रामराज्य / Ram-Rajay
मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम हमारे आदर्श हैं और उनके राज्य-काल को हम सामान्यतः ‘रामराज्य’ कहते हैं। वर्णनों के अनुसार वह समय सुख-समृद्धि व वैभव का समय था अतः हम वैसे ही समय की अभिलाषा रखते हुए ‘रामराज्य’ की इच्छा करते हैं।
श्री राम के उस राज्य ने अपनी व्यवस्थाओं और उनके कार्यान्वयन, अपने नागरिकों के रचनात्मक योगदान से ही उस वैभव को पाया होगा। जहाँ व्यवस्थाओं के कार्यान्वयन हेतु कुशल व सक्षम अधिकारियों एवं कार्यकर्ताओं का होना अनिवार्य है, वहीं जिनके लिए ये व्यवस्थाएँ बनाई गई हैं उनके सहयोग एवं योगदान के बिना व्यवस्थाओं का सफल होना असंभव है।
श्री राम भरत को एक राजा के गुण व उसे क्या कार्य करने चाहिए, किन विषयों का ध्यान रखना चाहिए, के संबंध में बताते हुए कहते हैं:
सदैव धर्म में तत्पर रहने वाले, ब्रह्मवेत्ता, विनय-संपन्न, बहुश्रुत, शास्त्रोक्त धर्मों पर निरन्तर दृष्टि रखने वाले विद्वानों, पितरों, भृत्यों, गुरुजनों, माता-पिता समान आदरणीय वृद्धों, वैद्यों, अस्त्र-शस्त्र के प्रयोग के ज्ञाता, अर्थशास्त्र के पंडितों, आचार्यों का आदर-सम्मान करना चाहिए।
सरल-स्वभाव, हवन विधि के ज्ञाता बुद्धिमान पुरोहितों की नियुक्ति, अग्निहोत्र आदि कार्यों की विधिवत सूचना व भविष्य के प्रयोजनों की जानकारी लेना चाहिए।
राजा को अपने ही समान शूरवीर, शास्त्रों के ज्ञाता, जितेन्द्रिय, कुलीन व बाहरी चेष्टाओं से ही मन की बात समझ लेने वाले सुयोग्य व्यक्तियों को ही अपना मंत्री बनाना चाहिए।
राजा का व्यवहार अपने मंत्रियों, प्रधान अधिकारियों के प्रति ऐसा होना चाहिए कि वे सदैव राजा के प्रति प्रेम ही न रखते हों अपितु एकचित्त हो अपने प्राणों का त्याग करने को भी उद्यत रहते हों।
अच्छी मंत्रणा ही राजा की विजय का मूल कारण है। यह भी तभी सफल होती है जब नीतिशास्त्र निपुण अमात्य (राज्य तंत्र में राजा को परामर्श देने वाले मंत्री) उसे सर्वथा गुप्त रखें।
किसी गूढ़ विषय पर अकेले ही विचार नहीं करना और न ही अधिक लोगों के साथ मंत्रणा करना जिससे गुप्त मंत्रणा फूट कर शत्रु तक न पहुंच जाए
जिस कार्य का साधन बहुत छोटा और फल बहुत बड़ा हो, ऐसे कार्य का निश्चय करने के पश्चात उसे शीघ्र प्रारम्भ करना और कोई विलम्ब नहीं करना चाहिए।
कार्य पूर्ण हो जाने पर अथवा पूर्ण होने के समीप पहुँचने पर ही दूसरे राजाओं को उनका ज्ञान हो। ऐसी सावधानी रखना की दूसरे राजा भावी कार्यक्रम पहले से ही न जान लें अपितु तुमको व तुम्हारे अमात्यों को तर्क, युक्ति आदि से दूसरों के गुप्त विचार सदैव पता लगते रहें।
राजा को सहस्त्रों मूर्खों (चाटुकार) के स्थान पर एक पंडित (विद्वान) को अपने पास रखना चाहिए चूंकि विद्वान व्यक्ति ही अर्थसंकट के समय कल्याण कर सकता है। व्यक्तियों की कार्य-नियुक्ति व दायित्त्व भी उनकी योग्यता व सक्षमता के अनुसार ही होनी चाहिए।
जो घूस न लेते हों, निश्छल हो, बाप-दादों के समय से ही काम करते आ रहे हों तथा बहार-भीतर से पवित्र व श्रेष्ठ हों, ऐसे अमात्यों को ही राजा उत्तम कार्यों में नियुक्त करे।
राजा सदैव ध्यान दे की प्रजा कहीं कठोर दंड से उद्विग्न (परेशान) होकर प्रशासन का तिरस्कार तो नहीं करती, उसी प्रकार कहीं प्रजा कठोरतापूर्वक अधिक कर लेने के कारण राजा का अनादर तो नहीं करती।
राजा को सदा संतुष्ट रहने वाले, शूरवीर, धैर्यवान, बुद्धिमान, पवित्र, कुलीन, अपने में अनुराग रखने वाले, रणकर्म-दक्ष व्यक्ति को उसके शौर्य की परीक्षा के पश्चात ही सेनापति बनाना चाहिए।
सैनिकों का समुचित वेतन व भत्ता उन्हें समय पर अविलम्ब मिलना चाहिए अन्यथा सैनिक स्वामी में निष्ठा खो देते है और कुपित हो जाते हैं।
राजदूत के पद पर नियुक्त व्यक्ति अपने ही देश का निवासी, विद्वान, कुशल, प्रतिभाशाली, जैसा कहा जाए वैसा ही कहने वाला व सद्विवेक संपन्न होना चाहिए।
राज्य की बाह्य व आंतरिक सुरक्षा
राजा को कदाचित नास्तिक ब्राह्मणों का संग नहीं करना चाहिए क्योंकि वे बुद्धि को परमार्थ (उत्तम, उत्कृष्ट) की ओर से विचलित करने में कुशल होते है। वे वास्तव में अज्ञानी होते हुए भी स्वयं को बहुत बड़ा पंडित मानते हैं। उनका ज्ञान वेद-विरुद्ध होता है और वे प्रमाणभूत प्रधान धर्मशास्त्रों के होते हुए भी तार्किक बुद्धि का आश्रय लेकर व्यर्थ बकवाद किया करते हैं।
राजा को चाहिए कि उसके राज्य की सीमाएं सुदृढ़ हो व नगरों में राजभवन, देवस्थान, तालाब आदि उनकी शोभा बढ़ाते हों। नगरों में प्रत्येक वर्ण (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य व शूद्र ) के व्यक्ति निवास करते हों व सामाजिक उत्सवों के होने से नगर की शोभा-सम्पन्नता सदा दिखाई देती रहे।
राजा को ऐसी व्यवस्था करनी चाहिए कि कृषि के लिए सदैव समर्थ पशुओं की अधिकता हो व वर्षा के जल पर निर्भर नहीं रहना पड़े (नदियों व जलाशयों के जल से सिचांई संभव हो)।
कृषि व व्यापार में संलग्न रहने से राज्य सुखी व उन्नतिशील रहता है अतः राजा को चाहिए कि वह वैश्यों के अनिष्ट- निवारण व इष्टों की पूर्ति की ओर सदैव ध्यान दे। सभी नागरिक धर्मानुसार अपना जीवन-यापन कर पाएँ व सभी का भली प्रकार भरण-पोषण हो।
राजा को प्रतिदिन पूर्वाह्णकाल में नगर की प्रधान सड़कों पर नगरवासियों को दर्शन देना चाहिए। कर्मचारियों से मध्यम स्थिति का अवलम्बन (कर्मचारी न तो निड़र हो जब भी वे चाहें सामने आ जावें और न ही भयवश सदा दूर रहें) ही अर्थसिद्धि हेतु उचित है।
राजा के दुर्ग धन-धान्य, अस्त्र-शस्त्र, जल, यंत्र, शिल्पी तथा सैनिकों से भरे-पूरे होने चाहिएँ। राज्य की आय अधिक व व्यय कम होना चाहिए तथा राजकोष का धन कदाचित अपात्रों को नहीं मिलना चाहिए।
राजा ऐसी न्यायव्यवस्था सुनिश्चित करे कि ऐसा कभी भी संभव न हो कि कोई किसी श्रेष्ठ, निर्दोष व्यक्ति पर दोष लगा दे और लोभ दे कर शास्त्रज्ञाताओं से उस विषय में विचार कराए बिना ही व्यक्ति को दंड दिया जा सके।
जो व्यक्ति प्रमाण होने से चोर सिद्ध हो गया हो उसे शासन धन के लालच में कदाचित न छोड़े।
धनी व निर्धन के विवाद में राज्य के न्यायालय धन आदि का लोभ नहीं करें और विषय पर निष्पक्ष विचार करें।
राजा सुदृढ़ करे कि अर्थ के द्वारा धर्म को अथवा धर्म के द्वारा अर्थ को हानि न पहुंचे। आसक्ति एवं लोभरुप कार्य के द्वारा भी धर्म और अर्थ दोनों में कोई बाधा नहीं आनी चाहिए।
बुद्धि के द्वारा इन्द्रियों पर विजय पाना, दशवर्ग(१), पञ्चवर्ग(२), चतुर्वर्ग(३), सप्तवर्ग(४), अष्टवर्ग(५), त्रिवर्ग(६), तीन विद्या(७), छ: गुण(८), दैवी(९), व मानुषी बाधाएँ राजा के नीतिपूर्ण कार्य(१०), विंशतिवर्ग(११), प्रकृतिमण्डल(१२), तथा शत्रु पर आक्रमण के समय व्यूहरचना की संधि एवं विग्रह का यथार्थ रूप से ध्यान रखना व त्यागने योग्य दोषों को त्याग करना राजा के लिए उचित है।
(१) काम से उत्पन्न होने वाले दस दोष दशवर्ग हैं:- आखेट, जुआ, दिन में सोना, दूसरों की निंदा, स्त्री में आसक्त होना, मद्यपान, व्यर्थ में नाचना, -गाना, -बजाना व -घूमना।
(२) जलदुर्ग, पर्वतदुर्ग, वृक्षदुर्ग, ईरिणदुर्ग और धन्वदुर्ग – पाँच प्रकार के दुर्ग पंचवर्ग हैं। जहाँ किसी भी प्रकार की खेती नही होती उस प्रदेश को ईरिण कहते हैं व बालू से भरी मरुभूमि धन्व कहलाती है। इन सभी दुर्गों का यथासमय उपयोग करने से राजा अपनी आत्मरक्षा कर सकता है।
(३) साम, दान (दाम), भेद और दंड – ये चार प्रकार की नीति चतुर्वर्ग है।
(४) राजा, मंत्री, राष्ट्र, किला, कोष (खजाना), सेना व मित्रवर्ग – ये उपकार करने वाले राज्य के सात अंग सप्तवर्ग हैं।
(५) चुगली, साहस, द्रोह, ईर्ष्या, दोष-दर्शन, अर्थ-दूषण, वाणी व दंड की कठोरता – ये क्रोध से उत्पन्न होने वाले आठ दोष अष्टवर्ग हैं
(६) धर्म, अर्थ और काम को त्रिवर्ग कहते हैं।
(७) त्रयी, वार्ता और दंडनीति – तीन विद्याएँ हैं। प्रथम तीन वेदों (ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद) के दर्शन एवं कर्मकांड के सिद्धातों की विद्या त्रयी है। कृषि, गोरक्षा, पशु-पालन आदि वार्ता के अंतर्गत है व नीतिशास्त्र को यहां दंडनीति बताया गया है।
(८) संधि, विग्रह, यान, आसन, द्वैधीभाव और समाश्रय – छ: गुण हैं। इनमें शत्रु से मेल रखना संधि, उससे लड़ाई छेड़ना विग्रह, आक्रमण करना यान, अवसर की प्रतीक्षा में बैठे रहना आसन, दो-रंगी नीति का प्रयोग द्वैधीभाव और अपने से बलवान राजा की शरण लेना समाश्रय कहलाता है।
(९) आग लगना, बाढ़ आना, भूकंप, बीमारी, महामारी व अकाल ये दैवी बाधाएँ हैं। राज्य के अधिकारीयों, चोरों, शत्रुओं और राजा के प्रिय व्यक्तियों से तथा स्वयं राजा के लोभ से जो भय होता है, वह मानवी बाधा है।
(१०) राजा के सेवकों में से जिन्हें वेतन न मिला हो, जो अपमानित किए गए हों, जो अपने स्वामी के व्यवहार से कुपित हों अथवा जिन्हें भय दिखा कर डराया गया हो, ऐसे व्यक्तियों को मनचाही वस्तु दे कर फोड़ लेना राजा का नीतिपूर्ण कार्य है।
(११) बालक, वृद्ध, दीर्घकाल से रोगी, जातिच्युत, डरपोक, भीरु मनुष्यों को साथ रखने वाला, लोभी मनुष्यों को आश्रय देने वाला, मंत्री, सेनापति आदि अन्य अधिकारीयों को असंतुष्ट रखने वाला, विषयों में आसक्त, चंचल-चित्त मनुष्यों से परामर्श लेने वाला, देवता और ब्राह्मणों (विद्वानों) की निंदा करने वाला, दैव (भाग्य) का मारा हुआ, भाग्य के आश्रय पुरुषार्थ न करने वाला, दुर्भिक्ष (ऐसा समय जिसमें अन्न बहुत ही कठिनता से मिले) से पीड़ित, नारहित, स्वदेश में न रहने वाला, अधिक शत्रुओं वाला, क्रूर दशा से युक्त व सत्यधर्म से रहित – ये बीस प्रकार के राजा संधि के योग्य नही माने गए हैं। इन्हें ही विंशतिवर्ग कहा है।
(१२) राज्य के स्वामी, अमात्य, सुहृद, कोष, राष्ट्र, दुर्ग और सेना – राज्य के इन सात अंगों को प्रकृतिमण्डल कहते है।
हम न भूलें कि
सुख-समृद्धि किसी को भाग्य से प्राप्त हो सकते हैं परन्तु वे सदा बने रहें इसके लिए निरंतर अथक परिश्रम आवश्यक है। भाग्य अवसर ही प्रदान करा सकता है परन्तु किसी अवसर को ‘चिर’ नहीं बना सकता।
किसी भी कार्य की अथवा व्यवस्था की सफलता उसमे निहित नीति व कार्यान्वयन पर निर्भर करती है।
अयोग्य, अक्षम कार्यकर्त्ता होने से सदैव दोषपूर्ण कार्यान्वयन का भय बना रहता है और अच्छी नीति भी विफल हो जाती है।
योग्य, सक्षम व उत्तरदायी कार्यकर्त्ता ही कार्य अथवा नीति का उत्तम कार्यान्वयन कर सकते हैं।
समाज की समृद्धि उसके प्रत्येक अंग के समृद्ध होने पर ही है। हिन्दू संस्कृति ‘सभी के कल्याण में अपना कल्याण’ मानती है।
यह समाज मेरा कुटुंब है और मैं इसका एक अंग हूँ, यह भावना हिन्दुओं के ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’के विचार में भी निहित है।
Ram-Rajay
Maryada Purushottam Shri Ram is our ideal and we generally call his reign as ‘Ram-Rajay’. According to the descriptions, that period was the time of happiness, prosperity and splendor and thus we desire the same for us.
Shri Ram’s state would have achieved that splendor only through the constructive contribution of its citizens, through its system and policies and their implementation. It is essential to have efficient and competent officers and workers for the implementation of the systems. It is impossible for such systems to be successful without the cooperation and contribution from those, for whom these arrangements are made.
Shri Ram describing the qualities of a king, his responsibilities and how he should rule, says to his brother Bharat:
Those who always follow ‘Dharm’, are ‘Brahmveta’ (extremely knowledgeable), modest, well experienced, scholars who keep a constant watch on policies as described in scriptures, elders, brothers, teachers, parents, doctors, masters of weaponry, pundits of economics should be respected.
Appoint humble, wise priests having knowledge of different methods of ‘Havan’, should inform himself about their different works, future purposes and arrangements.
The king should appoint brave, strong, clever, knowledge (of the scriptures) and noble people as his ministers.
The relationship of the king with his ministers and chief officers should be such that they would not only always love him but would also be ready to sacrifice their lives for him.
Wise consultation is the root of a king’s victory. This can only be successful when the ‘Amaty’ (ministers advising the king in the state policies) maintain secrecy.
Do not contemplate on a subject alone or consult with many, so that the secret consultation does not leak and reach the enemy.
A task, achievable with little effort but yielding big results, once decided, must be started without any delay.
Only when the task is completed or is near completion, should others come to know about it. The king should take care to keep the knowledge about future programs confidential whereas the king and his amatys should be clever to know even the secret thoughts of others through discussions, tactic etc.
The king should keep one pandit (scholar) in place of thousand fools (sycophants) because only a learned person can bring welfare in times of economic crisis. The appointment and responsibilities of his staff should also be according to their knowledge and capabilities.
Amatys who do not accept bribe, are immaculate, pure from heart and have been serving since the time of their forefathers should be appointed by the king for responsible tasks.
The king should always pay attention that the subjects do not despise the administration due to harsh punishments, and they also do not disrespect the king because of excessive taxes.
A person who is always content, brave, patient, intelligent, pious, noble and is self-confident, should be made a military leader only after testing his bravery.
Soldiers should get proper salary and allowances on time without delay, lest they lose allegiance to the master and become rebellious.
The person appointed as ambassador should be a resident of his own country, scholar, skilled, talented, and intellectual and should convey as he is told.
About the external and internal security of the state
The king should not associate with the atheist Brahmins because they are skillful in diverting the intellect from achieving a good task. Despite being ignorant, they consider themselves to be great scholars. Their knowledge is against the Veds, and despite having authentic scriptures, they make futile debates by taking help of logical intellect.
The king should strengthen the boundaries of his kingdom and build official buildings, temples, pond etc. to make cities beautiful. People of every ‘varn’ (Brahmin, Kshatriy, Vaishy and Shudr) should reside in the cities. Regular social events and festivals must reflect the beauty and glory of the city.
The king should make arrangements to ensure that there is always an abundance of healthy animals for agriculture. Irrigation should be possible with water from rivers and reservoirs so that people do not have to depend on rain water only.
The state remains happy and prosperous when engaged in agriculture and business, hence the king should always pay attention to the requirements of ‘Vaishys’. All citizens should be able to lead their life according to ‘Dharm’ and should be fed well.
Every morning the king should give audience to his people on the main streets of the city. His middle line position towards his staff (neither should they be fearless to approach him anywhere anytime, nor should they stay away from him due to fear) is appropriate for economic success.
The forts of the king should be full of wealth, food, weapons, water, instruments, craftsmen and soldiers. The income of the state should be more than the expenditure. The money from treasury should never be given to the ineligible.
The king should ensure a judicial system that it should be impossible to blame or punish a capable, innocent person by offering benefits to someone without consulting the scholars about the matter.
A person who has been convicted as a thief by presenting evidences, should not be pardoned in return of money.
In a dispute between rich and poor, the courts of the state should not covet money etc. and consider the matter impartially.
The king should ensure that ‘Dharm’ should not be harmed by economy or economy through Dharm. There should not be any obstacle for either ‘Dharm’ or economy, by any act accomplished with attachment or greed.
Victory over the senses by the intellect, Dashvarg(1), Panchvarg(2), Chaturvarg(3), Saptavarg(4), Ashtavarg(5), Trivarg(6), Three Vidya(7), Six Guns(8), Natural and Human Obstacles(9), King’s ethical actions(10), Vinshativarg(11), Prakritimandal(12), and the skill to make army formations during attack are to be taken care of by the king. He should renounce the renounceable faults.
(1) The ten faults (Dashvarg) arising out of lust are: hunting, gambling, sleeping during the day, condemning others, desires of women, drinking, dancing-, singing-, playing- and wandering without reason.
(2) Water-fort, Hill-fort, Forest-fort, Irini-fort and Dhanv-fort – are 5 types of fortifications of Panchvarg. Where there is no cultivation of any kind, that region is called ‘Irini’ and the
desert filled with sand is called ‘Dhanv’. By utilizing all these forts in due time, the king can protect himself.
(3) Material, Price, Punishment and Division – these four types of policies are Chaturvarg.
(4) King, minister, nation, fort, treasury, army and friend – these 7 who favor the state are Saptavarg.
(5) Swearing, courage, treason, jealousy, fault-finding, possessing illicit-wealth, harshness of speech and punishment – these eight vices arising out of anger are Ashtavarg.
(6) ‘Dharm’ (duty), ‘Arth’ (economy) and ‘Kām’ (lust) are called Trivarg.
(7) There are 3 vidyas – Trilogy, Talks and Punishment. The philosophy and rituals of the first three Veds (Rigved, Yajurved and Samved) are Trilogy. Agriculture, cow protection, animal husbandry etc. are under Talks and ethics have been described here as
Punishment.
(8) ‘Sandhi’, ‘Vigrah’, ‘Yān’, ‘āsan’, ‘Dvaidhibhāv’ and ‘Samāsray’ – are Six Gun (qualities). Sandhi: keeping peace with the enemy, Vigrah: fighting with enemy, Yān: attacking, āsan: waiting for the opportunity, Dvaidhibhāv :the use of dual policy and taking refuge under a king stronger than himself is called Samāsray.
(9) Fire, flood, earthquake, disease, epidemic and famine are the natural obstacles. The fear of the officials of the state, thieves, enemies and the people who are dear to the
king and the greed of the king himself are human hindrance.
(10) The unpaid staff of another king, those who have been humiliated, those who are enraged by the behavior of their master or those who have been intimidated- alliancing with such persons by fulfilling their needs is considered as ethical action of a king.
(11) Child, old, ailing, estranged, timid, accompanied by weak human beings, gives shelter to greedy men, dissatisfied with other officials like ministers, generals, etc., one who condemns brahmins (scholars), slain by luck, not making effort but depending on fate, short of food and grain, without army, not living in the homeland, having many enemies, under harsh conditions and devoid of truth – are twenty types of kings who are not considered worthy for a treaty. These are called Vinshtivarg.
(12) Ruler of the state, ‘Amaty’, Kindhearted people, Treasury, Nation, Fort and Army – these seven parts of the state are called Prakriti Mandal.
Let us not forget that
One can get happiness and prosperity by luck, but for these to remain one has to work relentlessly. Luck can only provide an opportunity but cannot make an opportunity eternal’.
The success of any work or system depends on the policy and implementation behind it.
If workers are incompetent, then the fear of a faulty implementation and failure of a good policy will always remain.
Only qualified, capable and responsible workers can do the best implementation of any work or policy.
A society is prosperous only when every section of it prospers. Hindu culture believes in ‘the welfare of all is welfare of self’.
“This society is my family and I am a part of it”, is the feeling rooted in the ideal of ‘Vasudhaiv Kutumbakam‘ of Hindus