ठ, मंत्रीगण व अन्य विद्वानों से विमर्श करते है। कोई भी उस ब्राह्मण को गल्त नहीं बताता अपितु वे राजा राम से आग्रह करते हैं की वे राज्य में खोज करवाएं और जहां कहीं भी दुष्कर्म दिखे उसे रोकने का प्रयत्न करें चूँकि यदि कोई दुर्बुद्धि मानव किसी भी राजा के राज्य में अधर्म अथवा न करने योग्य कार्य करता है, उसका वह कार्य उस राज्य के नाश का कारण बन जाता है। ऐसे दुर्बुद्धि को रोकने से धर्म की वृद्धि होगी और मनुष्यों की आयु बढ़ेगी। जो राजा धर्मपूर्वक प्रजा का पालन करता है, वह प्रजा के वेदाध्ययन, तप, परिश्रम और शुभ कर्मों के पुण्य का भागीदार बनता है। (सर्ग ७४) [74]
रामराज्य की परिकल्पना को समझने के लिए पाठकों को श्री वाल्मीकि रामायण के अयोध्या-कांड के १०० वें सर्ग का अध्ययन अवश्य करना चाहिए। इस सर्ग में श्री राम के वनवास में चले जाने के पश्चात जब उनके अनुज भरत उन्हें वापिस लिवाने हेतु वन में जाते है और तब श्री राम भरत से अयोध्या की, परिवार की व उनकी कुशलता के प्रश्न पूछते हुए उन्हें राजनीति का उपदेश देते हैं, इसका वर्णन है। उनकी शासन की यह नीति ही ‘रामराज्य’ की आधारशिला है।
श्री राम भरत से अपने संवाद में राजा के चौदह दोष जिनका उसे परित्याग करना चाहिए के विषय में बताते हैं:
(१) नास्तिकता, (२) असत्य-भाषण, (३) क्रोध, (४) प्रमाद, (५) दीर्घसूत्रता, (६) ज्ञानी व्यक्तियों का संग न करना, (७) आलस्य, (८) इन्द्रियों के वशीभूत होना, (९) राजकार्यों के विषय में अकेले ही विचार करना, (१०) प्रयोजन को न समझने वाले विपरीतदर्शी मूर्खों से परामर्श लेना, (११) निश्चित किए हुए कार्यों को शीघ्र प्रारम्भ नही करना, (१२) गुप्त मंत्रणा को सुरक्षित न रख कर अपितु प्रकट कर देना, (१३) मंगल कार्यों का अनुष्ठान नही करना तथा (१४) सब शत्रुओं पर एक ही साथ आक्रमण कर देना वे राज्य की बाह्य व आंतरिक सुरक्षा हेतु कहते हैं कि: राजा को शत्रु-पक्ष के अठारह(१) और अपने पक्ष के पंद्रह(२) क्षेत्रों की तीन-तीन अज्ञात गुप्तचरों द्वारा नित्य जाँच-पड़ताल कराते रहना चाहिए। जिन शत्रुओं को राजा ने राज्य से बाहिर निकाल दिया हो, वे यदि लौटकर आते है तो राजा को उन्हें दुर्बल नहीं समझना चाहिए और उनकी उपेक्षा नहीं करनी चाहिए।
(१) शत्रु-पक्ष के मंत्री, पुरोहित, युवराज, सेनापति, द्वारपाल, अन्तर्वेशिक (राजमहल के भीतरी कक्षों के रख- रखाव का अध्यक्ष), कारागाराध्यक्ष, कोषाध्यक्ष, यथायोग्य कार्यों में धन का व्यय करने वाला सचिव, प्रदेष्टा (पहरेदारों को काम बताने वाला), नगराध्यक्ष (कोतवाल), निर्माणकार्याध्यक्ष, धर्माध्यक्ष (आधुनिक समय में मुख्य न्यायधीश), सभाध्यक्ष (आधुनिक समय में लोकसभा व राजयसभा अध्यक्ष), दण्डपाल, दुर्गपाल, राष्ट्रसीमापाल तथा वनरक्षक – ये अठारह क्षेत्र हैं जिन पर राजा को दृष्टि रखनी चाहिए।
(२) उपर्युक्त अठारह क्षेत्रों से आरम्भ के तीन को छोड़कर शेष पंद्रह क्षेत्र अपने पक्ष के भी सदा परीक्षणीय हैं।
श्री राम उपरोक्त विषय ही नही, अपितु अन्य विषयों जैसे :
विद्वानों की नियुक्ति, उनके प्रयोजन, उनका सम्मान
मंत्री, अधिकारी कैसे हों, उनका चयन कैसे हो
सेनापति व राजदूत कैसे हों
विषयों को गुप्त रखना व किस से परामर्श लेना
राजा का प्रजा की और व्यवहार
राजा का सैनिकों में निष्ठा बनाए रखना
राजा को किन का संग करना चाहिए और किन का नहीं
राज्य के नगर कैसे हों
प्रजा में समाज की संरचना व जीवन-यापन
राज्य का धन-संचालन व आपात काल
न्याय व्यवस्था
वे गुण जो राजा में सदा होने चाहिए
के संबंध में भी बताते हैं। (अगले लेख में मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम के उपरोक्त विषयों पर कथन)
हम न भूलें कि
रामराज्य की परिकल्पना एक ऐसी शासन व्यवस्था की अभिलाषा है जिसमें सभी के लिए सुख व समृद्धि हो।
प्रशासन का यह कर्त्तव्य है वह ऐसी व्यवस्थाएँ बनाए कि समाज के सभी वर्ग भौतिक, बौद्धिक व आध्यात्मिक उन्नति कर सकें।
प्रशासन नियम, आचार- व दंड-संहिता के आधार पर व्यवस्थाएँ बनता है और यह समाज के प्रत्येक वर्ग, प्रत्येक नागरिक का कर्त्तव्य है कि वह इनका सम्मान व पालन करे।
समाज में सुख-शांति होवे, समृद्धि आए इसके लिए अनिवार्य है कि समाज का प्रत्येक व्यक्ति अपने कर्त्तव्यों की पूर्ण सक्षमता से पूर्ति करे। वह अपने अधिकारों से पहले अपने दायित्त्वों का स्मरण करे व कार्य करते समय उन्हें प्राथमिकता दे।
जहाँ अधिकार हैं, वहाँ कर्त्तव्य व दायित्त्व भी हैं।
यह हमारा दायित्त्व है की हमारे अधिकार किसी अन्य के अधिकारों का हनन न करें जिसके लिए हमें अपने अधिकारों व कर्त्तव्यों की सीमा का ज्ञान होना आवश्यक है। इसे ही सनातन ‘धर्माचरण’ बताता है।
रामराज्य के लिए प्रत्येक व्यक्ति का धर्मानुसार आचरण व यथाशक्ति योगदान आवश्यक है।
Deepawali – Concept of Ram-Rajay
Deepawali is associated with the return of Shri Ram after fourteen years of exile. The people are happy that their desired crown prince can now be coronated. The subjects knew the qualities of Shri Ram and believed that Shri Ram would be a good king. In Hindu culture, the ideal governance by ‘Maryada Purushottam Shri Ram’ is famous as “Ram-Rajay“.
Gandhiji envisioned ‘Ram-Rajay’ in the form of ‘Gram-Swaraj’, after independence from the British rule in India. During the time of Gandhi itself, there were many misconceptions among people regarding his definition of ‘Ram-Rajay’, and he had to give explanations on many occasions. On 8th January 1925 while addressing the Kathiawar Session (Young India, 1924–1926, p. 472) Gandhiji talks about Ram-Rajay, “In modern times the first Caliphs may be said to have established Ram-Rajay. Abu Bakr and Hazrat Umar collected revenue running into crores and yet personally they were as good as fakirs.”
(How can Abu Bakr and Hazrat Umar, who spread Islam by the power of the sword, be “good mystics” for Gandhiji, who is called as a big proponent and propagators of non-violence, is for the non-Muslim readers to decide for themselves.)
At present, Ram-Rajay emphasises the best or ideal government. Ram-Rajay can be considered as a flawless form of democracy, in which the rights of people of all sections of the society are respected. There are no discriminations of any kind and the people of such a society can live a fearless life.
In the Uttar Kand of Shri Tulsidas Ramcharitmanas different views on “Ram Rajay” have been mentioned. The following doha (couplet) gives a beautiful explanation of Ram-Rajay.
barnāshram nij nij dharam nirat bed path log
chalhi sada pavhi sukhhi nahi bhay sok na rog (Ramcharitmanas, Uttar Kand, Doha 20)
Meaning: All people, perform their duties as per their respective varn and ashram. They follow the path of the Veds and find happiness. They are free from fear, grief and ailment.
The Hindi dictionary also defines ‘Ram-Rajay’ as Ramchandr’s rule:
1. which was very pleasing to the people
2. which brought happiness to people during his rule
It would not be an exaggeration to say that ‘Ram-Rajay’ is considered as a form of government in which its citizens are happy and do not experience sorrow or suffer from pain. It is that form of governance in which the systems are rule bound and in accordance with the environment.
In the 73rd chapter of the Uttar-kand of Sri Valmiki Ramayan, there is a mention of a brahmin bringing the dead body of his child to the royal palace. The brahmin is grieved by the premature death of his son and is lamenting as to, for what sin his young son (13 years, 10 months and twenty days) has died in his childhood without performing ‘Pitrakarm’. He says, “In the kingdom of Shri Ram, such a dreadful event like sudden-death had never been seen before nor heard of. Undoubtedly, there is some misdeed of Shri Ram, due to which the child living in his kingdom has died. People die prematurely only when the king makes mistakes and does not rule properly.”
Maharaj Shri Ram listens to the brahmin and consults with Guru Vasisth, ministers and other scholars. No one says that the brahmin is wrong, rather they request that king Ram make a check in the kingdom to stop the misdeeds wherever they are seen. If any ignorant human being in the kingdom does unrighteous or forbidden things, then this act of his becomes the cause of the destruction of that state. By stopping such bad personalities, Dharm will prevail, and the lifespan of the people will increase. The king who rules his kingdom righteously also gets rewarded for the austerity, good deeds and hard work of his subjects. (Chapter 74)
To understand the concept of Ram-Rajay, readers must study the 100th chapter of Ayodhya-Kand of Shri Valmiki Ramayan. This chapter tells us about Shri Ram’s guidance regarding governance given to his younger brother Bharat, who visits him in forest to convince Ram to not to go in exile but come back to Ayodhya. This policy of governance is the foundation of ‘Ram- Rajay’.
Shri Ram in his dialogue with Bharat talks about the 14 faults of the king which he must give up
(1) atheism, (2) false-speech, (3) anger, (4) ecstasy, (5) promiscuity, (6) not associating with learned persons, (7) laziness, (8) being possessed by the senses, (9) to think alone about the affairs of the state, (10) take advice from opposite-sighted fools who do not understand the purpose, (11) not to start the decided tasks on time, (12) by not keeping secret consultations confidential, (13) not to perform auspicious deeds and (14) to attack all the enemies at the same time. For the external and internal security of the state, he says that:
The king should get the eighteen(1) ‘spheres’ of enemy side and fifteen(2) areas of his own side checked regularly by three unknown spies. When enemies whom the king has earlier thrown out of the kingdom come back, then the king should not consider them weak and should not ignore them.
Ministers of the enemy’s side, priest, prince, commander, gatekeeper, antarveshik (caretaker of the inner chambers of the palace), head of prison, treasurer, secretary to finance, Pradeshta (chief of guards), Chief of city police, Chief of civil works, Chief Justice, Speaker of House, Chief of executions, Chief of inner security, Chief of border security and Chief of forest reserves – these are the eighteen ‘spheres’ on which the king should keep an eye on.
Except for the first three from the above eighteen, the remaining fifteen of own side must also be under continuous surveillance.
Shri Ram spoke not only about the above, but also on other topics like:
appointment of scholars, their purposes, their respect
ministers, officers, administrators etc., their selection
commander and ambassador
keeping matters confidential and whom to consult
king’s behavior toward his subjects
loyalty of soldiers toward king
whom the king should associate with
city planning
structure and subsistence of society
state finance management and emergency
judicial system
the qualities that a king should always have
(Next article: Statements of Maryada Purushottam Shri Ram on the above topics)
Let us not forget that
The vision of Ram-Rajay is the wish for a system of governance in which there is happiness and prosperity for all.
It is the duty of the administration to make such arrangements that all sections of the society can prosper materially, intellectually and spiritually.
Administration can create systems by making rules, code of conduct and penal code. It is the duty of every section of the society, every citizen to respect and follow them.
It is necessary that every person of the society should fulfill his duties with full competence. Only then happiness, peace and prosperity will prevail. One should always remember his responsibilities before asking for his rights and should give them priority while working.
Where there are rights, there are also duties and responsibilities.
It is our obligation that our rights should not infringe on the rights of others. We must be aware of the limits of our rights and duties. This is what Sanatan calls as ‘Dharmacharan‘.
For Ram-Rajay, every person must behave according to ‘Dharm’ and contribute to maximum of his strength.