शरद ऋतुचर्या के स्वास्थ्य में योगदान पर एक वैज्ञानिक विश्लेषण
शरद ऋतुचर्या के स्वास्थ्य में योगदान पर एक वैज्ञानिक विश्लेषण
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वैद्य आशुतोष पाण्डेय
आयुर्वेद में दिनचर्या, रात्रिचर्या व ऋतुचर्या का अनुपालन स्वास्थ्य-रक्षा की रणनीति है। ऋतुचर्या पर्यावरण और पारिस्थिक तंत्र के साथ हमारे रिश्तों की निरंतर सार-संभाल या अनुकूलन के रूप समझी जा सकती है। यह अनुकूलन धातुसाम्य रखते हुये हमें स्वस्थ रखता है। यही अनागत रोगों का प्रतिकार या विकार-अनुत्पत्ति में सहायक है। स्वास्थ्य रक्षा हेतु समुचित ऋतुचर्या का पालन बहुत उपयोगी है। इससे अनावश्यक बीमार पड़ने से होने वाली धन की बर्बादी से बचा जा सकता है।
आयुर्वेद के अद्वितीय मूल सिद्धांतों में छः क्रियाकाल जिसमें बीमारी के विकास के विभिन्न चरण सम्मिलित हैं, की अवधारणा बीमारी से बचाव और सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रबंधन के लिये बहुत प्रासंगिकता रखती है| क्रियाकाल सही समय पर बचाव के उपायों को क्रियान्वित करके प्रत्येक चरण में रोगजनन को रोकने के समुचित अवसर प्रदान करते हैं। आधुनिक वैज्ञानिक परिपेक्ष्य में देखने पर स्पष्ट होता है कि हमारी आंत में पाए जाने वाले माइक्रोबायोम की प्रत्येक ऋतु में सार-संभाल कर बीमारी को शुरुआत से ही रोक देने में मौसमी आहार-विहार का बड़ा योगदान है। आयुर्वेद का सिद्धांत है कि अग्नि के विक्षोभ के बिना कोई भी रोग कभी उत्पन्न नहीं होता है। इसीलिये आयुर्वेद में रोगों को होने से रोकने और हो जाने पर उपचार की युक्ति अग्नि या पाचन-शक्ति के प्रबंध पर केंद्रित है। जब अग्नि की कार्यप्रणाली गड़बड़ हो जाती है, तो शरीर में आम-विष उत्पन्न होता है और यह प्राकृत दोषों में विक्षोभ पैदा कर देता है| आम विष का शरीर में प्रसार विभिन्न रोगों के रूप में प्रकट होता है। समकालीन शोध से ज्ञात होता है कि आंत में पाए जाने वाले माइक्रोबायोम या गट-फ्लोरा पाचक अग्नि और चयापचयी विषाक्त पदार्थों (आम) पर प्रभाव डालते हैं| गट-फ्लोरा या गट-माइक्रोबायोटा पर आहार, विहार और मौसमी जलवायु जैसे कारकों के प्रभाव को विनियमित करने में ऋतुचर्या का गंभीर योगदान है (देखें आर.दीप्ति इत्यादि, जर्नल ऑफ़ एथनिक फूड्स, 8:2, 2021)।
आधुनिक वैज्ञानिक शोध से यह भी स्पष्ट होता है कि ठण्ड के मौसम में प्रायः हृदयघात, अस्थमा का प्रकोप, चमड़ी में रूखापन, जोड़ों में दर्द, क्रोनिक ब्रोंकाइटिस आदि प्रमुख समस्यायें होती हैं। शरद ऋतु में एक तरफ तो उच्च कैलोरी-युक्त नियमित भोजन की आदत और दूसरी तरफ शारीरिक व्यायाम आदि में कमी भी हानि पहुंचाते हैं। विशेषकर ठंड के कारण रजाई में घुसे रहने या सोफे में धंसे रहने के कारण रक्त संचरण में कमी आती है, आलस्य बढ़ता है तथा चर्बी बढ़ती है। शरद ऋतु में फैट-सेल्स के विशेष तरीके से व्यवहार के कारण शरीर में दर्द, संक्रमण, और व्याधिक्षमत्व में कमी जैसी समस्यायें हो सकती हैं। गर्मी के मौसम की तुलना में सर्दियों के मौसम में रक्तचाप काफी बढ़ जाता है। यह बढ़त ग्रामीण क्षेत्रों और बुजुर्ग लोगों में अधिक देखी जाती है। वातावरण का तापमान, सापेक्ष-आर्द्रता, ओस और धूप जैसे विभिन्न मौसमी कारकों में से वातावरण का तापमान रक्तचाप के उतार-चढ़ाव का सबसे महत्वपूर्ण निर्धारक है। उच्च रक्तचाप की चिकित्सा में इस मौसमी बदलाव को ध्यान में रखा जाना आवश्यक होता है (इंडियन हार्ट जर्नल, 70: 360-367, 2018)। वर्षाकाल के बाद सर्दियों के मौसम के दौरान शहरों में वायु प्रदूषण के कारण पार्टिकुलेट मैटर्स में बढ़त होती है। यही कारण है कि इस दौरान श्वसन और हृदय रोगियों की अस्पताल में प्रवेश बढ़ने लगता है। सर्दियों के मौसम में पी.एम.2.5 से संबंधित मृत्युदर और रुग्णता के मामलों की संख्या गर्मियों के मौसम की तुलना लगभग तीन गुना अधिक होती है (एप्लाइड एनर्जी, 249: 316-325, 2019)। इस दौरान आग तापने (बोनफायर) की परंपरा के कारण भी अस्थमा, राइनाइटिस व ट्यूबरकुलोसिस आदि में बढ़त होती है| अध्ययनों से यह भी स्पष्ट होता है कि ट्यूबरकुलोसिस के संक्रमण का जोखिम सर्दियों के महीनों के दौरान प्रायः सबसे अधिक होता है (जर्नल ऑफ़ ग्लोबल इन्फेक्सिअस डिजीजेस, 3: 46-55, 2011)। पूर्व में हुये अध्ययन बताते हैं कि सर्दियों के महीनों में अंत की ओर स्वाइन फ्लू संक्रमण में बढ़त भी पायी जाती है (वायरस डिजीज, 28: 33–38, 2017)|
इन सब कारणों से शरद ऋतु की ऋतुचर्या को अपनाने का समय है, पर एक महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि आयुर्वेद में ऋतुचर्या किन सिद्धांतों को ध्यान में रखकर तय की गयी होगी? लगभग 5000 साल पहले तय की गयी ऋतुचर्या क्या आज भी उपयोगी है? संक्षेप में देखें तो पहली बात यह है आयुर्वेद का लोक-पुरुष-साम्य सिद्धांत यह स्पष्ट करता है कि पुरुष लोक के समान है (च.शा.5.3: पुरुषोऽयं लोकसम्मितः) इस सिद्धांत के प्रकाश में देखने पर लोक या पृथ्वी के वातावरण का सीधा सीधा प्रभाव मानव के स्वास्थ्य पर पड़ता है क्योंकि लोक और पुरुष में समानता (च.शा.5.3: लोकपुरुषयोः सामान्यम्) होने से सामान्य-विशेष का सिद्धांत कार्य करता है| अर्थात सामान भावों को सामान भावों से मिलाने पर उस भाव की वृद्धि और असमान भावों को मिलाने पर ह्रास होता है| सत्य बुद्धि तभी प्रकट होती है जब स्वयं के अंदर प्रकृति को व प्रकृति के अंदर स्वयं को देखा जाये (च.शा.5.7): सर्वलोकमात्मन्यात्मानं च सर्वलोके सममनुपश्यतः सत्या बुद्धिः समुत्पद्यते| यहाँ पर लोक से तात्पर्य पूरी दुनिया के वातावरण से है जिसमें छः धातुयें पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश तथा आत्मा शामिल हैं (च.शा.5.7): षड्धातुसमुदायो हि सामान्यतः सर्वलोकः| इस सूची में आत्मा का शामिल होना आश्चर्यजनक नहीं मानना चाहिये क्योंकि पौधे, प्राणी और सम्पूर्ण जीवन भी लोक में शामिल है| उपरोक्त साम्य के सन्दर्भ में महत्वपूर्ण बात यह है कि जिस प्रकार चंद्रमा, सूर्य, और वायु क्रम से विसर्ग, आदान, विक्षेप क्रियाओं से जगत का धारण करते हैं ठीक उसी प्रकार सोमांश कफ, सूर्य जैसा पित्त, तथा वायु देह का धारण करते हैं (सु.सू.21.8): विसर्गोदानविक्षेपैः सोमसूर्यानिला यथा| धारयन्ति जगद्देहं कफपित्तानिलास्तथा||
इन आयुर्वेदिक सिद्धांतों को आधुनिक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखा जाये तो पर्यावरण और पारिस्थिक तंत्र के साथ मानव के रिश्तों की अनवरत सार-संभाल या अनुकूलन ही ऋतुचर्या है। इसे साधारण शब्दों में यों समझें कि यदि हवा, पानी, तापक्रम, मिट्टी, पेड़-पौधों में ऋतु के अनुसार परिवर्तन होते हैं तो हमें भी उसके अनुसार जीवन-शैली और खान-पान और पहनावे में परिवर्तन करना पड़ता है| यह परिवर्तन या अनुकूलन ही धातुसाम्य रखता है। यही अनागत रोगों का प्रतिकार या विकार-अनुत्पत्ति में सहायक है।
शरद ऋतु के लिये सबसे उपयुक्त भोजन को देखें तो कषाय, मधुर और तिक्त रस, लघु, शीतवीर्य तथा पित्त को शांत करने वाले अन्न पान का भूख लगने और पूर्व में खाया भोजन पच जाने के बाद, मात्रा-पूर्वक सेवन करना चाहिये। शरद ऋतु के लिये सबसे उत्तम खाद्य पदार्थों में दूध, गुड़, मधु या शहद, शालि-चावल, अगहनी-चावल, मूंग, जौ, गेहूँ, मिश्री, खांड, पुराने अन्न, आँवला और परवल शामिल हैं। परन्तु सबसे अधिक यह ध्यान रखना आवश्यक है कि ऋतु चाहे जो हो आहार अच्छी तरह भूख लगने पर सम्यक मात्रा में ही खाना उपयोगी है। किसी भी ऋतु के दौरान उत्पन्न होने वाले फलों का आहार भी उस ऋतु के लिये सर्वोत्तम है। आधुनिक वैज्ञानिक अध्ययनों की सलाह यह है कि फल प्रतिदिन और पर्याप्त मात्रा में लेना स्वास्थ्य के लिये लाभदायक है।
शरीर में संचित पित्त संशोधन के लिये तिक्त घृत का पान और जरूरी हो तो आयुर्वेदाचार्यों की सलाह और देखरेख में रक्तमोक्षण उपयोगी रहता है। इस प्रक्रिया से वर्षा ऋतु के दौरान संचित हुये पित्त का शरीर से निर्हरण हो जाता है।
शरद ऋतु में कुछ ऐसे अपथ्य हैं जिनसे बचना भी आवश्यक है| मुख्य बात यह है कि ओस, क्षार, ठूँस-ठूँस कर खाने, दही, तेल, वसा, बहुत गर्म दूध, तीक्ष्ण मदिरा, दिन में सोना और पुरवाई हवा से बचना चाहिये। शरद ऋतु में अतितीक्ष्ण, अम्ल, उष्ण पदार्थ, दिन में सोना या धूप में देर तक बैठना, रात में जागना तथा अधिक सहवास वर्जित है। शरद ऋतु में हालाँकि धूप सेंकना अच्छा लगता है, किन्तु धूप में बहुत देर तक बैठना स्वास्थ्य के ठीक नहीं होता। हाँ, विटामिन डी की कमी को अवश्य धूप में थोड़ी देर रहकर पूरा किया जा सकता है। समुचित और सीमित संख्या में व्रत भी रखे जाना उपयोगी होता है।
पेय पदार्थो में स्वच्छ निर्मल जल तो सभी ऋतुओं में उत्तम है। ऐसा पानी जिसमें चन्द्रमा की किरणें पड़ी हों, जो मलरहित, साफ़-सुथरा हो और प्रसन्नता देने वाला हो, वही पीने में उपयोग करना चाहिये। ऐसा जल जो दिन के समय सूर्य की किरणों के तेज से तप्त और रात के समय चन्द्रमा की किरणों से शीत हुआ हो, विष व विषाणु मुक्त तथा पवित्र हो, उसे हंसोदक कहा जाता है। यह जल पीने के लिये सर्वश्रेष्ठ है। ऐसे जल में स्नान और डुबकियाँ लगाना भी अमृत की तरह फलदायी है। इस प्रकार का जल सर्दी-गर्मी नहीं करता है। कमल और उत्पल से युक्त तालाब में तैरना, रात्रि के शुरूआत में चंदन, खस तथा कपूर का लेप लगाकर, मोतियों या श्वेत पुष्प की मालायें धारण कर, साफ सुथरे वस्त्र पहनकर, चूने से पूते हुये भवन की उपरी छत पर बैठकर धवल चांदनी का आनंद लेना चाहिये।
एक प्रश्न यह उठता है कि अन्य ऋतुओं की भांति शरद ऋतु में भी विशेष शोधन का प्रावधान क्यों है? जैसा कि पूर्व में कहा गया है, वर्षा ऋतु में संचित पित्त का संशोधन न किया जाये तो यह बीमारी का कारण बनता है| इसीलिये युक्तिपूर्वक तिक्त घृत का सेवन तथा रक्तमोक्षण उपयोगी होता है। वर्षा ऋतु में शरीर वर्षाकालीन शीत का अभ्यस्त होता है। वर्षा ऋतु में पानी से भीगे हुये शरीर में पित्त का संचय होता रहता है। ऐसे शरीर पर जब सहसा शरद ऋतु के सूर्य की किरणें पड़ती हैं तो शरीर के अवयवों के संतप्त होते ही वर्षा ऋतु में संचित हुआ पित्त शरद ऋतु में कुपित हो जाता है। अतः पित्त-जनित विकारों से बचने के लिये तिक्त घृत का सेवन, विरेचन तथा यथावश्यक रक्तमोक्षण कराना चाहिये।
आयुर्वेद की ऋतुचर्या का वर्णन विश्व में सबसे प्राचीन है और इस बात के प्रमाण हैं कि इस विद्या को प्राचीन चीन एवं ग्रीक चिकित्सा पद्धतियों सहित विश्व की अन्य चिकित्सा पद्धतियों ने भारत से सीखा और अपनी पद्धति में समाहित किया। आयुर्वेद चिकित्सा पद्धति में ऋग्वेद, अथर्ववेद, चरकसंहिता और सुश्रुतसंहिता आदि में हिप्पोक्रेट्स (460-370 ईसा पूर्व) और गैलेन (129-?199/216 ईस्वी) से कम से कम 1500 वर्ष पूर्व हितायु, सुखायु, स्वास्थ्य और चिकित्सा के लिये ऋतुचर्या, दिनचर्या, रात्रिचर्या, स्वस्थवृत्त, सद्वृत्त, आहार एवं रसायन के महत्त्व को बहुत विस्तृत रूप से प्रतिपादित व वर्णित किया गया था।
ऋतुचर्या का समकालीन महत्त्व आज भी कम नहीं हुआ बल्कि यह हमारी बिगड़ती जा रही जीवनशैली के कारण होने वाले गैर-संचारी रोगों से बचाव का रास्ता है। मौसमी बदलाव के कारण आंत माइक्रोबायोम में होने वाले बदलाव को नियंत्रित करने के लिए मौसमी आहार-विहार अपनाना आवश्यक हो जाता है| इन सब बातों का ध्यान रखकर शरद ऋतु में स्वयं को दोष संचय से बचाते हुये स्वस्थ व सुखी रहा जा सकता है।
निजी विचार हैं और ‘सार्वभौमिक कल्याण के सिद्धांत’ से प्रेरित हैं|)