हिन्दुओं के १६ संस्कार – भाग (८/९)
16 Sanskārs of Hindus – part (8/9)
वैदिक संस्कृति ने जीवन को यात्रा माना है इसलिए उसके अनुसार व्यक्ति को आगे बढ़ते जाना है, भले वह आगे बढ़ना चाहे अथवा न चाहे। वह एक स्थान पर एक अवस्था में अधिक समय तक नहीं रह सकता। गृहस्थ में घर-परिवार का दायित्त्व, परिवार का उत्थान, बच्चों की शिक्षा, सामाजिक जीवन एवं परिवार केन्द्रित कार्य मुख्यत: निहित होते हैं। इन दायित्त्वों को पूरा करने के लिए धन की आवश्यकता होती है। समय के साथ-साथ दायित्त्व पूरे होने लगते हैं व एक समय आता है जब घर-परिवार के दायित्त्व लगभग समाप्त हो चुके होते है। भृत्यकारी (नौकरी करने वाला) सेवानिवृत्त हो जाता है व व्यवसायी भी व्यवसाय किसी को सौंपने की स्थिति में होता है। जो लोग गृहस्थ त्याग कर स्वयं आगे निकल लेते है उनकी मान-प्रतिष्ठा बनी रहती है। जो गृहस्थ के मोह में पड कर गृहस्थाश्रम में ही टिके रहते हैं उसमें से बाहर आने का नाम ही नहीं लेते वे अपनी आत्म-उन्नति में स्वयं ही बाधा बन जाते हैं। आप पाऐंगे कि वे निरंतर गृहस्थ की चिंताओं में लिप्त रहते हैं। वे उन चिंताओं, आशंकाओं में ग्रस्त हो जाते हैं जिनका दायित्त्व अब उन पर नहीं है, जिनका समाधान वे स्वयं नहीं कर सकते। परन्तु अपनी इन चिंताओं व आशंकाओं के कारण वे अपनी संतानों की गृहस्थी में अपने ‘नही माँगे हुए’ सुझावों से हस्तक्षेप करते हैं। वर्तमान में कितने ही उदाहरण हैं जहां वृद्ध माता-पिता को अपनी बहु से अपने बेटे से वह आदर नहीं मिलता जिसकी अपेक्षा वे करते हैं। घर-गृहस्थी में सदा दुःख-क्लेश बना रहता है। संतान भी अपने वृद्ध माता-पिता को बोझ समझने लगती है।
१४) वानप्रस्थ संस्कार: वानप्रस्थ का शाब्दिक अर्थ है वन को प्रस्थान करना। वैदिक संस्कृति जीवन को एक यात्रा मानते हुए उसे ४ मुख्य चरणों (आश्रम) में विभाजित करती है। जीवन में तीसरे आश्रम को वानप्रस्थ आश्रम कहा गया है। वैदिक संस्कृति को मानने वाले ५० वर्ष की आयु के पश्चात जब उनकी संतान के भी संतान हो जाती थी, अपनी संतान अथवा किसी अन्य को अपना उत्तराधिकारी बना कर घर-गृहस्थी का त्याग कर देते थे। वानप्रस्थ आश्रम में प्रवेश करने का मुष्य उद्देश्य था अपनी आत्मिक उन्नति करना।
गृहस्थ आश्रम में रहते हुए व्यक्ति ने समाज के दायित्वों का निर्वाह किया है कि समाज भली प्रकार चलता रहे। अब व्यक्ति इन सभी दायित्त्वों से मुक्त हो कर अपनी आत्म-उन्नति करे। गृहस्थी व समाज में रहते हुए वह मोह, अहंकार, लोभ आदि विकारों से घिर सकता है जो उसकी आत्म-उन्नति में बाधा बन सकते हैं। यदि व्यक्ति सेवानिवृत हो जाने पर या व्यवसाय में नित्य नए कार्य-कलाप नहीं करता तो जीवन में एकाकीपन आना स्वभाविक है। ऐसे में बुद्धि की सोचने-विचारने की, स्मरण रखने की क्षमता क्षीण होने लगती है। यह एकाकीपन वृद्ध लोगों के लिए गृहस्थी में रहते हुए संतानों व उनके परिवारों से मिलने वाले अनादर व उपेक्षा के कारण घातक हो जाता है। भैतिकवाद में डूबा यूरोप एवं अमरीका का समाज वृद्ध लोगों में बढ़ रहे एकाकीपन व इसके दुष्परिणामों (अवसाद (डिप्रेशन), मनोभ्रंश (डिमेंशिया), अल्जाइमर, आदि रोग) से जूझ रहा है।
माता-पिता का ऋण कौन उतार सकता है! संतान से कहना कि हमारी सेवा करना तुम्हारा कर्त्तव्य है माता-पिता को अच्छा नहीं लगता। जो संतान माता-पिता की सेवा अपना कर्त्तव्य समझती है, उसे ऐसा कहने की आवश्यकता भी नहीं पड़ती। मनुष्य का स्वभाव है कि वह स्वतंत्रता चाहता है। यदि माता-पिता घर में ही बने रहें तो संतान को घर में स्वतंत्रता से अपनी इच्छानुसार कार्य करने का अवसर नहीं मिलता। माता-पिता को संतान को घर-गृहस्थी चलाने का अवसर देना होगा और अपना नियंत्रण समाप्त करना होगा। प्राचीन ऋषियों ने वानप्रस्थ द्वारा इस समस्या का समाधान किया। जब संसार को अंतत: त्यागना ही है तो अपमानित, अवांछित हो कर नहीं अपितु गर्व से स्वयं से क्यों न त्यागा जाए। गृहस्थ में भोग भोगने के पश्चात मन ने उन भोगों के प्रति उकताहट आने लगती है और जीवन के अनुभवों से व्यक्ति समझ चुका होता है कि भोग आकर्षण हैं जो कुछ समय तक ही सुख की अनुभूति कराते हैं। व्यक्ति स्वयं ही भोगों से दूर होने लगता है। यह मोह ही है जो उसे घर का त्याग नहीं करने देता।
माता-पिता के वानप्रस्थ आश्रम में जाने के बाद संतान का माता-पिता की और से दायित्त्व समाप्त नहीं होता। माता-पिता के कुशल-क्षेम के प्रति संतान का दायित्त्व होता है। माता-पिता संतान पर आश्रित नहीं है परन्तु माता-पिता आत्म-उन्नति हेतु सभी कार्य इत्यादि कर पाए इसमें सहयोग के लिए संतान को सदैव तत्पर रहना चाहिए।
१५) संन्यास संस्कार: सम + न्यास = संन्यास अर्थात सम (एक समान स्थिति) को स्थापित करना। वानप्रस्थ आश्रम में स्वाध्याय, तप, चिंतन आदि से व्यक्ति विकारों (काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार, आदि) पर नियंत्रण पा लेता है। ऐसा ज्ञानी व्यक्ति अब समाज की निष्काम सेवा व भलाई करने योग्य हो जाता है। संन्यास आश्रम में जाने वाला व्यक्ति अपने तीनों ऋणों (ऋषिऋण, पितृऋण व देवऋण) से उऋण होता है। वह संन्यास संस्कार के समय अपना यज्ञोपवीत उतार देता है। संन्यास आश्रम में प्रवेश करते ही उसका अपने परिवार से संबंध-विच्छेद हो जाता है। वह संपूर्ण समाज को अपना परिवार समझता है। समाज का उत्थान हो, उसकी त्रुटियाँ दूर हो इसके लिए संन्यासी समाज में विचरता है एवं अपने प्रवचनों से सभी का मार्गदर्शन करता है।
समाज की भलाई के लिए कार्य करते हुए संन्यासी को किसी प्रकार की अपेक्षा नहीं होनी चाहिए। समाज में निंदा अथवा सम्मान का उस पर प्रभाव नहीं पड़ना चाहिए। चाहे उसे स्नेह मिले अथवा वैर, चाहे अन्न-वस्त्र-उत्तम स्थान मिले या न मिले संन्यासी को समाज को सही मार्ग (धर्म का मार्ग) बताते रहना चाहिए व सदैव ‘सम’ की स्थिति में रहना चाहिए। समाज-सुधार के समानांतर यम, नियम व योग द्वारा संन्यासी ‘आत्म-ज्ञान’ की ओर अग्रसर रहता है और मन पर पड़ी छाप को साफ करता रहता है कि मन पर किसी भी प्रकार का चित्र न रहे। संन्यासी इच्छाओं पर विजय पा लेता है व अपने कर्मों के फल (अच्छे एवं बुरे) भोग लेता है। संन्यासी समाज के लिए स्वयं को ‘निमित्त’ मानते हुए कार्य करता रहता है। योगबल से संन्यासी को मृत्यु का पूर्वाभास हो जाता है। ऐसे में वह एकांतवास में जाता है कि वह निर्विघ्न समाधिस्थ हो प्राण त्याग मोक्ष को पा सके।
मन में निरंतर भाव (इच्छाएं) उत्पन्न होते हैं। इच्छाओं की पूर्ति के लिए मन आत्मा को शरीर धारण करने के लिए विवश करता रहता है। जन्म-मृत्यु के चक्र से बहिर आने के लिए मन में उत्पन्न होने वाले भावों का स्थिर होना आवश्यक है। मन को साधने के लिए संन्यासी यम (यम ५ हैं; १: अहिंसा, २: सत्य, ३: अस्तेय (चोरी न करना), ४: परिग्रह (लोभ न करना अर्थात त्यागी होना) व ५: ब्रह्मचर्य), नियम (नियम भी ५ हैं; १: शारीरिक सफाई (मलशुद्धि, स्नान, कुल्ला, दंत-मंजन आदि), २: तपस्या , ३: संतोष, ४: ईश्वर-प्रणिधान (ईश्वर भक्ति) व ५: स्वाध्याय) और योग (शारीरिक व मानसिक शक्ति की उन्नति हेतु) का पालन करते हुए जीवन व्यतीत करता है।
समाधि: योग के एक अंग प्राणायाम (श्वास (वायु भीतर ले जाना) और प्रश्वास (वायु बहिर निकालना) की गति को रोकना और नियंत्रित करना) के अभ्यास से साधक मन को स्थिर करने के लिए अपने प्राणों (प्राण ५ होते हैं; १: अपान, २: समान, ३: प्राण, ४: उदान व ५: व्यान) को नियंत्रित करता है। जब मन चंचलता छोड़ एकाग्र होने लगता है तो उसे ‘ध्यान’ की स्थिति कहा जाता है। एकाग्रता की वह स्थिति जिसमें साधक का अपने प्राणों पर ऐसा नियंत्रण हो जाता है कि वे उसके अनुसार चलते हैं, को समाधि कहते हैं। (क्रमश :- )
हम न भूलें कि
कर्म करते समय यह समझना होगा कि इस कर्म का मुझ पर क्या संस्कार पडेगा क्योंकि संस्कार ही अगले जन्म को और इस जन्म मे सुख-दुख को प्राप्त करवाते हैं। पुण्य तथा पाप भी तो संस्कार ही करवाते हैं।
जब तक मन मे ज्ञान नही होता तब तक मनुष्य धर्म का नही अपितु रूढियों-रस्मों का ही पालन करता है।
बुद्धि एक शक्ति है जो बोध करवाती है। इसका आधार अनुभव (अपना अथवा औरों का) और चिंतन होता है।
16 Sanskārs of Hindus – part (8/9)
Vedic culture consideres life as a journey according to which one has to move forward, whether one wishes to or not. One cannot remain in one stage and condition for a long time. The responsibility of a household, betterment of family, education of children, social life and family-centered work are mainly vested in the household (grihasth-āshram). Money is needed to fulfill all these obligations. As time passes by responsibilities decrease with many tasks being completed and responsibilities being fulfilled. A day comes when a person has very few responsibilities left and it is almost time for him to retire. Those who handover their household and move on, retain their prestige while those who remain attached to household and do not take steps to come out of it hinder their self-development. They get caught up in worries, apprehensions etc. for which they no longer carry the responsibility and which they cannot solve on their own. But due to these concerns and apprehensions, they interfere in the household of their children with their ‘unsolicited’ suggestions. At present there are many instances where aged parents do not get the respect they expect from their sons and daughters-in-law. There is always sorrow and suffering in such household. Children also start considering their aging parents as a burden.
14) vānprasth sanskār: The literal meaning of ‘vānprasth’ is the departure to the forest. As Vedic culture considers life as a journey and divides it into 4 main stages (āshrams), the third āshram in life is called ‘vānprasth āshram’. Those who practiced Vedic culture used to handover their household after becoming grandparents. The main aim of ‘vānprasth āshram’ was to achieve one’s spiritual progress after reaching the age of 50 years.
While living in the household, the person has fulfilled the obligations of the society also so that the society remains intact and people lead a good life. Now, a person should be free from all these obligations and work for self-progress. While living in household and society, he is under the influence of emotions like attachment, ego, greed etc., which become a hindrance to his self-development. If a person does not involve in new activities regularly after retirement, then it is natural that he will feel monotony in life. In such a situation, the ability of the intellect to think, and remember starts getting impaired. Acceptance of such a person decreases in the society and sometimes people feel that society does not need them. They feel lonely and depressed. This loneliness becomes even fatal for older people because of the disrespect and neglect they receive from their children and their families while still living in the household (grihasth-āshram). The societies of Europe and America are struggling with increasing loneliness and its consequences (Depression, Dementia, Alzheimer’s, etc. are on rise).
Who can payback what the parents have done for their children? Parents do not like to tell their children that it is their duty to take care of them and there is no need to remind a child who is aware that it is his duty to take care of his parents. It is the nature of every person that he wants freedom for himself. If the parents remain at home, then the person does not feel free to carry out the tasks as per his own wish. The parents should give up their control and give the child the opportunity to run the household according to his wish and understanding. The ancient sages solved this problem by the concept of ‘vānprasth’. Instead of feeling humiliated or unwanted one should rather abandon this world proudly and as self-reliant. Although the person enjoys pleasures in the household, the mind starts getting tired of the same pleasures after a while. The experiences of life also make a person understand that pleasures are mere attractions which give a feeling of happiness only for some time. The person himself starts getting away from these pleasures. It is only the attachment that does not allow him to detach from the household.
The child has responsibility towards the well being of the parents even after the parents leave for ‘vānprasth āshram’. The parents are not dependent on the child, but the child should always support the parents in every way so that they can concentrate on their self and spiritual development.
15) sannyās sanskār: ‘sum + nyās = sannyās’ means to establish ‘sum’ (same state). In ‘vānprasth āshram’, through self-study, austerity, contemplation, etc., one gets control over the vices (desire, anger, greed, attachment, ego, etc.). Such a knowledgeable person is now capable of doing selfless service and good to the society. A person taking ‘sannyās’ is free from all his three debts (Rishi-Riṇ, Pitri-Riṇ and Dev-Riṇ). He takes off his ‘yajyopavīt’ at the time of ‘sannyās’ ceremony and detaches himself from his family. From here on the entire society is his family. The ‘sannyāsī’ wanders guiding everyone with his discourses for their upliftment and to remove evil and bad practices from the society.
The ‘sannyāsī’ should not expect anything while working for the betterment of the society. A ‘sannyāsī’ should not be influenced by the presence or absence of any kind of emotions or materialistic needs. He should continue to show the society the right path (the path of dharm) and should always remain in a state of ‘sum’. Parallel to the efforts of betterment of society, the ‘sannyāsī’ practices ‘yam, niyam and yog’ for ‘self-knowledge’ to clear the mind of any impressions still left on it. A ‘sannyāsī’ conquers his desires and bears the fruits (good and bad) of his actions. The ‘sannyāsī’ considers himself an ‘instrument’ and keeps working for the betterment of the society. Through the power of ‘yog’, a ‘sannyāsī’ can foresee his death. This is the time when he goes into solitude so that he can attain ‘samādhī’ without any disturbance for his salvation.
Thoughts (desires) arise constantly in the mind. The mind continues to compel the soul to take birth and acquire a body in order to fulfill its desires. It is necessary to control the desires arising in the mind to come out of the cycle of birth and death. To control the mind a sanyasi practices the 5 yam (1: ahinsā, 2: saty, 3: astey (not to steal), 4: parigrah (not to be greedy / to be renounced) and 5: brahmchary), 5 niyam (1: body cleansing (going to toilet, bathing, rinsing, teeth-brushing, etc.), 2: dedication, 3: contentment, 4: īshvar-praṇidhān (devotion to God) and 5: self-study) and yog (for physical and mental strength) throughout his life.
samādhī: prānāyām (to hinder and control the air flow while inhaling (śhwās) and exhaling (praśhwās) is a part of yog, through which the seeker takes control of his prān (the prāns; 1: apān, 2: samān, 3: prān, 4: udān and 5: vyān) to calm down his mind. The stage when the mind starts to concentrate without restlessness is called as ‘dhyān’. The stage of concentration in which the seeker has full control over his prāns, is called samādhī.
(To continue :- )
Let us not forget that
One should be very clear of the effects and impressions (sanskār) his deeds will have on his mind. These will decide the happiness or sorrow in the existing life and the births to come. These impressions on the mind make one do good or bad.
A person without knowledge follows customs and rituals blindly.
Intellect is a power that makes one understand. Its basis is experience (of oneself or others) and contemplation.