आश्रम-व्यवस्था
वेद ने मनुष्य-जीवन को चार भागों में व्यक्त किया है।
वे भाग हैं-ब्रह्मचर्य आश्रम,गृहस्थ आश्रम,वानप्रस्थ आश्रम और सन्यास आश्रम।
आश्रम को आश्रम इसलिए कहा जाता है कि उसमें व्यक्ति पूर्णतया श्रम करता है और अपने जीवन को सफल बनाता है।मनुष्य जीवन की सफलता इसी बात पर आधारित है कि वह चारों आश्रमों में परिश्रम करे।
वेद ने मनुष्य-जीवन को गणित के मूलभूत आधार के समान माना है।
ब्रह्मचर्य-आश्रम:- ब्रह्मचर्य आश्रम में ब्रह्मचारी अपने शारीरिक,मानसिक,बौद्धिक व आत्मिक बल का संग्रह करता है।यह संग्रह काल होता है। यह काल मनुष्य जीवन का आधार होता है।जितना आधार पुष्ट होगा,उतना ही जीवन-रुपी भवन सुदृढ होगा।ब्रह्मचारी सब प्रकार का ज्ञान प्राप्त करता है और वेद-विद्या के प्रचार से आचार्य की इष्ट सिद्धि करता है।
ब्रह्मचर्येण तपसा राजा राष्ट्रं विरक्षति ।
आचार्यो ब्रह्मचर्येण ब्रह्मचारिणमिच्छते ।।- (अथर्व० ११/५/१७)
ब्रह्मचर्यरुपी तप से राजा राज्य को विशेष करके पालता है। आचार्य ब्रह्मचर्य से ब्रह्मचारी है।
मन्त्र का आशय यह है कि राजा यदि इन्द्रिय-निग्रही है,तो ही वह प्रजा का पालन कर सकता है।आचार्य ब्रह्मचारी के द्वारा ब्रह्मचर्य-पालन के कारण ही विद्या-प्राप्ति के लिए उससे प्रेम करता है।
महर्षि धन्वन्तरि से शिष्यों ने एक बार पूछा कि जीवन में सब प्रकार के रोगों को नष्ट करने का क्या उपाय है?इस पर आचार्य धन्वन्तरि जी ने कहा-
मृत्युव्यापी जरानाशी पीयूषं परमौषधम् ।
ब्रह्मचर्यं महद्रत्नं,सत्यमेव वदाम्यहम् ।।
अर्थात्-मैं सत्य कहता हूँ कि मृत्यु,रोग और वृद्धपन का नाश करने वाला अमृतरूप सबसे बडा उपचार ब्रह्मचर्य ही है।
🌷गृहस्थ-आश्रम:-आश्रम-व्यवस्था में गृहस्थाश्रम को दूसरा स्थान दिया गया है।
गृहस्थाश्रम में पति-पत्नि एक-दूसरे के लिए और मां-बाप सन्तान के लिए त्याग करते हैं।गृहस्थाश्रम तपश्चर्या का आश्रम है।
दु:ख,हानि,पराजय,अपमान और मृत्यु को सहन करने से गृहस्थ की तपस्या का परिचय मिलता है।इसी के कारण सम्बन्धों की स्थापना होती है।
मातृकुल,पितृकुल,माता-पिता,श्वसृकुल से जो रिश्ते मनुष्य को प्राप्त होते हैं ,वे सभी गृहस्थाश्रम से प्राप्त होते हैं।इससे उत्तम व्यवहारों की सहज सिद्धि होती है।यह नैतिकता का अच्छा प्रशिक्षण केन्द्र होता है।इसमें काम,क्रोध,लोभ,मोह,अहंकार और मानसिक निकृष्टता की परिक्षा होती रहती है।
गृहस्थाश्रम वात्सल्य की पूर्ति का आश्रम है।इसमें माता-पिता अपनी सन्तान के प्रति प्रेम-प्यार की भावना को पूरी करते हैं।यह आश्रम मनुष्य को शारीरिकता से आत्मिकता की और ले जाता है।इस संस्था में भी कुछ दोष हैं।उन दोषों के निवारण करने की आवश्यकता है,न कि यूरोप के कुछ स्वच्छन्दतावादियों की भाँति गृहस्थाश्रम की व्यवस्था को ही नष्ट करने की सोचनी चाहिए।
वैदिक साहित्य में गृहस्थाश्रम को ज्येष्ठ एवं श्रेष्ठ आश्रम माना गया है।मनु महाराज के दो श्लोक इस सन्दर्भ में विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं-
यथावायुं समाश्रित्य वर्तन्ते सर्वजन्तव: ।
तथा गृहस्थमाश्रित्य वर्तन्ते सर्व आश्रमा: ।।-(मनु० ३/६६)
अर्थ:-जैसे वायु के आश्रय से सब जीवों का जीवन सिद्ध होता है,वैसे ही गृहस्थ के आश्रय से ब्रह्मचर्य,वानप्रस्थ और संन्यास आश्रमों का निर्वाह होता है।
अर्थात् जिस प्रकार वायु के बिना प्राणियों का जीवन चल ही नहीं सकता,वैसे ही गृहस्थाश्रम के बिना उक्त तीनों आश्रम टिक ही नहीं सकते।
गृहस्थाश्रम में प्रवेश के अधिकारी कौन हैं?इस विषय को लेकर मनु महाराज ने कहा है:-
स संधार्य: प्रयत्नेन स्वर्गमक्षयमिच्छता ।
सुखं चेहेच्छता नित्यं योऽधार्यो दुर्बलेन्द्रियै: ।।-(मनु० ३/७८)
अर्थ-जो मोक्ष और संसार के सुख की इच्छा करता है,वह गृहस्थाश्रम को धारण करे।वह गृहस्थ निर्बल इन्द्रियवालों के द्वारा धारण करने के योग्य नहीं है।
काममामरणात्तिष्ठेद् गृहे कन्यर्तुमत्यपि ।
न चैवेनां प्रयच्छेत्तु गुणहीनाय कर्हिचित् ।।-(मनु० ९/८९)
अर्थ-कन्या रजस्वला होने पर भी चाहे मृत्युपर्यन्त घर में अविवाहित बैठी रहे,परन्तु पिता कभी उसे गुणहीन युवक के साथ विवाहित न करे।
उपर्युक्त दोनों श्लोकों से यह परिणाम निकलता है कि विवाह से पहले युवक और युवती का स्वस्थ और सबलेन्द्रिय होना आवश्यक है।इसके साथ-२ आजीविका के साधन से सम्पन्न होने के साथ ही दोनों का सदाचारी होना भी अत्यन्त आवश्यक है।
इसके साथ ही विवाह बाल्यावस्था में नहीं होना चाहिए,युवावस्था में विवाह ठीक रहता है-
(सुश्रुत,शारीरस्थान १०-४६,४८) में लिखा है:-
“सोलह वर्ष से कम आयु वाली स्त्री में पच्चीस वर्ष से न्युन आयु वाला पुरुष जो गर्भ का स्थापन करे तो वह कुक्षिस्थ हुआ गर्भ विपत्ति को प्राप्त होता है,अर्थात् पूर्णकाल तक गर्भाशय में रहकर उत्पन्न नहीं होता,अथवा उत्पन्न हो तो फिर चिरकाल तक नहीं जीता।यदि जिये तो दुर्बलेन्द्रिय होता है।”
🌷वानप्रस्थ आश्रम:-यह विज्ञान बढाने और तपश्चर्या करने के लिए है।यह गृहस्थ का मोह छोडकर बाहर वन में जाकर रहने का आश्रम है।वर्तमान काल में वैदिक राज्य न होने के कारण वानप्रस्थियों को वन जाने की पर्याप्त सुविधाएं नहीं हैं।
शिर के केश होतं जब श्वेता,आय बुढापा रुप विजेता
पोते का मुख ज्योंहि देखे,छोड देय सब घर के लेखे।
नगर ग्राम के त्याग अहारा,मीठा लोना चरपर खारा
बढिया अम्बर सकल उतारे,केवल सादे वस्त्र धारे।
चाहे तो पत्नि संग ले जाय,अथवा पुत्र पास ठहराये
बस्ती छोड वनों में जाय,सुन्दर पर्णकुटी में छाये।
अग्निहोत्र गहे साङ्ग उपङ्गा,भगवद्भक्ति करे सत्संगा
कन्द मूल फल खाये भोजन,उसे खिलाये आय जो जन।
अग्निहोत्र उन्हीं से कीजे,वन जीवन का आनन्द लीजे
स्वाध्याय में चित्त लगाये,वृथा न अपना समय गँवाय।
विद्यादिक वस्तुन को देता,कभी दान पुण्य नहीं लेता
इन्द्रिय जीत सबका हो प्यारा,मन को वश में राखन हारा।
तन के हित अति जतन अकारी,किन्तु रहे पूर्ण ब्राह्मचारी।
निज पत्नि यदि होवे संगा,तो भी उठे न काम तरंगा
दगावान् भूमि पर सोवे,निज वस्तुन में निर्मम होवे।
वृक्ष मूल में करे निवासा,उत्तम वाणप्रस्थ को वासा ।
शान्त चित्त हो जो विद्वाना,करते वन धर्मानुष्ठाना
भिक्षा मांग उदर को भरते,वे नर भव सागर को तरते।
अविनाशी ईश्वर को पावहिं,प्राण द्वार सों प्रभु पँह जावहिं।।
🌷सन्यास आश्रम:-यह वेदादि शास्त्रों का प्रचार,धर्म व्यवहार का ग्रहण,दुष्ट व्यवहार का त्याग,सत्योपदेश और सबको निस्सन्देह करने के लिए है।
जा छिन मन हो जाय विरागी,वीतराग निर्मोही त्यागी
उसी समय होवे सन्यासी,गृही होवे अथवा बनवासी।
तोड फोड जग के जंजाला,सन्यासी हो रहे निराला।
करता रहे जगत् उपकारा,मोह माया से करे किनारा।
जिससे दुराचार नहीं छूटा,माया का बन्धन नहीं टूटा
नहीं शान्ति जिसके मन में,लगी लालसा जग द्रव्यन में।
जाको अन्त:करण न योगी,नहीं सन्यासी है वह भोगी।
वह सन्यास करे यदि धारण,करता केवल आत्म प्रतारण
हे पारब्रह्म को कबहुँ न पावे,चाहे कितना ढोंग रचावे।
सन्यासी रोके मन वाणी,बिन रोके होवे बहु हानी
आत्म-ज्ञान में इन्हें लगावे,पुन: आत्म परमात्म पावे।
ब्रह्मज्ञान आत्म में लावे,शान्त चित्त में उसे टिकावें।
सकल भोग कर्मों से संचित,फिर भी रहे ज्ञान से वंचित।
अकृत ईश्वर कर्म अगोचर,ज्ञान हेत नर हो गुरु गोचर।
गुरु बिन कबहुँ ज्ञान नहीं आवे,तांते गुरु चरणन में जावे।
गुप्त रहस्य गुरु सब जाने,जीव ब्रह्म के भेद पचाने।
गुरु से प्राप्त करें विज्ञाना,मन के संशय सभी मिटाना।
ऐसे जन का त्यागे संगा,जिसे चित्त वृत्ति हो भंगा।
जग का यश सुत धन की इच्छा,इन्हें त्यागे माँगे जो भिच्छा।
रहे मुक्ति साधन लव लीना,सन्यासी भक्ति रस भीना।
यश रचे प्रभु दर्शन कारण,शिखा सूत्र तहाँ करे निवारण।
पञ्च अग्नि प्राणों में धारे,गृह के बन्धन तोड बिसारे।
पारब्रह्म वित गृह से निकले,ताकी आत्मज्योति विकसे।।