हिन्दुओं के १६ संस्कार – भाग (५/९)
16 Sanskārs of Hindus – part (5/9)
शिशु जब गर्भ में होता है तभी उसके बाल आ जाते हैं। चूँकि शिशु गर्भ में द्रव में होता है इसलिए उसके बाल भी मलिन जल में होते हैं। इन मलिन बालों को उस्तरे से जड़ तक काट देना आवश्यक है जिससे बालों में उस मलिन जल का थोड़ा सा भी अंश न रह जाए। इन केशों को तब तक रखना ही उचित है जब तक खोपड़ी की संधि अस्थियाँ आपस में जुड़ न जाएँ। तीन वर्ष की आयु तक ये अस्थियाँ जुड़ जाती हैं तथा शिशु का कपाल भी अब कोमल नही रहता अपितु कठोर होने लगता है। इन मलिन केशों को रखने का अब कोई औचित्य नही रहता है। इस अवस्था में शिशु के बालों को उस्तरें से साफ कर देने पर सिर की गंदगी, कीटाणु आदि तो दूर हो ही जाते हैं साथ में बालों के रोमछिद्र भी खुल जाते हैं जो अब तक कुछ बंद-से हो चुके होते हैं।
८) चूड़ाकर्म संस्कार: चूड़ाकर्म का अर्थ है – सिर के बालों के संबंध में कर्म। इस संस्कार को मुंडन, चूड़ाकरण, केश-वपन, क्षौर आदि भी कहा जाता है। मुंडन संस्कार जन्म के एक वर्ष के भीतर अथवा ३ वर्ष की आयु होने पर कर देना चाहिए।
नाखून और बाल अपने भीतर रासायनिक तत्वों के अंश को लम्बे समय तक सुरक्षित रखने की क्षमता रखते हैं। यही कारण है कि बालों अथवा नाखूनों के जैव-नमूनों के परीक्षण पुरातत्व वैज्ञानिक भी उस स्थल के इतिहास को जानने हेतु करते हैं। बालों के जैव-नमूनों का परीक्षण आज पुलिस द्वारा अपराध को सुलझाने में तथ्य के रूप में प्रस्तुत भी किया जाता है। अवैध नशीले पदार्थों के सेवन व लेन-देन में लिप्त व्यक्तियों के अपराध को सिद्ध करने के लिए बालों के नमूनों का परीक्षण वर्तमान में एक सामान्य प्रक्रिया है।
बच्चे के दाँत लगभग ६ माह की आयु में निकलने आरम्भ हो जाते है। तीन वर्ष की आयु तक उसके सभी २० दाँत आ जाते है। दाँत निकलने का यह समय बच्चे के लिए कष्टों व पीड़ा से भरा होता है। दाँत निकलते समय बच्चे को सिर में पीड़ा होती है, ताप होता है, मसूड़े सूज जाते हैं, पेट बिगड़ जाता है, आदि। सिर को हल्का एवं ठंडा रखने से बच्चे को आराम मिलता है। एक वर्ष का होते-होते बच्चे के ८ दाँत निकल चुके होते है (डेढ़ वर्ष तक १२ दाँत और २ वर्ष तक १६ दाँत)। दाँत निकलने की प्रक्रिया के समय बच्चे की पीड़ा अनुभव करते हुए कुछ माता-पिता बच्चे का मुंडन एक वर्ष की आयु में कर सकते हैं। बच्चा अपने ८ दाँतों से भोजन को थोड़ा चबा सकता है। माता-पिता भी भोजन के छोटे टुकड़ों से बच्चे की मदद कर सकते है। सिर हल्का होने से बच्चे को आराम भी मिलता है परन्तु अभी खोपड़ी की संधि अस्थियाँ भली प्रकार से जुड़ी नही होती है व खोपड़ी नर्म होती है। बालों का कार्य खोपड़ी के साथ मस्तिष्क की रक्षा करना होता है। माता-पिता को गहन चिंतन के पश्चात ही मुंडन एक वर्ष की आयु में कराना चाहिए।
यदि संभव हो तो मुंडन के पश्चात भी बच्चे के बाल २-३ बार उस्तरे से उतरवाने चाहिए। इससे बालों के रोमछिद्र खुल जाते हैं, जड़े सुदृढ होती हैं एवं नए बालों को घना, लम्बा और दृढ़ बनने में भी सहायता मिलती है।
मुण्डन संस्कार के अवसर पर अथवा उसके तुरन्त बाद बाल बढ़ने पर शरीर के सर्वोच्च भाग सिर पर संस्कृति की ध्वजा के रूप में शिखा रखी जाती है। सिर पर जहां भी बालों का आवृत (भंवर) होता है, वहां भिन्न नाड़ियों का मेल होता है। इस स्थान को ‘अधिपतिमर्म’ कहा जाता है। यह शिखा धारण करने का स्थान है। यह स्थान कोमल होता है और हल्की सी चोट लगने पर भी व्यक्ति की मृत्यु हो सकती है। शिखा इस कोमल स्थल को न केवल सुरक्षा देती है अपितु ताप को नियंत्रित करने में भी मदद करती है। सुश्रुत संहिता में चोटी रखने के कारण व महत्त्व का वर्णन है।
९) कर्णवेध संस्कार: कर्णवेध का अर्थ है – कर्ण को बींध देना, उसमें छेद कर देना। ऋषि सुश्रुत लिखते हैं ‘रक्षाभूषणनिमित्तं बालस्य कर्णौ विध्येते’ अर्थात बालक के कान दो उद्देश्यों से बींधे जाते है। पहला बालक की रक्षा व दूसरा बालक के कानों में आभूषण डालना।
कान में छेद करने से एक नस छिद जाती है जिसका संबंध आंतो से है। इस नस के छिद जाने से आंत्रवृद्धि (हर्निया) नहीं होती। कर्णछेदन का यह कार्य चिकित्सक का है चूँकि कर्ण में किस स्थान पर छेद करना है यह चिकित्सक ही जान सकता है। आयुर्वेद में ऋषि सुश्रुत द्वारा इस विषय में बताया भी गया है। ऐलोपैथी इस तथ्य में विश्वास नहीं करती व समाज में लोग प्रशिक्षित आयुर्वेद चिकित्सक से कर्णभेदन करने के स्थान पर किसी सुनार आदि से ही कर्णभेदन करवा लेते हैं। कानों का आभूषण व्यक्ति को आकर्षक बनाने में सहायता करता है व साथ-साथ कर्ण के छेद को बंद भी नहीं होने देता।
हर्निया भिन्न-भिन्न प्रकार का होता है। हर्निया की समस्या तब उत्त्पन्न होती है जब पेट में से कोई अंग या मांसपेशी या ऊतक किसी छेद की सहायता से बाहर आने लगता है। महात्मा गांधी आयुर्विज्ञान संस्थान, सेवाग्राम, महाराष्ट्र की एक शोध के अनुसार भारत में पेट के हर्निया रोगियों में पुरुष : महिला का ९ : १ का अनुपात है।
एक स्थान के एक समाज के पुरुष कानों में एक ही बनावट के स्वर्ण आभूषण पहनते थे। वेश-भूषा एवं सर पर पगड़ी बांधने के तरीके की भांति ही कर्ण-आभूषण भी स्थानीय पहचान के द्योतक थे। वर्तमान में भी जहां पुरुष संस्कार रीति अनुसार कर्णछेदन करने के उपरांत आभूषण पहनते हैं, ऐसा देखा जाता है। (क्रमश :- )
हम न भूलें कि
आयुर्विज्ञान शरीर के भीतर रक्त एवं संवेदनाओं-सूचनाओं को एक स्थान से दूसरे स्थान को लाने एवं ले जाने वाली वाहिकाओं को नाड़ी कहता हैं। रक्त वाहिकाओं को नस व संवेदना-सूचना आदि वाहिकाओं को नाड़ी कहते हैं।
योग के सन्दर्भ में नाड़ी वह मार्ग है जिससे होकर शरीर की ऊर्जा प्रवाहित होती है। योग में यह माना जाता है कि नाडियाँ शरीर में स्थित नाड़ी-चक्रों को जोड़तीं है।
ये १६ संस्कार बालक व बालिका दोनों के लिए हैं। वैदिक संस्कृति दोनों के लिए संस्कारों को आवश्यक बताती है।
16 Sanskārs of Hindus – part (5/9)
When the baby is in the womb, its hair grows. Since the baby is in a fluid in the womb, the hair are also in the slimy water. It is necessary to remove these hair with a razor from the root so that not even a tiny fraction of that water remains in the hair. It is advisable to keep these hair till the bones of the skull fuse together. By the age of three, these bones join and the skull is also no longer soft. There is no longer any reason to keep these birth hair. On removing baby’s hair with a razor, not only the hair follicles which were somewhat closed by now open up but also cleanses the scalp.
8) Chudākarm Sanskār: Chudākarm means ‘action in relation to the hair of the head’. This sanskār is also called ‘Mundan’, ‘Chudākaran’, ‘Kesh-wāpan’, ‘Kshaur’ etc. Mundan ceremony should be done within one year of birth or on attaining the age of 3 years.
Nails and hair have the ability to preserve the chemical elements within them for a long time. This is the reason that even archaeologists test the bio-specimen of hair or nails to know the history of that site. Hair bio-samples test report is today even presented as evidence by the police in crime solving. Hair samples testing is a common practice now to prove if a person is guilty of consuming or dealing with illegal narcotics.
Baby teeth start appearing by the age of around 6 months and by the age of three it has all 20 teeth. Teething is a painful phase for the child during which it experiences headache, fever, loose stools, swollen gums, etc. During this phase keeping the head light and cool helps the child. By the age of one year, the child has got 8 teeth (12 teeth by one and a half years and 16 teeth by 2 years). Some parents on feeling the pain and problems their child has to go through while getting teeth may shave child’s hair at the age of one year. A child can chew food a little with his 8 teeth. Parents can also help the child with small pieces of food. Less weight of hair on the head also gives relief to the child, but the bones of the skull are still not joined properly and skull is yet soft. The function of hair is to protect the scalp as well as the brain. Parents should shave child’s head at the age of one only after thorough consultation.
If possible, the child’s hair should be removed with a razor 2-3 times even after the mudan ceremony. This opens the hair pores, strengthens the hair roots and also helps in making new hair thick, long and strong.
On the occasion of Mundan ceremony or soon after it, when hair grow, ‘Shikhā’ or ‘Chotī’, as a symbol of culture is maintained on the head. Wherever there is a vortex of hair on the head, different ‘nādis’ unite. This place is called ‘Adhipatimarm’. This is the place where the origin of ‘Shikhā’ should be. This place is tender and a person can die even if lightly hit here. The ‘Shikhā’ not only protects this tender spot but also helps in controlling the heat. Sushrut Samhitā describes the reason and importance of having ‘Shikhā’.
9) Karṇvedh Sanskār: Karṇvedh means – to pierce the ear, to make a hole in it. Sage Sushrut writes ‘rakshābhushaṇnimittam balasy karṇau vidhyete’ which means the ears of the child are pierced for two reasons. First to protect the child and second to put ornament in the ears of the child.
On piercing the ear, a vein is cut, which is related to the intestine. Perforation of this vein protects the person from getting hernia. Ear-Piercing is the job of a doctor, as only the doctor can know at which place the hole is to be made in the ear. Sage Sushrut has handled this subject also in Ayurved. Allopathy does not believe in this influence of ear piercing on hernia. People today in the society see this more as an old tradition and get ear pierced by a goldsmith or even seller of ornaments. Ear jewelry helps to make a person look attractive and at the same time does not allow the hole of the ear to close.
There are different types of hernias. The problem of hernia arises when an organ or muscle or tissue from the abdomen comes out through a hole. According to a research by Mahatma Gandhi Institute of Medical Sciences, Sevagram, Maharashtra, the ratio of male : female among abdominal hernia patients in India is 9:1.
The men of a society from any perticular place used to wear gold ornaments of the same design in their ears. Like the dress and the way of tying the turban on the head, the ear ornaments were also indicators of regional identity. Even at present, in many regions men wear ear ornaments which depict their regional identity. (To continue :- )
Let us not forget that
In medical science, the vessels that carry blood or sensations (information) from one place to another within the body are called ‘nādis’. The blood vessels are called veins and arteries whereas vessels carrying sensation and information etc. are called nerves.
In the context of ‘yog’, the ‘nādi’ is the path through which the energy of the body flows. In ‘yog’, it is believed that the ‘nādis’ connect the different ‘nadi chākr’ (energy centers) located in the body.
These 16 sacraments are for both the boy and the girl child. The Vedic culture states that the rites are necessary for both.