Vedrishi

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हिंदुत्वव अब्रहमिक धर्म

यूरोपीय लोगों द्वारा विशेष रूप से अंग्रेजों द्वारा ‘आर्यों’ की संस्कृति, जीवन-शैली आदि का अपनी श्रेणियां और स्पष्टीकरण थोपते हुए धर्म का नाम देना गलत व त्रुटिपूर्ण था। कितने ही सत्य व तथ्य छिपा दिए गए। समय, काल-खंड, घटनाओं को गलत प्रस्तुत किया गया। कई वैज्ञानिक खोजों (जैसे गुरुत्वाकर्षण के नियम, परमाणुओं के अस्तित्व, नक्षत्रों का ज्ञान व ग्रहण की गणना, शल्य चिकित्सा आदि) को जिन्हे प्राचीन हिंदू विचारकों से जोड़ा जा सकता था उनका उल्लेख तक नहीं किया गया। वैदिक संस्कृति के मूल में निहित कि आत्मा शाश्वत है व इस भौतिक शरीर व पदार्थों से अधिक महत्त्वपूर्ण है, मनुष्य जीवन का उद्देश्य त्रुटियों को सुधारना व अंतत: मोक्ष-प्राप्ति है को कहीं दबा दिया और उसके स्थान पर अनरगल बातें, ग्रंथों के अनुवाद, प्रथाओं व प्रसंगों को तोड़-मरोड़ कर कुरीतियों की भाँति बताया गया।

 

वर्तमान में कितने ही ईसाई बुद्धिजीवी सत्य व जीवन की सार्थकता की खोज में ईसाई मत का त्याग कर वैदिक-, सनातन-धर्म व जीवन शैली अपना रहे हैं। पाठक सजग रहें कि विश्व भर में ईसाई व मुस्लिम संगठन लोगों को प्रलोभन व भय से अपना अनुयायी बना रहे है। ऐसे उदाहरण कि बुद्धिजीवी उनके चरित्र, शिक्षा, जीवन-शैली आदि से प्रभावित हो कर उनके धर्म को अपना रहे हों, नहीं मिलते।

दुर्भाग्यवश इन यूरोपीय पर्यवेक्षकों की हिंदू धर्म की अवधारणा के निर्माण के पश्चात ‘आर्यों’ द्वारा स्वयं इस विचार को अपना लिया गया । यही कारण है कि यूरोपीय पर्यवेक्षकों द्वारा परिभाषित हिंदू धर्म संभवत: विश्व में सबसे गलत समझा जाने वाला धर्म है। वास्तव में यह एक धर्म नहीं है। भारत के उच्चतम न्यायालय के न्यायमूर्ति जे. एस. वर्मा ने ११ दिसंबर १९९५ के अपने एक निर्णय में कहा “‘हिंदू’, ‘हिंदुत्व’ और ‘हिंदू धर्म’ शब्दों के लिए कोई सटीक अर्थ नहीं दिया जा सकता है; और सार में कोई भी अर्थ इसे केवल धर्म की संकीर्ण सीमाओं तक सीमित नहीं कर सकता है। भारत की संस्कृति व विरासत का विलय इसमें अनिवार्य है।” हिन्दुत्व का अर्थ भारतीयकरण है और उसे मजहब या पंथ जैसा नहीं माना जाना चाहिए।

 

वर्तमान का विश्व मुख्यत: दो परस्पर-विरोधी दृष्टिकोणों से विचारता व मूल्यांकन करता है। ये दो दृष्टिकोण हैं – विज्ञान या धर्म। ऐसे में ‘धर्म’ की प्रचलित परिभाषा के आवरण में हिंदू धर्म को उसकी सभी जटिलताओं में समझना कठिन ही नहीं, असंभव है। हमें इन अब्रहमिक धर्मों के विद्वानों व पर्यवेक्षकों द्वारा की गई ‘धर्म’ की परिभाषा का त्याग करना होगा। हिंदू धर्म तकनीकी रूप से एक धर्म नहीं है, क्योंकि इसका कोई विशिष्ट संस्थापक नहीं है, कोई भविष्यवक्ता नहीं हैं, और इसके मूल सिद्धांत जैसे कि योग व दार्शनिक ग्रंथ, समाज के भिन्न-भिन्न शाखाओं के मानवीय जीवन में विकसित हुए हैं। प्राचीन भारतीय- व हिन्दू जीवन-शैली विज्ञान और धर्म; दोनों दृष्टिकोणों का एकीकार करती है और इन दिनों को एक-दूजे से इस प्रकार जुड़ा हुआ देखती है कि इन्हे अलग नहीं किया जा सकता। इन्हे यदि भिन्न कर के देखा जाए तो इनका अस्तित्व व रूप बिगड़ जाएगा।

 

किसी भी विषय का विस्तृत ज्ञान, विज्ञान कहलाता है व ज्ञान की विवेचना (विचार) बुद्धि द्वारा ही हो सकती है। प्रकृति व प्रकृति के नियम ऐसा विज्ञान हैं जो नित्य है, शाश्वत है व जिसे कभी भी बदला नहीं जा सकता है। यह कहना गलत नहीं होगा कि प्रकृति के नियमों में परिवर्तन असंभव है। हमारे ऋषि-मुनियों का दृष्टिकोण सदैव वैज्ञानिक रहा है। मानव मनोविज्ञान को समझते हुए हमारे ऋषि-मुनियों ने हमें वह मार्ग बताया है जिसे हमारी बुद्धि तर्क की कसौटी पर स्वीकार कर सके। यही कारण है कि आपको लोग यह कहते मिल जाएंगे कि हिन्दू जीवन-शैली विज्ञान से जुडी हुई है। कोई अन्य धर्म, मत-मतान्तर नहीं अपितु सनातन-धर्म ही वैज्ञानिक है। (एक अन्य लेख में)

 

हिंदू धर्म (सनातन-धर्म) अपनी स्वयं की खोज के संबंद्ध में, अपनी आंतरिक व आत्म-शक्ति को जानने के संबंध में कहता है। इसकी शिक्षा विश्व में सभी के लिए प्राप्य है। यह मत, संप्रदाय, जाति, वर्ण, लिंग, आदि का भेद नहीं करता। इसके ज्ञान व शिक्षा के कोई संरक्षक, द्वारपाल अथवा संविदाकार (ठेकेदार) नहीं हैं जैसा कि अन्य अब्रहमिक धर्मों में सामान्य है। कोई भी अपनी अन्य मान्यताओं या राष्ट्रीयता होने पर भी हिंदू धर्म के अनुष्ठानों का अभ्यास कर सकता है व ग्रंथों को पढ़ सकता है।

 

हिंदू धर्म को पश्चिमी-जगत की ‘धर्म’ की परिभाषा से नहीं देखा जा सकता चूँकि यह कोई धर्म नहीं है। इसकी शिक्षाओं में कोई एक भगवान जो दूसरों से अलग व उच्च पद का हो, नहीं है। इसके विपरीत प्रत्येक वस्तु में दैवीय उपस्थिति है। प्रभु सर्वव्यापी है और प्रत्येक व्यक्ति इसे अपने आप में पा सकता है।

 

हिंदू धर्म स्वयं एक धर्म नहीं है अपितु एक विचारधारा है जो अन्य धर्मों को नकारती नहीं है। कोई व्यक्ति किसी एक अलग भगवान में विश्वास कर सकता है परन्तु फिर भी वह हिंदू धर्म की प्रथाओं का पालन कर सकता है। हिन्दू मान्यताएँ व्यक्ति की आस्था से अधिक व्यक्ति के सामाजिक जीवन में उसकी स्वयं व अन्य जीवों के प्रति नैतिकता, कर्तव्यपरायणता, संवेदनशीलता आदि गुणों को अधिक महत्त्व देती हैं।

 

हिन्दू अन्य धर्मों के अनुयायियों की भाँति दूसरे धर्म अनुयायियों को निम्न रूप में नहीं दर्शाता। वह एक मत की विचारधारा को दूसरे के विरुद्ध व मनुष्य को दूसरे मनुष्य के विरुद्ध नहीं देखता। वह न तो हठधर्मी है और न ही अन्य धर्मों की आलोचना करने और उन्हें दंडित करने के साथ-साथ पूर्णता का दावा करता है। हिंदूओं ने योगी, महापुरुष, आराध्य आदि को जन्म अथवा पद से स्वीकार नही किया है अपितु वे लोग आत्म-अनुशासन, विचार, अभ्यास, चरित्र, आचरण के कारण जान-मानस के गुरु बने हैं।

(क्रमश :- )

हम न भूलें कि

  • हिन्दू मनुष्य-जन्म को भोग के लिए नहीं अपितु स्वयं की खोज व आत्म-उत्थान के लिए मानता है। वह जीवन को सत्यता, शुभता, सुंदरता, हर्ष, प्रेम, उत्सव, सकारात्मकता, ऐश्वर्य, निर्मलता, सहजता, सक्षमता आदि गुणों से भरने को कहता है। इन सभी गुणों के लिए नियमों की आवश्यकता होती है अन्यथा ये सब अनैतिकता में बदल सकते हैं।

  • किसी भी मनुष्य को किसी भी प्रकार के बंधन में रखना उसकी चेतना के विस्तार को बांधने (रोकने) के समान है। संसारिक व आध्यात्मिक उन्नति की प्राप्ति के लिए विचारों की स्वतंत्रता अनिवार्य है।

  • हिन्दू , धर्म (पूजा-अर्चना पद्धति नही अपितु अपने कर्त्तव्य, सत्य-असत्य, उचित-अनुचित, पक्षपात रहित न्याय एवं अन्याय आदि का विस्तृत ज्ञान), अर्थ (ज्ञान, शक्ति व धन-सम्पदा का अर्जन), काम (अर्थ का उपयोग) व मोक्ष को जीवन के ४ पुरुषार्थ मानता है। वह इन लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए अपने स्वतंत्र विचारों व चिंतन से साधनों की खोज व उन्नति के लिए सदैव तत्पर रहता है।

  • धर्म के ज्ञान बिना सांसारिक जीवन अव्यवस्थित एवं अराजक है। इसके बिना मन को साधना संभव नहीं है और मनोनिग्रह बिना मोक्ष नहीं मिलेगा। दूसरी ओर अर्थ बिना जीवन व्यर्थ है चूँकि सांसारिक कामनाएँ अर्थ से ही पूर्ण होती हैं। अर्थ व काम धर्म से प्रभावित होते है। मन की स्थिरता के लिए इनमें संतुलन होना अनिवार्य है। जीवन के इन उद्देश्यों व उनकी पूर्ति के संदर्भ में पश्चिमी-जगत की ‘धर्म’ की संकीर्ण परिभाषा हिंदू जीवन की संपूर्णता का अंश भी नहीं बता पाती।

  • हिन्दू धर्म ‘कर्म-प्रधान’ है परन्तु अब्रहमिक धर्म ‘विश्वास-प्रधान’।

Hindutv and Abrahamic religions

To name the way of life, culture etc. of the ‘āryans’ (people living in India) as religion by Europeans, especially by the British, while imposing their own categories and explanations was totally wrong and faulty. While doing this many truths and facts were hidden. Time, time period, events were misrepresented. Many scientific discoveries (such as the laws of gravity, the existence of atoms, the knowledge of constellations, surgery and the calculation of eclipses, etc.) that could be linked to ancient Hindu thinkers were not even mentioned. The principles deeply rooted in Vedic culture like the soul is eternal and is more important than this material body and substances, the purpose of human life is to rectify errors and ultimately attain salvation were suppressed and replaced by incorrect translations of texts, false and contradictory statements. Customs and contexts were twisted and presented as evil practises.

At present, many Christian intellectuals in search of truth and meaning of life are adopting Vedic-, Sanātan-Dharm and its lifestyle after abandoning Christianity. Readers should be aware that Christian and Muslim organizations all over the world are converting people to follow their religion out of temptation and fear. Examples that intellectuals are adopting Christianity or Islam on being influenced by their character, education, lifestyle etc., are hardly found.

Unfortunately after the formulation of the concept of Hinduism by these European observers  their concept was adopted by the ‘āryans’ themselves. That’s why Hinduism, as defined by European observers, is probably the most misunderstood religion in the world. Actually it is not a religion. Justice J. S. Verma of Supreme Court of India, in a judgment of 11th December 1995, said “no precise meaning can be assigned to the words ‘Hindu’, ‘Hinduism’ and ‘Hindu religion’; and in essence any meaning cannot limit it to the narrow limits of religion. It is imperative to merge India’s culture and heritage to it.” Hinduism means Indianisation and should not be treated as a religion or a sect.

 

The present world thinks and evaluates mainly from two conflicting perspectives. These two approaches are- science or religion. In such a situation, it is not only difficult, but impossible, to understand Hinduism in all its complexities under the cover of the popular definition of ‘religion’. We have to discard the definition of ‘religion’ made by the scholars and observers of these Abrahamic religions. Hinduism is technically not a religion, as it has no specific founder, no prophets and its core principles such as yog and philosophical texts have developed over the period in the lives of people of different branches of society. The ancient Indian- and Hindu- way of life integrates both perspectives of science and religion and sees them intertwined in such a way that they cannot be separated. Seeing them separately will deteriorate their existence and form.

Science is the detailed knowledge of any subject and knowledge can be enhanced only by developing intellect. Nature and the laws of nature are science which is eternal and does not change. It would not be wrong to say that it is impossible to change the laws of nature. The approach of our sages has always been scientific. On understanding human psychology, our sages have shown us the path that our intellect can accept on the basis of logic. This is the reason why you find people saying that ‘Hindu way of life’ is related to science. No other religion is scientific, but Sanātan-Dharm. (in another article)

Hinduism (Sanātan-Dharm) emphasises of knowing one’s physical and mental-power, in relation to one’s own quest. Its education is accessible to all in the world. It does not discriminate between caste, creed, colour, gender, etc. It has no custodians, gatekeepers or contractors of knowledge and teaching which is the practice in other Abrahamic religions. One can observe the rituals of Hinduism and read the scriptures irrespective of their other beliefs or nationality.

Hinduism cannot be seen from the definition of ‘religion’ of the western world as it is not a religion. In its teachings, there is no one God who is different and of higher rank than others. On the contrary everything has a divine presence. The God is omnipresent and everyone can find him in himself.

Hinduism itself is not a religion but an ideology that does not deny other religions. A person may believe in a different God but still follow the practices of Hinduism. Hindu-beliefs give more importance to a person’s qualities of dutifulness, morality, sensitivity, etc., towards self and other living beings in social life than to the person’s faith.

Like the followers of other religions, Hindus do not show the followers of other religions as inferior. Hindus do not see the ideology of one faith against another and followers of one faith against followers of another faith. Hindu is neither dogmatic nor criticizes and punishes other religions while claiming to be perfect. Hindus have not accepted Yogis, personalities, dignitaries, etc. by birth or position, but they have become adorable for them through their self-discipline, thoughts, life-practice, character, conduct etc. (To continue :- )

Let us not forget that

  • Hindus do not believe that human birth is for enjoyment but rather for self-discovery and self-upliftment. They ask to fill life with truthfulness, auspiciousness, beauty, joy, love, celebration, positivity, opulence, purity, spontaneity, competence etc. All these qualities require rules, otherwise they can turn into immorality.

  • Keeping any human being in any kind of bondage is like binding (stopping) the expansion of his consciousness. Freedom of thoughts is essential for the attainment of worldly and spiritual progress.

  • Hindus consider, Dharm (not way of worship but detailed knowledge of -one’s duty, -truth and false, -right and wrong, -justice and injustice without bias etc.), Arth (acquisition of knowledge, power and wealth), Kām (use of arth) and Mokśh the 4 pillars of life. To achieve these goals, a Hindu is always ready to search for means and their progress with his independent thoughts and contemplation.

  • Without the knowledge of Dharm, worldly life is chaotic. It is not possible to control the mind  without having knowledge of Dharm. In the absence of control over mind, salvation cannot be attained. On the other hand, life without ‘arth’ is meaningless because worldly desires can only be fulfilled by having knowledge, power and wealth. Dharm influences Arth and Kām. For the stability of mind, it is necessary to have balance among them. The western world’s narrow definition of ‘religion’ fails to capture even a fraction of these objectives of life and their fulfilment.

  • Hindu religion is ‘karm (action)-oriented’ but Abrahamic religions are ‘faith-oriented’.

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यहाँ पर कुछ विशेष लेखों को ब्लॉग की रूप में प्रेषित क्या जा रहा है। विभिन्न विद्वानों द्वारा लिखे गए यह लेख हमारे लिए वैदिक सिद्धांतों को समझने में सहायक रहें गे, ऐसी हमारी आशा है।

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