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हिन्दुओं के १६ संस्कार – भाग (४/९)

16 Sanskārs of Hindus – part (4/9)

शिशु अनेक योनियों में भ्रमण करता हुआ मानव शरीर में आया है, इसलिए उसके मन पर पाशविक संस्कारों की छाया रहनी स्वाभाविक है। इनको हटाया जाना आवश्यक है। यदि पशु प्रवृत्ति बनी रही, तो मनुष्य शरीर की विशेषता ही नही रहेगी। जिनके अन्तःकरण में मानवीय आदर्शो के प्रति निष्ठा है, भावना है, उन्हीं को सच्चे अर्थों में मनुष्य कहा जा सकता है। इन्द्रिय-परायणता, स्वार्थ, निरुद्देश्यता, असंयम, भविष्य के लिए विचार नही करना जैसे दोषों को पशुवृत्ति कहते हैं। इनका जिनमें बाहुल्य हैं, वे ‘मानव पशु’ हैं। अपना नवजात शिशु ‘मानव पशु’ नहीं रहना चाहिए, उसके चिर संचित कुसंस्कारों को दूर किया ही जाना चाहिए। इस परिशोधन के लिए संस्कारों की कड़ी में शिशु की पहचान व अन्य लोगों से उसके विषय में व्यवहार हेतु ‘नाम’ से उसका अभिषेक किया जाता है।

५) नामकरण संस्कार: नाम + करण = नामकरण अर्थात नाम का बनाना या रखना। मनोविज्ञान एवं अक्षर-विज्ञान के विद्वानों का मत है कि नाम का प्रभाव व्यक्ति के स्थूल-सूक्ष्म व्यक्तित्व पर पड़ता रहता है। समाज में भी यह मान्यता है कि प्रत्येक व्यक्ति के नाम का उसके कर्मों पर प्रभाव पड़ता है। माता-पिता का कर्त्तव्य है कि वे संतान को ऐसा नाम दें जो उसे सदैव जीवन के किसी उद्देश्य, किसी लक्ष्य का स्मरण कराता रहे। नाम रखने के दो उद्देश्य हैं:- पहला सम्बोधन व दूसरा हृदय में उच्च भावना को जगाना। नाम ऐसा होना चाहिए जिसका कोई अभिप्राय हो। नाम उच्चारण में सरल हो, कठिन नही। माता-पिता ध्यान दें कि नाम का उद्देश्य मात्र संबोधन ही नहीं है। नाम से शिशु को नई पहचान मिलती है, जिससे उसे जीवन भर ही नहीं अपितु मृत्यु के पश्चात भी पहचाना जाता है। नाम की प्रसिद्धि से व्यक्ति का लौकिक व्यवहार में एक भिन्न अस्तित्त्व उभरता है। अत: इन सब बातों का स्मरण करते हुए अभिभावक अपनी संतान को जड़ पदार्थों के, पशु-पक्षिओं के तथा निरर्थक नाम न दें। ऐसे नाम संतान के हृदय में उत्कृष्ट भावना नहीं जगा सकते।

जन्म से पहले शिशु माँ के गर्भ में एक सुरक्षित वातावरण में होता है। उसने माँ के शारीरिक तापमान के अतिरिक्त किसी अन्य तापमान का अनुभव नही किया होता। उस पर बाहर की हवा, वायु के दबाव का सीधा प्रभाव नहीं पड़ा होता। जन्म के पश्चात शिशु बाह्य वातावरण में होता है और उस पर तापमान, हवा एवं वायुदाब का सीधा प्रभाव पड़ता है। बाह्य वातावरण में भिन्न जीवाणु, रोगाणु आदि भी उस पर आक्रमण करने लगते है। शिशु की प्रतिरोधक क्षमताओं का अभी विकास होना होता है। ऐसे में शिशु को घर के सुरक्षित वातावरण में रखा जाता है। हमने बड़े-बुजुर्ग लोगो को कहते भी सुना है, “बच्चे का ध्यान रखो कि कहीं उसे हवा न लग जाए”। शिशु को सदैव घर में ही नहीं रखा जा सकता। उसे घर से बाहर निकलना ही है। शुद्ध वायु व धूप उसके लिए अनिवार्य हैं।

६) निष्क्रमण संस्कार: ‘निष्क्रमण’ का अर्थ है बाहर निकलना। शरीर व मन के विकास के लिए शीतल हवा एवं सूर्य के प्रकाश से अधिक आवश्यक अन्य कोई वस्तु नहीं है। बच्चे की उसकी शारीरिक स्थिति के अनुसार; हृष्ट-पुष्ट हो तो २ माह, दुर्बल हो तो ३ माह उपरांत बाहर की हवा तथा धूप में ले जाना चाहिए। आयुर्वेद के ग्रंथों में नामकरण के पश्चात कुमारागार, बालकों के वस्त्र, उनके खिलौने, उनकी रक्षा, पालन-पोषण आदि विषयों पर लिखा गया है जो बालक के विकास की दृष्टि से ध्यान देने योग्य है।

कुमारागार: भवन का निर्माण प्रशस्त वास्तुकुशल व्यक्ति (इंजीनियर) द्वारा पवन की दिशा, सूर्य की धूप की दिशा एवं अवधि, उस स्थान की वनस्पति, स्वच्छता (जानवरों, कीट रोगाणुओं से रक्षा हेतु) आदि का ध्यान रखते हुए होना चाहिए। वह भवन भिन्न ऋतुओं में भी रहने के लिए अनुकूल वातावरण दे सके, ऐसी व्यवस्था की जानी चाहिए।

वस्त्र: बिस्तर, आसन, बिछौने, एवं पहनने के वस्त्र

खिलौने: बच्चे के विकास में सहायक हों, भयावह न हों, चोट न लग सके, प्राण-हरण न करने वाले हो, आदि।

मानसिक विकास: शिशु को डराना उचित नहीं है। किसी भी कारण से राक्षस, भूत, पुलिस आदि का भय नहीं देना चाहिए। भय का बालक के मनोविज्ञान पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ता है।

७) अन्नप्राशन संस्कार: अन्नप्राशन का अर्थ है – जीवन में पहली बार अन्न का खाना। जन्म होने पर शिशु के न दाँत होते है कि वह अन्न चबा सके और न ही अभी शिशु की इतनी पाचन शक्ति होती है कि वह ठोस भोजन पचा सके। उस समय शिशु को जैसे भोजन की आवश्यकता होती है उसका प्रभु ने माँ के दूध के रूप में प्रबंध कर दिया होता है। जब दाँत निकलने के दिन आने लगें तब समझ लेना चाहिए कि शिशु का माँ का दूध छुड़ाने का समय आ गया है। प्रकृति भी अब शिशु को भोजन चबाने हेतु साधन प्रदान करा रही है। बच्चों के दाँत छ: मास की आयु पर निकलने लगते है, इसलिए अन्नप्राशन संस्कार का समय भी छठा महीना है।

कुछ माताएँ छ: माह की आयु से पहले ही बच्चे को ठोस आहार देने लगती हैं ऐसे में बच्चे की पाचन शक्ति बिगड़ने का भय बना रहता है। इसके विपरीत कुछ माताएँ बच्चे के दाँत निकल आने पर भी उसे अपने दूध पर ही रखती हैं। वे सोचती हैं कि उनकी संतान के लिए माँ के दूध से उत्तम तो कोई अन्य भोजन है ही नही। उनका विचार होता है कि बच्चा जितनी देर उनका दूध पियेगा वह उतना अधिक स्वस्थ रहेगा। दुर्भाग्यवश उनका यह विचार प्रकृति के विरुद्ध है। ऐसी संतान के शरीर का गठन ढीला रह जाता है। अत्यधिक संभावना रहती है कि बच्चा थुलथुला हो जाता है। अन्नप्राशन संस्कार के उपरांत माँ को धीरे-धीरे शिशु को अपने दूध से हटाना चाहिए और अन्न के भोजन पर लाना चाहिए। एकदम माता का दूध छुड़ाकर शिशु को अन्न पर लाने से उसके पेट में रोग हो सकते हैं। (क्रमश :- )

हम न भूलें कि

  • पूर्वकाल में शिशु के जन्म-नक्षत्र, ग्रह, राशि आदि के आधार पर शिशु का नामकरण होता था।

  • शरीरमाद्यं खलु धर्म साधनम्। अर्थात: शरीर ही सभी धर्म (कर्त्तव्य) साधने (सम्पन्न करने) का माध्यम है। यदि शरीर स्वस्थ होगा तभी व्यक्ति अपने कार्य भली प्रकार सम्पन्न कर पाएगा।

  • अन्न केवल शरीर का पोषण ही नहीं अपितु मन व बुद्धि (अत: आत्मा, चूँकि ये सदैव आत्मा के साथ रहते हैं ) का भी पोषण करता है। इसी कारण व्यक्ति को जीवन में शुद्ध, सात्त्विक व पौष्टिक आहार ही लेना चाहिए।

16 Sanskārs of Hindus – part (4/9)

The child has taken birth in a human body after living lives in bodies of different species. It is but natural for its mind to remain under the shadow of animalistic behavior. This shadow needs to be dispelled. If the animal instinct continues, then there will be no importance of the human body. Only those with dedication towards human ideals can be called human in true sense. Qualities like senselessness, selfishness, aimlessness, incontinence, non-tolerance, no thinking ability about the future are called animal instincts. One who has these in excess is a ‘human animal’. Our newborn child should not be a ‘human animal’, his long accumulated (from previous lives) bad instincts must be removed. In the series of rituals for the purification, the child is anointed with a ‘name’ for its identification and for interaction with other people.

5) Nāmkaran Sanskār: Nām + Karan = Nāmkaran means to make or keep a name. Scholars of psychology and syllable (phonetics) are of the opinion that name has a continuing effect on the personality of a person. There is also a belief in the society that the name of a person has an effect on his deeds (karm). It is the duty of the parents to give their child such a name that will always remind it of the purpose and goal of life. The two intentions in naming a person are:- to address a person and second to awaken inspiration in the person’s heart. The name should have a meaning and should be easy to pronounce. Parents should be aware that the purpose of the name is not just only to address. The name gives a new identity to the baby, with which it is recognized not only throughout its life but also after its death. The fame of the given name contributes to the personality of the person and his worldly behavior. With all this in mind the parents should not give meaningless names of inert substances, animals and birds to their children. Such names cannot invoke inspirations in the heart of the child.

Before birth, the baby is in a safe environment of the mother’s womb. Apart from the body temperature of the mother, the baby has not yet experienced any other temperature. The outside air and air pressure did not have any direct effect on the baby until its birth. After birth, the baby is in an external environment and is directly affected by temperature, wind and air pressure. Different bacterias, germs etc. existing in the external environment also attack the baby now. The immune system of the baby has yet to develop. In such a situation, the baby is kept in a safe environment of home. We have definitely heard elders say, “Take care of the child that it does not fall ill due to exposure”. The baby cannot always be kept at home, he has to get out of the house to get fresh air and sunlight as they are essential for him.

6) Nishkraman Sanskār: ‘Nishkraman’ means to come out. For the development of body and mind, nothing is more essential than cool fresh air and sunlight. According to the physical condition of the child; If the child is strong then it should be taken out after 2 months of age and in case the child is weak it should be taken out after 3 months of age to be exposed to direct sunlight and fresh air. One can find detailed descriptions on the subjects like living place of the child, clothes of children, their toys, their protection, upbringing etc. in the texts of Ayurved. These texts are written keeping in mind the overall development of the child.

Kumārāgār (Living place): The construction of the building should be done by an experienced Vaastu-skilled person (engineer) keeping in mind the direction of wind, direction and duration of sunlight, vegetation of that place, cleanliness (to protect from animals, insect, germs) etc. Such arrangements should be made that the building can give a favorable environment for living in different seasons also.

Clothing: Bedding, rugs, and clothes.

Toys: should be helpful in the development of the child, should not be frightening, must not cause injury, must not be life-threatening, etc.

Mental development: It is not advisable to scare a child. Fear of demons, ghosts, police etc. should not be given for any reason. Fear has a very bad effect on the psychology of the child.

7) Annaprāshan Sanskār: Annaprāshan means – eating food for the first time in life. At birth, the baby does not have teeth to chew food, nor does the child have enough digestive power to digest solid food. At that time, the kind of food that the baby needs, has been provided by nature in the form of mother’s milk. When teething begins, it should be understood that the time has come to wean the baby from mother’s milk. Even nature is now providing the means to the child to chew food. A child starts to teeth from the age of six months, hence the time of Annaprāshan Sanskār is also the sixth month.

 

Some mothers start giving solid food to the child before the age of six months, in such a situation there is a fear of worsening the digestive power of the child. Conversely, some mothers keep the baby on their own milk even after the teeth have emerged. They think that there is no better food for their child than mother’s milk. They believe that the longer the child drinks their milk, the healthier it will be. Unfortunately this thought is against nature. The body formation of such a child remains loose. There is a high probability that the child may become fluffy. After the annaprāshan ceremony, the mother should gradually switch the infant from her milk to food. Abrupt weaning off from mother’s milk and start of solid food can cause stomach problems. (To continue :- )

 

Let us not forget that

  • In the past, the baby was named considering the time of birth, planetary position, zodiac, etc.

  • śhrīrmādhyam khalu dharm sādhnam Meaning: The body is the medium to perform all the dharms (duties). A person will be able to complete all his works properly only if he is healthy.

  • Food not only nourishes the body, but also the mind and intellect (hence the soul, since they are always with the soul). That is why a person should consume only pure, sattvīk and nutritious food in life.

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