धर्म प्रचार
धर्म प्रचार कैसा हो?
कैसा प्रचार सफल है?
इसका उत्तर जानने से पूर्व हमें यह जानना चाहिए कि जो भौतिक स्वार्थ में लिप्त है उनपर किसी धर्म प्रचार का प्रभाव नहीं पड़ता। इस धरा पर कई ऐसे पतित किन्तु बुद्धिमान लोग हैं जो भौतिक स्वार्थ में इतने मदान्ध हैं कि किसी बात का उनपर असर नहीं होता। ऐसे लोग अपने सांसारिक स्वार्थ के वशीभूत होकर अपनी गलत बातों को सही साबित करने के प्रपंच से कभी बाज नहीं आते। कुछ विचित्र बुद्धिमान प्राणी ऐसे भी हैं जो लोगों की सही बातों में गलत खोजने के लिए गहन अन्वेषण कार्य की सीमा तक जाते हैं और लोगों के लिए ऐसा विषाक्त तर्क का जाल बुनते हैं जिसमें मानवों की आने वाली पीढ़ीयाँ फँसकर अंधकार में ही घूमती रहें। बुद्धिमान होना और चरित्रवान होना भिन्न बातें हैं। जब ऐसे चरित्रहीन बुद्धिमान तार्किक मानवता के शत्रुओं को कई प्रकार के बल जैसे धन बल, जन बल आदि भी प्राप्त होने लगे तो फिर मानव प्रजाति का भविष्य अंधकारमय निश्चित होना प्रारंभ हो जाता है।
यह एक कटु सत्य है कि प्रत्येक मानव जन्म से शुद्र अर्थात् मूर्ख ही जन्मता है। कहा भी गया है जन्मना जायते शूद्राः। प्रत्येक मानव शिशु को अपने पूर्व के मानवों का संरक्षण न मिले तो वह एक जानवर से अधिक कुछ नहीं बन सकेगा। धर्म की अत्यन्त सामान्य परिभाषा गुण है। भौतिक पदार्थों में गुण स्वतः परिलक्षित होता है किन्तु जीवित प्राणियों में ऐसा नहीं होता है इसलिए मानवों के लिए धर्म धारण करने को कहा गया है और जो जितना अधिक इसे धारण करता है उतना प्रबुद्ध होता है धार्मिक कहलाता है। अब यहाँ धारण करने का अर्थ शरीर पर वस्त्रों की भांति धारण करने की बात नहीं कही गयी है। यहाँ धारण का अर्थ अतःकरण में धारण करना और अपने कर्मों को नियंत्रित करना है। सत्य का पालन करना प्रत्येक मनुष्य सही जानता और मानता है किन्तु व्यवहार और कर्म रूप में परिवर्तन करने वाले लोग इतने बड़े मानव समाज में अँगुली पर गिनने लायक ही आज मिलेंगे। अतः धर्म को धारण करने की पूर्णता कर्म में उतारने पर ही पूर्ण होती है। यदि मनुष्य धर्म या कहें गुणों को धारण न करे तो वह मनुष्य नहीं मनुष्यरूपी जानवर ही होगा और कटु सत्य है कि आज के समय में ऐसे जानवर ही समाज में बहुतायत में मिलते हैं।
प्रवाह से ज्ञान अगली पीढ़ियों को प्राप्त होता है। ज्ञान का प्रवाह अगली पीढ़ीयों में जितना आवश्यक है उतना ही ज्ञान का संरक्षण भी आवश्यक होता है ताकि उसे अगली पीढ़ीयों को दिया जा सके। मानवों द्वारा प्राप्त ज्ञान इतना है कि सारा ज्ञान किसी एक व्यक्ति द्वारा प्राप्त कर लेना संभव नहीं। इतने ज्ञान में मात्र कुछ ही ऐसा है जो मानव धर्म कहलाने योग्य हैं जिसकी घोर उपेक्षा आज हो रही है। बुद्धिमान मानव ने मानव धर्म के स्थान पर सांसारिक सुख को बड़ा मान लिया है और मानव धर्म वह जानता है मानता है पर अपने कर्म में उतारने का कार्य नहीं कर पा रहा जिसका प्रमुख कारण है कि मानव धर्म जानने मानने के अलावा अंतःकरण में धारण भी करना था यह भूल जाना। मानव प्रजाति यूं तो स्वयं को धरती पर सबसे अधिक बुद्धिमान समझती है किन्तु बुद्धिमान होना और उसका भ्रम होना दोनो अलग बातें है। धर्म को यदि मानव धारण न करे तो भ्रम उत्पन्न होता है और मनुष्य से अधिक भ्रमित होने वाला जानवर इस धरा पर कोई नहीं। उदाहरण स्वरूप मानव को एक भ्रम सदा रहा है, सभी कालों में उसने यह गर्व किया है कि अभी तक उनलोगों ने जो सफलता प्राप्त की है वैसी सफलता मानव प्रजाति ने कभी नहीं प्राप्त की है। यह झूठा गर्व सदा मानव प्रजाति को पीछे धकेलता रहता है लेकिन बुद्धिमान मानव अपनी बुद्धि के घमंड में इस गर्व का दंभ छोड़ नहीं पाता। एक विचित्र घमंड और है जिससे उपर उठना मनुष्यों के कई समूहों से छोड़ा जाना सदियों से संभव नहीं हो पा रहा। वह घमंड यह है कि केवल उसके बाप-दादाओं ने ही अतीत में सही ज्ञान प्राप्त किया। इस घमंड में वह अन्यों के पूर्वजों बाप-दादाओं के ज्ञान को सही नहीं मानना चाहता भले वह सही ही क्यों न हो। एक और मूर्खता से परिपूर्ण भ्रम है कि जिस नियम, वस्तु, आदि का वास्तविक और वर्तमान प्रयोग संसार में होता नहीं प्रतीत होता उसे काम का नहीं मानना। उदाहरण मानवों की जनसंख्या को नियंत्रित रखना। जिन मानव समूहों को जनसंख्या नियंत्रित करना सही लगता है वह अपने समूह के मनुष्यों को छोड़कर बाकि मनुष्यों को मृत्यु के घाट उतारना प्रारंभ कर देता है। मानव इतना पागल किस्म का जानवर है। मानव की बुद्धि का कोई उत्तर नहीं किन्तु इस बुद्धि के प्रयोग ने जितनी समस्या इस संसार को प्रदान की हैं उसके अनुसार मानव बुद्धिहीन प्राणी ही सिद्ध होता है।
ऐसा नहीं की मानव की मूर्खता का मानव को कभी भान नहीं हुआ। मानव अपनी मूर्खता की पहचान तब ही कर पाता है जब वह संसार से पूर्णरूपेण विमुख हो जाता है। संसार का या संसार से कुछ भी पाने की इच्छा समाप्त करने के पश्चात् भी बहुत कुछ छोड़ने की आवश्यकता होती है। जब त्यागने लायक उस व्यक्ति के पास कुछ भी नहीं रह जाता तब ही वह स्वतंत्र, निरपेक्ष अवलोकन के लिए तैयार हो पाता है। जब तक उसे संसार से कुछ पाना रह गया है वह स्वतंत्र और निरपेक्ष नहीं हो पाता। इस कटु सत्य का जिसने रसास्वादन कर लिया उससे निरपेक्षता की आशा और अपेक्षा रखने की कोई आवश्यकता नहीं क्योंकि यह दोनों उसे स्वतः प्राप्त होती है। धर्म के मर्म को समझने और धारण करने हेतु ऐसी स्थिति आवश्यक होती है। ऐसा व्यक्ति बनने को जो उद्यत है वही निरपेक्ष सत्य को प्राप्त करने के लायक भी है, अन्यथा चाहे कितना भी ज्ञान कितनी ही पुस्तकों का भार मस्तिष्क पर लाद लो, आपके कर्म पवित्र हो ही नहीं सकते करना तो आपने कबाड़ा ही है जिसका पाप जन्म-जन्मान्तरों तक मानव जाति झेलती रहेगी। ऐसा नहीं की अंधेरा गहन हो जाए तो सूर्योदय नहीं होता, सूर्योदय तो फिर भी होगा।
ऋषि देव:
वेद ऋषि
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