मन – गुण व अवस्था
Mind – Elements and State
मन को संयम में लाने के लिए केवल दृढ़ इच्छा-शक्ति का होना ही पर्याप्त नहीं है। हमें मन के स्वभाव का भी ज्ञान होना चाहिए। हिन्दू-दर्शन के अनुसार मन के ३ उपादान हैं जिनके कारण मन सदा एक ही स्थिति में नहीं रहता। मन के द्वारा ग्रहण किए गए ये तीन तत्त्व ‘सत्त्व‘, ‘रज‘ व ‘तम‘ गुण हैं। ये गुण संपूर्ण भौतिक व मानसिक विश्व के भी आधारभूत उपादान हैं।
सत्त्व:- यह संतुलन वस्थैर्य का तत्त्व है जो पवित्रता, ज्ञान व आनन्द की उत्त्पत्ति करता है। सत्त्वगुण से वैराग्य, क्षमा, उदारता आदि गुण जन्मते हैं।
रज:- यह गति का तत्त्व है और इससे क्रियाशीलता, काम-वासना और चांचल्य की उत्त्पत्ति होती है। क्रोध, लोभ, मोह आदि में वृद्धि रजोगुण के बढ़ने से होती है।
तम:- यह जड़ता का तत्त्व है जिससे आलस्य, तंद्रा, निष्क्रियता, अवसाद, भ्रम आदि उत्पन्न होते हैं।
प्रत्येक व्यक्ति के मन की रचना इन तीन गुणों की भिन्न मात्राओं के सम्मिश्रण से निर्धारित होती है। किसी मनुष्य के भिन्न परिस्थितियों में होने पर इन तीनों गुणों की मात्राओं के अनुपात में होने वाले अंतर के कारण ही हम उस व्यक्ति के स्वभाव को विचित्र व अस्थिर पाते है। हम बहुधा कहते भी है -” लगता है उसने अपना मन बदल लिया है।”
मन की पाँच अवस्थाएँ हैं जो समय-समय पर स्वतः वातावरण, खान-पान, परिस्थितियों, घटनाओं आदि के कारण व कुछ हमारे अपने विचारों से बदलती रहती हैं।
क्षिप्त अवस्था :- यह मन की चंचल स्थिति, चंचल अवस्था है। मन हर ओर जैसे बिखर सा जाता है और जल्दी-जल्दी विचार बदलता है। मन जल्दी-जल्दी स्मृतियाँ उठाता है। वहाँ जाना है, यह करना है, उसको यह बोलना, उससे यह लेना है, उसको वो देना है, ये खरीदना है, वो काम करना है, अभी यह कर लूँ, यह खा लूँ, फिर वहाँ सो जाऊँ, फिर यूँ बात कर लूँ, आदि, आदि। क्षिप्त अवस्था में रजोगुण की प्रधानता होती है और कर्म-वासना प्रबल रहती है।
मूढ़ अवस्था :- इस अवस्था में तमोगुण का प्रभाव अधिक होता है। इस समय व्यक्ति का मन पूरा स्वस्थ नहीं होता। बुद्धि भली प्रकार काम नहीं करती, समझ नहीं आता है, उसको पता नहीं चलता, कि क्या करना, क्या नहीं करना है। जैसे-किसी को थोड़ी नींद सी आ रही हो, आलस्य आ रहा हो। या कोई शराब पी लेता है तो नशे की स्थिति हो जाती है। तमोगुण के प्रबल हो जाने पर तो मन की प्रवृत्ति अन्य जीवों का अनिष्ट करने वाली हो जाती है।
विक्षिप्त अवस्था :- इस अवस्था में सत्त्वगुण प्रभावशील होता है परन्तु रजोगुण व तमोगुण स्थिति को बिगाड़ते रहते हैं। जैसे किसी व्यक्ति का मन ध्यान में थोड़ा-थोड़ा टिकने लगता है परन्तु किसी अन्य विचार के कारण वो ध्यान टूट जाता है, उसकी एकाग्रता बिगड़ जाती है। इस बिगड़ी हुई अवस्था का नाम है- विक्षिप्त अवस्था (विक्षिप्त का अर्थ ‘बिगड़ा हुआ’ होता है)।
एकाग्र अवस्था :- इस अवस्था में सत्त्वगुण का संपूर्ण प्रभाव होता है। रज व तम शांत होते हैं व किसी प्रकार से विघ्न नही डालते हैं। मन पर बुद्धि व आत्मा का पूर्ण नियंत्रण होता है। मन अब हमारी इच्छा के विरुद्ध कहीं इधर-उधर नहीं भटकता। जैसे पहले लगता था, कि हम विचार उठाना नहीं चाहते, फिर भी कहीं से आ जाते हैं, वैसा इस अवस्था में नहीं होता। एकाग्र अवस्था में मनुष्य प्राकृतिक तत्त्वों व जीवात्मा का सूक्ष्म ज्ञान पा सकता है, उनकी अनुभूति कर सकता है।
निरूद्ध अवस्था :- यह मन की पाँचवी अवस्था है। यह एकाग्र अवस्था से भी श्रेष्ठ अवस्था है। इसमें भी मन पर पूरा नियंत्रण होता है। (‘निरूद्ध’ का अर्थ है: रोका हुआ)। इस अवस्था में मन अपनी प्रकृति में ही स्थिर हो जाता है। इस स्थिति में रहने के लिए मनुष्य को अब किसी आलंबन की आवश्यकता नहीं होती। विचारों के पूर्ण रूप से रोक देने के पश्चात समाधि की स्थिति आरम्भ हो जाएगी। (देखें: हिन्दुओं के १६ संस्कार – भाग (८/९))
ऋषि पतंजलि के योगसूत्र अनुसार ‘योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः’ [१:२] अर्थात चित्त (मन, अन्त:करण) की वृत्तियों का निरोध (सर्वथा रुक जाना) योग है। सामान्यत: मन ‘क्षिप्त’ अथवा ‘मूढ़’ अवस्था में रहता है। जैसे-जैसे योग के अभ्यास से विचारों का अनियंत्रित उठना रुकेगा, वैसे-वैसे ‘विक्षिप्त’, ‘एकाग्र’ व ‘निरूद्ध’ अवस्था आएगी। मन को एकाग्र बनाना ही मनोनिग्रह का प्रयोजन है।
मन के गुण व अवस्थाओं को जानने पर हमें यह स्पष्ट हो जाता है कि मन को एकाग्र अवस्था में लाने हेतु हमें ‘सत्त्व’ गुणों को प्रबल करना होगा और ‘रज’ व ‘तम’ गुणों को समाप्त करना होगा। हमें तीव्र रुचि, अरुचि, राग, वैर, द्वेष, अनैतिकता, विवाद, नशीली वस्तुओं के सेवन आदि से बचना होगा। हमें जीवन को संतुलित व व्यवस्थित बनाना होगा। हमारा खाना, पीना, वार्तालाप, निंद्रा, कार्य आदि यदि संतुलन में होंगे तो वे निग्रह में सहायक होंगे। हमें महत्वाकांक्षा से पूर्व सामर्थ्य उत्पन्न करनी होगी अन्यथा सामर्थ्य से अधिक महत्त्वाकांक्षी होने पर मन भटकेगा। धर्माभिमानी मन को वश में नहीं कर सकता। पाप के लिए क्षमा मांगना ही पर्याप्त नहीं अपितु उसके लिए पश्चाताप करना होगा। मनोनिग्रह के लिए दृढ़ इच्छा-शक्ति के साथ मनुष्य में भरपूर आत्मविश्वास (अतिआत्मविश्वास नहीं; वह मनुष्य के लिए घातक है) होना चाहिए। श्री कृष्ण कहते हैं :-
उद्धरेदात्मनात्मनां नात्मानमवसादयेत्।
आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः॥ [गीता, ६:५ ]
अर्थ: मनुष्य को स्वयं को इस संसार-सागर में आत्मबल के द्वारा ऊँचा उठा लेना चाहिये और अपने द्वारा अपना उद्धार करना चाहिये न कि संसार-सागर में डूबे पड़े हुए अपना अध: पतन करना चाहिये; क्योंकि आत्मा ही आत्मा का मित्र है और आत्मा (मनुष्य स्वयं) ही आत्मा का (अपना) शत्रु है।।
मन को मन के ही द्वारा नियंत्रण में लाना होगा। मनोनिग्रह में हम जिन कठिनाइयों का अनुभव करते हैं वे सभी हमारे अपने ही मन द्वारा निर्मित होती हैं। मन को कृत्रिम उपायों द्वारा नहीं अपितु धैर्य, उद्यम, बुद्धिमत्ता और परिश्रमपूर्वक उपयुक्त साधनाओं से ही वश में लाया जा सकता है।
मनोनिग्रह के लिए अनुकूल वातावरण बनाने के लिए मनुष्य को विचारपूर्वक आहार ग्रहण करना चाहिए चूँकि आहार का मनुष्य के मन पर प्रभाव पड़ता है।
सामान्य भाषा में ‘आहार’ का तात्पर्य भोजन से होता है। स्वामी शंकराचार्य के भाष्यानुसार ‘आहार’ शब्द का तात्पर्य भोजन ही नहीं अपितु वह सब है जिसे इन्द्रियाँ ग्रहण करती हैं। शब्द (वार्ता, ध्वनि, संगीत, ….), गंध, स्पर्श व रूप (प्रतिबिंब, तस्वीर, दृश्य …..) भी मनुष्य के आहार हैं। हमारा आहार सत्त्वगुण को प्रबल करने वाला एवं रज- व तमोगुण को शिथिल करने वाला होना चाहिए। जीवित रहने हेतु मुख से ग्रहण किए भोजन-पान की सर्वाधिक महत्ता है। गीता के १७. अध्ययाय में श्रीकृष्ण कहते हैं कि भोजन तीन प्रकार के होते हैं जो मनुष्यों को अपनी-अपनी प्रकृति के अनुसार प्रिय होते हैं (देखें: गीता १७: ८ – १०)। सात्त्विक, राजसिक व तामसिक मनुष्यों को जो पदार्थ प्रिय होते हैं वे ही क्रमश: मन की सात्त्विक, राजसिक व तामसिक वृत्तिओं के लिए भी उत्तरदायी होते हैं। मनुष्य का स्वभाव सत्त्व, रज व तम गुणों के विभिन्न मात्राओं के मेल से बनता है। जिस व्यक्ति के स्वभाव में किसी एक गुण का आधिक्य है वह एक अन्य व्यक्ति जिसमे किसी अन्य गुण का आधिक्य है, के समान आचरण नहीं कर सकता।
सदृशं चेष्टते स्वस्या: प्रकृतेर्ज्ञानवानपि।
प्रकृतिं यान्ति भूतानि निग्रहः किं करिष्यति॥ [गीता ३: ३३]
अर्थ: सभी प्राणी एवं ज्ञानवान मनुष्य भी अपनी प्रकृति (स्वभाव) के अनुसार ही चेष्टा (आचरण) करते हैं। सभी प्राणी अपने-अपने स्वभाव के वशीभूत ही कर्म करते हैं, फिर इनमें (किसी का) निग्रह क्या करेगा।
यहां हमे ऐसा नहीं समझना चाहिए कि मनुष्य का स्वभाव निश्चित (बन चुका) है अत: निग्रह से कुछ लाभ नहीं होगा। यदि ऐसा सत्य हो तो मनोनिग्रह पर विचार करने का कोई अर्थ ही नहीं है। हमें इस श्लोक का तात्पर्य लेना चाहिए कि मन को वश में लाने के लिए हमें अपना शारीरिक व मानसिक स्वभाव बदलना होगा अन्यथा हम जिस स्वभाव के वशीभूत वर्तमान में कर्म कर रहे हैं, करते रहेंगे और मन का निग्रह संभव नहीं हो पाएगा। मन में रज व तम की प्रधानता को समाप्त करने के लिए (अर्थात स्वभाव बदलने के लिए) हमें अपने आहार (भोजन व खान-पान भी) को अवश्य बदलना होगा।
हम न भूलें कि
मन को संयम में लाना व्यक्ति-विशेष का व्यक्तिगत कार्य है।
मनोनिग्रह हेतु प्रभावी रूप से अभ्यास करने में समर्थ होने के लिए अनुकूल आभ्यन्तरिक वातावरण की आवश्यकता होती है। जीवन की कतिपय बातों को अपरिहार्य मान कर चलने का सामर्थ्य भी इसी के अंतर्गत आता है।
आंतरिक अनुशासन के बिना मन का संयम में आना संभव नहीं है।
अपने भीतरी स्वभाव में ‘सत्त्व’ की प्रधानता लाना व उसे शुद्ध व उन्नत करना हमारा लक्ष्य होना चाहिए।
प्रतिकूल परिस्थितियों में भी हमें अपने संकल्प (बुद्धि द्वारा गहन चिंतन के उपरांत लिया हुआ) पर दृढ बने रहना चाहिए। मन में तमोगुण की प्रबलता हमें संकल्प से भटकाती है।
Mind – Elements and State
To bring the mind under control it is just not enough to have a strong will power. We should also have knowledge about the nature of the mind. According to Hindu philosophy, there are three components of the mind. It is because of them that the mind does not always remain in the same state. The three components of the mind are ‘sattv‘, ‘raja‘ and ‘tama‘ elements. These elements (qualities) are also the basic ingredients of the entire physical and mental world.
Sattv:- It is the element of balance and stability which produces purity, knowledge and bliss. Sattv element generates qualities like dispassion, forgiveness, generosity etc.
Raja:- It is the element of movement and generates qualities like activity, lust and fickleness. Anger, greed, attachment etc. in a person increase due to the increase of raja guṇ (element).
Tama:- This is the element of inertness and generates laziness, sleepiness, passivity, depression, confusion etc.
The composition of the mind of everyone is determined by the combination of quantities of the above three elements in different proportions. Due to the difference in the ratio of the quantities of these three guṇ we find a person’s behavior strange and different under different circumstances. We often even say – “He seems to have changed his mind.”
There are five states of mind which change automatically from time to time depending on environment, food habits, circumstances, events etc and sometimes by our own thoughts.
kśhipt state:- This is a fickle state of mind. The mind gets scattered everywhere and changes thoughts quickly, it picks up memories randomly. Have to go there, – do this, – speak this, – have to take this from him, – have to give that, – have to buy this, – have to do that work, – have to do this now, – have to eat this, – go there and sleep, – better to talk like this, etc etc. In the kśhipt state, rajoguṇ predominates and lust prevails.
mudh stage:- In this state, the effect of the tama guṇ is more. During this time the person’s mind is not completely healthy. The intellect doesn’t function nicely, one is unable to decide properly what is to be done and what not. It is like as if someone is feeling a little sleepy, laziness is coming. Or if someone is undewr the influence of alcohol When the tama element becomes very strong, a person’s mind develops the tendency to harm others.
vikśhipt state:- In this state, sattv component is dominant, but raja and tama elements continue to disturb the condition. For example, a person’s mind starts to concentrate a little over some subject but due to some other thought that concentration is disturbed.
ekāgr state:- The sattv component has its full effect in this state. Raja and tama elements are calm and do not disturb in any way. Intellect and soul have complete control over the mind. The mind no longer wanders against our will. As it was earlier, that we did not want to raise thoughts, yet they came from somewhere, it does not happen in this state. In this state of concentration, a person, can get subtle, knowledge and feel of the nature, its elements and even soul.
nirudh state:- This is the fifth state of mind. This is even better than the state of concentration. In this state too, the person has complete control over the mind. (nirudh means contained, withheld). In this state the mind becomes stable in its own nature. A person now does not need any support to remain in this state. After the complete cessation of thoughts, the state of samadhi will begin.
According to the Yog Sutra of Sage Patanjali, ‘Yogaśhchittavritnirodhaḥ’ [1:2] means
The complete stoppage of the tendencies of the mind is ‘yog’. Normally the mind remains in the ‘kśhipt‘ or ‘mudh‘ state. As the uncontrolled outbursts of thoughts will decrease by the practice of yog, the state of ‘ vikśhiptl’, ‘ ekāgr‘ and ‘ nirudh‘ will become predominant. The purpose of controlling the mind is to concentrate the mind on any subject.
After knowing about the qualities and states of the mind, it becomes obvious that to concentrate the mind on a subject we have to strengthen the ‘sattv’ qualities and eliminate the ‘raja’ and ‘tama’ qualities. We have to avoid intense interest, dislike, attachment, animosity, malice, immorality, disputes, consumption of intoxicants, etc. We have to make life balanced and orderly. If our food, drink, conversation, sleep, work etc. are in balance then they will be helpful in restraint. Capability has to be created before ambition, otherwise the mind will wander if you are more ambitious than your capability. A proud (righteous) person cannot control the mind. It is not enough to ask for forgiveness for the sin, but to repent for it. One must have a lot of self-confidence (not over-confidence; it is fatal) with a strong will for composure. Shri Krishṇ says :-
udhredātmanātmanām nātmānamvasādyet.
ātmaiv hyātmāno bandhurātmaiv ripurātmanaḥ [Gita, 6:5]
Meaning: One should elevate himself in this worldly-ocean through self-power and save himself by himself rather not let himself fall by being immersed in the worldly-ocean; Because the soul is the friend of the soul and the soul (man himself) is the enemy of the soul.
The mind has to be brought under control through the mind itself. All the difficulties we experience in contemplation are created by our own mind. The mind can be brought under control not by artificial means, but only by suitable practices with patience, perseverance, intelligence and diligence.
To create a conducive environment for composure, a person should take food thoughtfully, because food has an effect on the human mind. In common language, ‘āhār‘ means food. According to Swami Shankarāchāry, the word ‘āhār‘ means not only food but all that is received by the senses. Words (speech, sound, music, ….), smell, touch and sight (image, picture, scene…..) are also the food of a person. Our diet should strengthen the ‘sattv’ component and weaken the ‘raja-‘ and ‘tamo-‘ guṇ. Since the food and drink taken from the mouth is of utmost importance for survival. In the chapter 17 of Gita Sri Krishṇ says that there are three kinds of food which are dear to human beings according to their nature (see: Gita 17: 8 – 10). The substances which are dear to ‘sattvic’, ‘rajasic’ and ‘tamasic’ human beings are also responsible for the sattvic, rajasic and tamasic attitudes of the mind respectively. Human nature is formed by the combination of different quantities of sattv, raja and tama qualities. A person who has an excess of one quality in his nature cannot behave like another person who has an excess of any other quality.
sadrisham cheśhtate swasyāḥ prakriterjyānvānpi
prakritim yānti bhutāni nigraḥ kim kariśhyati [Gita 3:33]
Meaning: All living beings and intelligent human beings behave according to their nature. All living beings act under the control of their own nature, then what the control over (something) in them will be. Here we should not think that the nature of a person is fixed (has become), hence there will be no benefit from restraint. If this is true, then there is no point in controlling the mind. We should take the meaning of this verse from Gita that in order to control the mind, we have to change our physical and mental nature, otherwise we will continue to act under the control of our nature, and the control over the mind will not be possible. To eliminate the predominance of ‘raja’ and ‘tama’ element in the mind (ie, to change the nature), we must change our ‘āhār‘ (food and drink intake also).
Let us not forget that
Bringing the mind under control is the individual task of an individual.
A conducive internal environment is needed to practice composure effectively. The ability to lead life by considering certain things of life as inevitable also comes under this.
Without inner discipline, it is not possible to bring the mind under control.
To bring the primacy of ‘sattv’ in our inner nature and to purify and improve it should be our goal in life.
Even in adverse circumstances, we should remain firm in our resolve (taken by the intellect after deep contemplation). The predominance of ‘tamoguṇ’ in the mind distracts us from our resolution.