हिन्दू होने पर गर्व करें
आज आपको बहुत लोग कहते मिल जाएंगे, “भगवान एक है, सभी धर्म उसे पाने का मार्ग बताते हैं। आप किसी भी धर्म को मानिए आपको भगवान मिलेंगे। सभी धर्म एक-दूसरे से प्रेम की बात कहते हैं।” ऐसा कहने वाले वास्तविकता में बिना किसी अध्ययन, धर्म-ज्ञान व शोध के अभाव में ही अपनी कल्पना व उन जैसे लोगों की संगति में सुनी-सुनाई बातों के आधार पर ऐसा कह देते है। ऐसे लोग सामान्यत: भोग-तृष्णा से ग्रसित, ऐन्द्रिय सुखों की प्राप्ति एवं समाज में अपनी वाहवाही की लालसा रखने वाले होते हैं। विषय की गूढ़ता न होने से ऐसे लोग विषय पर चर्चा भी नहीं करना चाहते।
यहूदी, ईसाई व मुसलमानों का एकईश्वरवाद में विश्वास होने पर भी एक-दूसरे को धर्म के नाम पर मारना, धर्म-युद्ध करना इन सभी के धर्मों का एक ही भगवान होने का द्योतक नहीं हो सकता।
पाठक स्वामी विवेकानंद जी की अमेरिका यात्रा के समय धर्म गोष्ठी का स्मरण करें जहाँ हिन्दुओं के लिए पूज्य पुस्तक ‘गीता’ को बाइबल, कुरान, तौरात आदि से नीचे रखा गया था। आज भी ईसाई मिशनरी व इस्लाम में धर्म-परिवर्तन करवाने वाले अपने अपने धर्म की श्रेष्ठता का बखान करते है व भिन्न प्रलोभनों के साथ-साथ सरलता से स्वर्ग-प्राप्ति का आश्वासन भी देते हैं।
हिन्दुओं ने तो सदैव ‘सह-अस्तित्त्व’ को स्वीकारा ही नहीं अपितु जीया है। सहिष्णुता, उदारता मानवता, समभाव, प्रेम व संवाद सह-अस्तित्त्व की भावना का विकास करते हैं। इतिहास में कितने ही उदाहरण हैं कि हिन्दुओं ने की देशों से समय-समय पर सताए और भगाए गए शरणार्थियों को अपने यहां शरण दी है। हिन्दुओं ने यूनानी, यहूदी, अरबी, तुर्क, ईरानी, कुर्द, पुर्तगाली, फ्रांसीसी, अंग्रेज आदि अभी को स्वीकार किया व उन्हें अपने मत-मतान्तर, धर्म, पूजा-पद्धति, जीवन-शैली का पालन करने की पूर्ण-स्वतंत्रता दी। आज २१.वी सदी में कुछ अब्रहमिक धर्म देशों में दूसरे धर्मानुयायियों को आंशिक स्वतंत्रता दी जा रही है परन्तु भारत के अतिरिक्त कोई अन्य देश पूर्ण-स्वतंत्रता नहीं देता (कुछ धर्म इस स्वतंत्रता का धर्म-परिवर्तन के लिए अनुचित उपयोग करते हैं)। यह हिन्दुओं का ‘सह-अस्तित्त्व’ गुण ही है कि हिन्दू जिस भी देश में गए वहां की संस्कृति में घुल-मिल गए और अपनी पहचान भी बना कर रखी है।
हिन्दू सनातन धर्म विस्तारवाद का विरोधी रहा है। वह मानता है कि जब तक क्षेत्रीय- अथवा धार्मिक-विस्तारवाद चलेगा तब तक विश्व में शांति स्थापित नहीं हो सकती। दूसरों को नष्ट करने का विचार ही स्वयं को नष्ट करने की नींव भी डाल देता है। इसी लिए हिन्दू जीवन-शैली सभी के साथ समन्वय रखते हुए ‘सह-अस्तित्त्व’ में ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की बात कहती है।
सनातन-धर्म आत्मा के मोक्ष पा लेने तक जीव के निरंतर पुनर्जन्म और आत्मिक उन्नति की बात कहता है। वह मनुष्य के एक ही जीवन के बिना किसी परिणाम के (अब्रहमिक धर्मों का विचार) अहंकारपूर्ण विचार से मतभेद रखता है। उसके लिए मनुष्य की आध्यात्मिक प्रचुरता सर्वोच्च प्राथमिकता है न कि भोग व भौतिक धन व संसाधन। सनातन-धर्म अन्य मत-मतान्तरों के विपरीत प्रकृति के भोग व शोषण नही अपितु उसके संरक्षण व उसके साथ समन्वय व संतुलन के साथ जीवन बिताने की बात कहता है।
अब्रहमिक धर्मों के अनुसार मृत्यु के पश्चात आत्माएँ किसी स्थान पर “निर्णय-दिवस” तक प्रतीक्षा करेंगी। उस दिन भगवान आत्माओं को उनकी भगवान व उसके पैगंबरों में उनकी आस्था व विश्वास के आधार पर स्वर्ग अथवा नरक में भेजेगा (न कि जीवन में उनके द्वारा किए गए कर्मों के आधार पर)। यह “निर्णय का दिवस” कब होगा इस संबंध में ये धर्म कुछ नहीं बताते।
सनातन धर्म मानव शरीर को न केवल एक भौतिक हाड़-मांस के शरीर के रूप में, अपितु एक ऊर्जावान पिंड शरीर के रूप में भी वर्णित करता है। योग शास्त्र के अनुसार मानव शरीर के तीन मुख्य निकाय हैं: भौतिक, सूक्ष्म और कारण। हम भौतिक शरीर को ही देख सकते है और इसे उचित पोषण और व्यायाम के साथ स्वस्थ रखते है। सूक्ष्म शरीर में जीवन शक्ति (प्राण) होती है, जो भावनाओं, विचारों और कार्यों से प्रभावित हो सकती है। इसके शारीरिक परिणाम भी श्वास, चयापचय और रक्त प्रवाह के रूप से देखे जा सकते हैं। कारण शरीर सूक्ष्म शरीर से भी अधिक सूक्ष्म है। इसमें पूर्व जन्मों से भी स्मृतियाँ, विचार व भावनाएं होती हैं (इन्हे पुराने जन्मों के संस्कार (देखें: हिन्दुओं के १६ संस्कार – भाग १/९) के रूप में भी देखा जा सकता है)। इनका प्रभाव मनुष्य के आचरण व काम करने के ढंग पर देखा जा सकता है। ईसाई, इस्लाम या भारत के पश्चिम में जन्मे किसी अन्य मत, सम्प्रदाय अथवा धर्म ने मानव शरीर के इस दृष्टिकोण को स्वीकार नहीं किया है। आज पश्चिमी विज्ञान शनै:-शनै: इन प्राचीन सत्यों को पकड़ रहा है व योग को स्वीकार कर रहा है। योग मनुष्य की जीवन-शैली को सकारात्मक रूप से प्रभावित करता है।
हिंदू धर्म ने कभी विज्ञान का विरोध नहीं किया। कई वैज्ञानिक सत्य जिन्हें हम आज पश्चिम जगत की आधुनिक खोजों के रूप में जानते हैं, पहले से ही हिंदू ग्रंथों में या विभिन्न हिंदू चिकित्सकों द्वारा इतिहास में लिखे गए थे। वर्तमान में ब्रिटेन के वैज्ञानिक जॉन डेल्टन (१७६६ – १८४४) को अणु-विज्ञान का जनक माना जाता है जबकि हिन्दू ग्रंथों में अणु, परमाणु का उल्लेख ऋषि कणाद द्वारा किया गया था। ऋषि भास्कराचार्य ने सूर्य सिद्धांत ग्रन्थ में इज़ाक न्यूटन के गुरुत्वाकर्षण सिद्धांत (१६५८) से पूर्व ही पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण का उल्लेख कर दिया था। हिन्दू पंचांग सैंकड़ों वर्षों से नक्षत्रों की परिक्रमा व ग्रहणों का समय बताता आ रहा है। ऋषि चरक, ऋषि सुश्रुत, आर्यभट्ट, पतंजलि के नाम व उनकी उपलब्धियाँ हम सभी ने सुन रखे हैं।
इसके विपरीत ईसाई धर्म ने तो १६.वी व १७.वी शताब्दी में वैज्ञानिकों का विरोध किया चूँकि उनकी शोध बाइबल का खंडन करती थी। कॉपरनिकस व गैलीलियो के नाम सभी के स्मरण में है। आज ईसाई धर्म तो विज्ञान का खंडन नहीं करता परन्तु इस्लाम वर्तमान में भी नई शोध व खोज को कुरान व हदीस के अनुसार ही स्वीकारता है। यह संभवत: मुसलमानों के धार्मिक दृष्टिकोण का ही परिणाम है कि विश्व-आबादी का लगभग एक-चौथाई होने पर भी उनका वैज्ञानिक शोध व उपलब्धियों में योगदान लगभग शून्य है।
हिन्दुओं के ऋषि-मुनियों का मनुष्य, जीव-जंतु, प्रकृति व जीवन की ओर विशाल, समुचित व सामूहिक दृष्टिकोण होने के कारण उनके अवलोकन से एक संतुलित व प्राकृतिक समन्वय से परिपूर्ण जीवन का मार्ग प्रशस्त हुआ। यही कारण है कि आपको लोग यह कहते मिल जाएंगे कि हिन्दू जीवन-शैली प्रकृति वविज्ञान से जुडी हुई है। कोई अन्य धर्म, मत-मतान्तर नहीं अपितु सनातन-धर्म ही वैज्ञानिक है। आज भी हिन्दू वैज्ञानिक, बुद्धिजीवी, अन्वेक्षक आदि स्वयं को हिन्दू कहलाने में गर्वान्वित अनुभव करते हैं चूँकि अपने ज्ञान व चिंतन के बल से वे सत्य-असत्य, सही-गलत, उचित-अनुचित, प्रासंगिक-अप्रासंगिक की पहचान कर सकते हैं। विज्ञान व शोध का जन्म प्रश्न, तर्क व जिज्ञासा के गर्भ से हुआ है। गर्व से कहिए कि आप हिन्दू हैं क्योंकि यही विचारधारा आपको प्रश्न करने की अनुमति देती है व आपकी जिज्ञासा को शांत करना अपना एक लक्ष्य मानती है।
यह हिन्दू-दर्शन ही है जहाँ भगवान श्रीकृष्ण को अर्जुन के प्रश्नों के उत्तर देने पड़े हैं। यह हिन्दू-दर्शन ही है जहाँ आस्था व विश्वास को बुद्धि की कसौटी पर खरा उतरना पड़ता है अन्यथा उसे ‘अंध-विश्वास’ कहा जाता है जो जाति, समाज व राष्ट्र के लिए घातक हो सकता है।
(क्रमश :- )
हम न भूलें कि हिन्दू धर्म में भिन्न सम्प्रदाय है परन्तु सम्प्रदायिकता नहीं है। शैव, वैष्णव आपस में झगड़ते नहीं हैं परन्तु मुसलमानों एवं कैथोलिक-इवेंजेलिकल ईसाईयों में झगड़े, संघर्ष व एक-दूजे का बहिष्कार कालांतर से वर्तमान तक देखने को मिलता है।
हिन्दू धर्म में भिन्न-भिन्न मत-मतान्तरों या सिद्धांतों पर विश्वास करने के प्रयत्न नहीं हैं। एकमात्र हिन्दू ग्रंथ ही बारम्बार ‘ईश्वर के दर्शन’की बात करते हैं। केवल सुनने से, विश्वास करने से, बुद्धि द्वारा स्वीकार कर लेने से धर्म सिद्ध नहीं होगा। धर्म का हमारे भीतर प्रवेश अनिवार्य है। ईश्वर पर हमारे विश्वास, हमारी आस्था का प्रमाण ‘प्रत्यक्ष अनुभूति’ व ‘ईश्वर का साक्षात्कार’ है।
Be proud to be a Hindu
Today you will find many people saying, “God is one, all religions show the way to reach him. You will find God in any religion you follow. All religions talk about love for each other.” These type of statements by people are not based on any study, religious knowledge or research. Such comments are purely on the basis of their imagination and what they have heard in the company of people like them. Such people are generally looking for praise in the society and are mostly indulged in fulfilling their desires for the worldly pleasures. Due to lack of depth of the subject, such people avoid any result-oriented fruitful discussion.
Jews, Christians and Muslims believe in monotheism. Then killing each other in the name of religion, doing crusades cannot be a sign of the same God of them.
Readers should remember the seminary during Swami Vivekānand’s visit to America, where the revered book ‘Gita’ for Hindus was placed below the different religious books: Bible, Quran, Taurat etc. Even today Christian and Muslim missionaries proclaim the superiority of their religion. Along with various temptations they also give assurances of going to heaven after converting to their faith.
Hindus have not only accepted ‘co-existence’ but have always lived it. Tolerance, generosity , humanity, equality, love and dialogue develop the spirit of coexistence. There are many examples in history that Hindus have given shelter to refugees who were persecuted and driven away from other countries from time to time. Hindus accepted Greeks, Jews, Arabs, Turks, Iranians, Kurds, Portuguese, French, British etc. and gave them complete freedom to follow their beliefs, religion, worship methods and way of life. Today in the 21st century, in some Abrahamic religion countries, partial freedom is being given to followers of other religions, but no other country except India gives complete freedom to followers of every religion (some religions misuse the freedom for religious conversions). It is the quality of ‘coexistence’ of Hindus that Hindus mix-up in the culture of any country they migrate. They not only integrate themselves in the new society but also maintain their own identity.
Hindu Sanātan Dharm has always been against expansionism. It believes that as long as regional- or religious-expansionism continues in the world peace cannot be established. The very idea of destroying others lays the foundation of destroying oneself. The Hindu way of life talks about ‘Vasudaiv Kutumbakam’ that is ‘co-existence’ in harmony
Sanātan-Dharm speaks of continuous rebirth and spiritual advancement of the soul till the soul attains salvation. It differs from the egoistic idea of a single life without any consequences for a human being (the idea of the Abrahamic religions). For Hindu the spiritual upliftment of a person is the highest priority and not the enjoyment and accumulation of material-wealth and -resources. Sanātan-Dharm unlike other sects and religions does not talk about exploitation of nature to achieve wealth and objects for pleasures, but to live life in harmony and balance with it.
According to the Abrahamic religions, the souls after death will wait at some place till the “Day of Judgment”. On that day God will send the souls to heaven or hell depending on their faith and belief in God and His Prophets (and not on their deeds in the life). When is this “Day of Judgment”? These religions do not tell anything in this regard.
Sanātan-Dharm describes the human body not only as a physical body of flesh and blood, but also as an energetic body. According to Yog-Shāśtr, the human body has three main compositions: physical, subtle and causal. We can only see the physical body and keep it healthy with proper nutrition and exercise. The subtle body contains life force (prān), which can be influenced by feelings, thoughts and actions. Its physiological consequences can also be seen in the form of breathing, metabolism and blood flow. The causal body is more subtle than the subtle-body. It contains thoughts memories, and feelings from previous lives too (these can be seen as sanskārs (See: 16 Sanskars of Hindus – Part 1/9) from old births). Their effect can be seen on human behaviour and way of working. Christianity, Islam or any other sect or religion born in the West of India has not accepted this view of the human body. Today western science is slowly catching up to these ancient truths and accepting yog. Yog positively affects the lifestyle of a person.
Hinduism has never opposed science. Many of the scientific truths we know today as modern discoveries of the West were already written down in Hindu texts or by various Hindu physicians in history. Presently, the British scientist John Dalton (1766 – 1844) is considered to be the father of atomic science, while in Hindu texts the atom was mentioned by the sage Kaṇād much earlier. Sage Bhaskarāchāry had mentioned the gravity of the earth even before Isaac Newton’s theory of gravity (1658) in the “Surya Siddhānt” text. The Hindu calendar has been telling the precise time of eclipses, orbits of different planets and different constellations of stars since hundreds of years. We all have heard the names and achievements of Sage Charak, Sage Suśhrut, Aryabhatt, Pātanjali and more.
In contrast, Christianity opposed scientists in the 16th and 17th centuries because their researches contradicted the Bible. The names of Copernicus and Galileo are in everyone’s memory. Today Christianity does not refute science, but Islam accepts new research, any discovery or invention only if it is in agreement with Quran or Hadith. It is probably the result of the religious attitude of the Muslims that despite being about one-fourth of the world’s population, their contribution to scientific research and achievements is almost zero.
Due to the vast, wholistic and collective attitude of the Hindu sages towards human beings, animals, nature and life, their observations paved the way for a balanced and harmonious life with each other. This is the reason why you will find people saying that Hindu way of life is closely related to science and nature. No other religion, but Sanātan-Dharm is scientific. Even today, Hindu scientists, intellectuals, investigators, etc. take pride in calling themselves Hindus, because with the help of their knowledge and free thinking, they can differentiate between true-false, right-wrong, proper-improper, relevant-irrelevant etc.
Science and research are born from the womb of question, reasoning and curiosity. Proudly say that you are a Hindu because
this is the only ideology that allows you to ask questions and considers it one of its goals to satisfy your curiosity.
It is the Hindu philosophy where God Shri Krishṇ also had to answer Arjun’s questions.
It is the Hindu philosophy where faith and belief have to satisfy one’s intelligence, otherwise it is called ‘blind-faith’ which can be fatal for caste, society and nation.
(To continue :-)
Let us not forget that
There are different sects in Hinduism but there is no sectarianism. Shaivas, Vaishnavs do not fight with each other, but fights, conflicts and exclusion of each other are seen from time immemorial till present among Shia-Sunni Muslims and Catholic-Evangelical Christians.
In Hinduism there is no attempt to believe in different sects or principles. Only Hindu scripture talk repeatedly about ‘Seeing God‘. Religion is not fulfilled just by listening, believing and accepting it through intellect. Religion must enter and reach deep inside us. Our belief and proof of our faith is ‘direct experience’ and ‘visibility of God’.