वीर बंदा बैरागी – भाग (२/२)
Veer Banda Bairagi – part (2/2)
जहां एक ओर सत्तालोलुप मुस्लिम शासक अपनी भीतरी कलह में उलझे पड़े थे तो वहीं दूसरी ओर वीर बंदा बैरागी ने सिख राज्य की स्थापना कर दी थी व सधौरा और लोहगढ़ पर पुन: अपना ध्वज लहरा दिया था। राज्य का दायित्त्व अन्य लोगों को सौंप कर १७१३ में बंदा बैरागी जम्मू के रियासी (चेनाब नदी पर, कटरा के उत्तर-पश्चिम में लगभग २५ कि. मी. दूर) में तपस्या के लिए चले गए। लगभग ३०० वर्ष पूर्व इस स्थान पर डेरा बाबा बंदा बहादुर का निर्माण किया गया। यहां के ऐतिहासिक गुरुद्वारा में बंदा बैरागी की समाधि है। इस गुरुद्वारे में बंदा बैरागी द्वारा प्रयोग किए गए हथियारों को भी प्रदर्शित किया गया है। नए मुग़ल सम्राट फ़र्रुख़ सियर के नेतृत्व में हिन्दुओं व सिखों पर अत्याचार कम नहीं हुए। गुरदासपुर क्षेत्र में मुगलों द्वारा असहाय जनता को विशेष रूप से सताया जा रहा था। बंदा बैरागी को अपनी तपस्या त्याग कर पुन: शस्त्र धारण करने पड़े और उन्होंने गुरदासपुर जिले के कलानौर और बटाला को मुगलों से मुक्त कराया।
अथक प्रयासों के पश्चात भी मुगल बंदा बैरागी को मारने अथवा बंदी बनाने में सफल नहीं हो पा रहे थे। फर्रुख सियर समझ गया था कि बैरागी पर शक्ति से काबू पाना असंभव है अत: उसने छल का सहारा लिया। दिल्ली में गुरु गोविंद सिंह जी की दो पत्नियाँ रहती थीं, सुन्दरी (विवाह ४ अप्रैल १६८४) व साहिब (विवाह १५ अप्रैल १७००)। उसने दोनों से अनुरोध किया कि वे बंदा बैरागी को समझाए कि वह मुगलों के विरुद्ध अराजकता और युद्ध का मार्ग छोड़ दे। मुगल सिखों को सेना में भर्ती कर लेंगे व जागीर भी देंगे। बैरागी ने गुरु विधवाओं के पत्र के उत्तर में लिखा कि वह गुरु गोविंद सिंह जी को दिए अपने वचन से पीछे नहीं हट सकते। तब तक बंदा बैरागी एकल राजनीतिक नेता के रूप में स्थापित हो चुके थे। उनके नेतृत्व ने खालसा के भीतर तनाव पैदा कर दिया था। माता सुंदरी के दत्तक पुत्र अजीत सिंह (मुगलों ने इन्हें सम्मानित भी किया था) और दिलबर सिंह (गुरु गोविन्द सिंह जी के चचेरे भाई) पंथ पर नियंत्रण करने का प्रयास किया करते थे। किसी भी समाज में ईर्ष्यालुओं की कमी नहीं होती।
यह समय था जब गुरु विधवा माता सुंदरी के नेतृत्व में एक वर्ग (तत्त खालसा) बंदा बैरागी का विरोध करता था क्योंकि उनके अनुसार बंदा बैरागी ने गुरु गोविंद सिंह जी द्वारा आरम्भ की गई खालसा परंपरा में बदलाव किए थे:
खालसा के लिए शाकाहारी होना अनिवार्य था
पारंपरिक खालसा परिधान को नीले रंग के स्थान पर गेरुआ वस्त्रों से बदलना
“वाहेगुरु जी का खालसा, वाहेगुरु जी की फतेह” के पारंपरिक खालसा उद्घोष को “फतेह दर्शन, फतेह धर्म” के साथ बदलना
तत्त खालसा वर्ग बंदा बैरागी पर आरोप भी लगता था कि वह सिख अनुयायियों से स्वयं को गुरु भी कहलवाता है। स्वयं को गुरु कहलवाना गुरु गोबिंद सिंह जी द्वारा उनके निधन से पहले ‘गुरु मानेयो ग्रंथ’ के सिद्धांत के सीधे विरोधाभास में है।
१८. शताब्दी के इतिहासकार केसर सिंह छिब्बर के अनुसार बंदा बैरागी की मृत्यु के पश्चात सिख मुख्य तीर्थस्थलों पर नियंत्रण के प्रयास में बंदा के अनुयायियों व तत्त खालसा के लोगों में सशस्त्र विवाद छिड़ गया। (वैन स्पैरोज़ बिकेम हॉक्स, लेखक: पूर्णिमा धवन, ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, २०११, अध्याय ३, पृष्ठ ५७ – ५८)
तत्त खालसा के ऐसे लोगों ने बंदा बैरागी के उत्तर को माता सुंदरी के कथन की अवहेलना, उनका अपमान और गुरु-द्रोह बताया। माता सुंदरी व सिखों के एक वर्ग के बंदा बैरागी के विरोध व बहिष्कार के कारण मुगलों विरुद्ध उनकी शक्ति में कमी आई। मार्च १७१५ में लाहौर के मुगल प्रशासक अब्द अल-समद खान के लगभग १,००,००० सैनिकों ने बंदा बैरागी की सेना को गुरदासपुर के किले में प्रवेश करने से रोक दिया। बैरागी ने अपने १२५० सैनिकों व कुछ घोड़ों के साथ गुरदासपुर के पश्चिम में गुरदास नंगल गांव में दूनी चंद जी की हवेली में शरण ली। अब्द अल-समद खान ने ८ माह तक हवेली की घेराबंदी की। अंतत: ७ दिसंबर १७१५ को मुगल सेना हवेली में प्रवेश कर पाई। लगभग ३०० सैनिकों को मार दिया गया और बंदा बैरागी व अन्य को बंदी बना लिया गया। इतिहास की पृष्ठभूमि में बंदा बैरागी की अपने कुछ सैनिकों के साथ विशाल मुगल सेना को घेराबंदी में ८ माह तक चुनौती देना अतुलनीय एवं उदाहरणहीन है।
फ़रवरी १७१६ में बंदा बैरागी को एक लोहे के पिंजरे में डाल कर ७८० सिख कैदियों के साथ एक जुलूस में दिल्ली लाया गया। इस जुलूस में २,००० सिख नरमुंडों को भालों पर लटका कर प्रदर्शित किया गया। हिन्दू समाज को आतंकित करने के लिए सिख व हिन्दू नरमुंडों से लदी ७०० गाड़ियां के साथ इस जुलूस ने दिल्ली के लाल किले में प्रवेश किया। इन कैदियों पर इस्लाम स्वीकार करने का दबाव डाला जाता था। सभी कैदियों ने इस्लाम स्वीकार करने के स्थान पर मृत्यु का वरण उचित माना। ५ मार्च से १२ मार्च तक प्रतिदिन १०० सिख कैदियों को किले से बाहर लाया जाता और सार्वजनिक रूप से उनकी हत्या कर दी जाती थी। बंदा बैरागी को शारीरिक व मानसिक यातनाएँ दी जाती रहीं। उन्हें अपने ४ वर्ष के बेटे अजय का वध करने का दबाव बनाया गया। उनके ऐसा न करने पर जल्लाद ने बैरागी के बच्चे के दो टुकड़े किए और उसका हृदय बैरागी के मूँह में ठूँसा गया। ऐसी यातना भी बैरागी का संकल्प तोड़ नहीं पाई। इसके विपरीत मुग़ल बादशाह इन यातनाओं के निरर्थक होने से स्वयं को पराजित व अपमानित अनुभव करता था। विद्वेष से भरे बादशाह ने गर्म चिमटों से बंदा बैरागी के शरीर से मांस नोचने का आदेश दिया। उनकी आँखे निकाली गईं। बंदा बैरागी की अडिग आस्था व उनके संकल्प के समक्ष स्वयं को असहाय, असक्षम पाते हुए ९ जून १७१६ को मुग़ल बादशाह फर्रुख सियर ने उनके अंगों को कटवा कर उन्हें हाथी से कुचलवा दिया। [फारसी स्रोत (लिंक का पृष्ठ १५४) के अनुसार बंदा बैरागी का पुत्र ३ वर्ष का था। बैरागी को दिल्ली के महरौली क्षेत्र में ख्वाजा कुतुबुद्दीन के मकबरे के समीप २० जून १७१६ को मारा गया।]
बंदा बैरागी वीरता की पराकाष्ठा थे। वे मातृ-भूमि के सपूत एक राष्ट्र-नायक थे। भारत के प्रसिद्ध साहित्यकारों गुरुदेव रबिंद्र नाथ ठाकुर, स्वतंत्रता सेनानी वीर सावरकर तथा कवि मैथिलीशरण गुप्त ने अपनी कविताओं द्वारा उनको भरपूर सम्मान और श्रद्धांजलि दी है। रबिंद्र नाथ ठाकुर जी ने बांग्ला में लिखी कविता, ‘बंदी बीर’ में बंदा बैरागी की कुर्बानी को बहुत ही मार्मिक ढंग से प्रस्तुत किया है। वीर सावरकर की मराठी में लिखी कविता ‘अमर मृत’ की विषय वस्तु भी गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर की कविता जैसी ही है जिसमें उन्होंने इस महायोद्धा की वीरता देशभक्ति और धर्म के प्रति निष्ठा का चित्रण किया है। राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने अपनी कविता ‘वीर वैरागी’ में माधव दास बैरागी और गुरु गोविंद सिंह जी की वार्ता का अपनी कविता में समावेश किया है। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के महान क्रान्तिकारी ‘भाई परमानन्द जी’, जिनसे सरदार भगत सिंह, सुखदेव, पंडित राम प्रसाद ‘बिस्मिल’, करतार सिंह सराबा जैसे असंख्य राष्ट्रभक्त युवक प्रेरित हुए, ने “वीर बन्दा वैरागी” पुस्तक की रचना करी।
हम न भूलें कि
गुरू गोविंद सिंह जी की पत्नियों के द्वेष और द्रोह के कारण जो नुकसान हुआ वो जनता ने देखा। वीर बंदा बैरागी के मरणोपरांत मुग़ल बादशाह ने खालसाओं से जो सन्धियाँ की थीं उनको तोड़ दिया और चुन चुन कर सिक्खों को मरवाने लगा।
जब किसी के मन में मज़हब को लेकर अलगाववाद आ जाए तो वह द्वेष में अँधा हो जाता है और मज़हबी संकीर्णता के दायरे में बँधकर सब कुछ भूलकर जाति, समाज व राज्य के लिए खतरा बन जाता है।
हमारे गौरवमई इतिहास को मुसलमानों व अंग्रेज शासकों द्वारा दबा दिया गया और आतंक व आक्रांताओं का इतिहास महान बताया गया जिस कारण हम अपनी बलिदानी हुतात्माओं को भूलते जा रहे हैं।
वीर बंदा बैरागी ने शारीरिक व मानसिक यातनाएँ सहन की परन्तु न ही इस्लाम स्वीकार किया और न ही अपनी आस्था, संकल्प व कर्तव्य-परायणता से डिगे।
Veer Banda Bairagi – part (2/2)
While on the one side the power greedy Muslim rulers were embroiled in their internal strife, on the other side the brave Banda Bairagi had established the Sikh kingdom and hoisted his flag again at Sadhaura and Lohgarh.
After delegating the responsibilities of the state to others, in 1713, the Banda Bairagi went to Reasi in Jammu (on the Chenab river, about 25 km north-west of Katra) for penance. About 300 years ago Dera Baba Banda Bahadur was built at this place. The samadhi of Banda Vairagi is in this historical Gurdwara and weapons used by Banda Bairagi are also displayed here.
The atrocities on Hindus and Sikhs did not subside under the leadership of the new Mughal emperor Farrukh Siyar. In the Gurdaspur area, the helpless people were being particularly persecuted by the Mughals. Banda Bairagi had to relinquish his penance and take up arms again. He freed Kalanaur and Batala of Gurdaspur district from the Mughals.
Even after tireless efforts, the Mughals were not able to kill Banda Bairagi or take him captive. Farrukh Siyar understood that it is impossible to get hold of Banda Bairagi using power, and resorted to deceit. The two wives of Guru Gobind Singh ji, Sundari (marriage 4th April 1684) and Sahib (marriage 15th April 1700) were living in Delhi at that time. He requested both to convince the Banda Bairagi to give up the path of anarchy and war against the Mughals. The Mughals would recruit Sikhs into their army and would also give them jagirs (territory to administer). The Banda Bairagi wrote in response to the letter from the Guru’s widows that he could not go back on his promise to Guru Gobind Singh Ji and accept Muslim dominance. By that time Banda Bairagi was established as a single political leader. His leadership created tension within the Khalsa. Mata Sundari’s adopted sons Ajit Singh (was also honoured by Mughals) and Dilbar Singh (Guru Gobind Singh’s cousin) used to make attempts to control the cult. There is no dearth of envious people in any society.
It was at this time that a section (Tatt Khalsa) led by Guru’s widow Mata Sundari opposed the Banda Bairagi. According to them the Banda Bairagi made changes in the Khalsa tradition started by Guru Gobind Singh Ji:
It was mandatory for Khalsa to be vegetarian.
Changing the traditional Khalsa dress colour from blue to saffron
Replacing the traditional Khalsa announcement of “Waheguru Ji Ka Khalsa, Waheguru Ji Ki Fateh” with “Fateh Darshan, Fateh Dharm”
There was also an allegation from the Tatt Khalsa group that Banda Bairagi asks Sikh followers to call him Guru. Calling any person Guru is in direct contradiction to the doctrine ‘Guru Maneyo Granth’ of Guru Gobind Singh ji given by him before his death.
Accordig to the 18th century historian Kesar Singh Chhibber, after the death of Banda Bairagi, an armed dispute broke out between the followers of Banda and the people of Tatt Khalsa in an attempt to control the Sikh main shrines. (When Sparrows Became Hawks by Purnima Dhavan; Oxford University Press, 2011; Chapter 3, Page 57 – 58)
Such people of Tatt Khalsa group called the reply of the Banda Bairagi as disregard to the statement of Mata Sundari, her insult and treason against Sikh-Gurus. Due to the opposition and boycott of Banda Bairagi by Mata Sundari and a section of Sikhs, Banda became weak against the Mughals. In March 1715, about 100,000 soldiers of Abd al-Samad Khan, the Mughal administrator of Lahore, stopped Banda Bairagi’s army from entering the Gurdaspur fort. Banda Bairagi along with his 1250 soldiers and some horses, took shelter in the mansion of Dooni Chand ji in Gurdas Nangal village, located west of Gurdaspur. Abd al-Samad Khan laid siege on the mansion for 8 months. The Mughal army was finally able to enter the mansion on 7th December 1715. About 300 soldiers were killed and Banda Bairagi along with others was taken captive. In history, the challenge of Banda Bairagi along with some of his soldiers against the huge Mughal army siege for 8 months is incomparable and exemplary.
In February 1716, Banda Bairagi was put in an iron cage and along with 780 Sikh prisoners was brought to Delhi in a procession. In this procession, 2,000 Sikh heads were put on spears and displayed. In order to terrorize the Hindu society, this procession entered the Red Fort of Delhi with 700 carts laden with Sikh and Hindu heads. These prisoners were pressurized to accept Islam. All the prisoners embraced death instead of accepting Islam. Every day from March 5 to March 12, 100 Sikh prisoners were brought out of the Red fort and publicly massacred. The Banda Bairagi was subjected to physical and mental torture. He was forced to kill his 4-year-old son Ajay. When he did not do so, the executioner cut the Bairagi’s child into two pieces, took out child’s heart and pushed it in the Bairagi’s mouth. Even such torture could not break Bairagi’s determination. On the contrary, the Mughal emperor felt himself defeated and humiliated because of the meaninglessness of these tortures. The envious king ordered to scrape the flesh from the body of Banda Bairagi using hot tongs. Bairagi’s eyes were pulled out. The Mughal emperor Farrukh Siyar found himself helpless and incompetent against the unshakable faith and determination of Banda Bairagi. On 9th June 1716 Farrukh Siyar ordered to cut off Banda’s limbs and crush him with an elephant. [According to a Persian source (page 154 of the link), Banda Bairagi’s son was 3 years old. Bairagi was killed on 20th June 1716 near the tomb of Khwaja Qutubuddin in the Mehrauli area of Delhi.]
Banda Bairagi was the pinnacle of bravery. He was a national hero, the son of the mother-land. Famous litterateurs of India, Gurudev Rabindra Nath Thakur (in Bengali it is not ‘Tagore’ but ‘Thakur’), freedom fighter Veer Savarkar and poet Maithilisharan Gupt have given Bairagi lot of respect and tribute through their poems. Rabindra Nath Thakur ji has presented the sacrifice of Banda Bairagi in a very touching manner in the poem ‘Bandi Bir’ written in Bengali. The subject matter of Veer Savarkar’s poem ‘Amar Mrit’ written in Marathi is also similar to that of Gurudev Rabindranath Thakur, in which he has depicted the heroic patriotism and devotion to religion of this great warrior. National poet Maithilisharan Gupt has put the dialogue of Madhav Das Bairagi and Guru Gobind Singh ji in his poem ‘Veer Vairagi’. The great revolutionary of Indian freedom struggle ‘Bhai Parmanand ji’, who inspired innumerable patriotic youths like Sardar Bhagat Singh, Sukhdev, Pandit Ram Prasad ‘Bismil’, Kartar Singh Saraba, has written the book “Veer Banda Vairagi”.
Let us not forget that
The public saw the damage caused by the hatred and treason of the wives of Guru Gobind Singh ji. After the death of Veer Banda Bairagi, the Mughal emperor broke the treaties made with the Khalsa and started killing the Sikhs.
When separatism comes in one’s mind on the basis of religion, then one forgets everything, gets bound by religious narrow-mindedness and blinded in hatred becomes a threat to caste, society and state.
Our glorious history was suppressed by the Muslims and British rulers and the period of terror and atrocities of invaders was said to be great, due to which we are forgetting our sacrificed souls.
The heroic Banda Bairagi endured physical and mental tortures but neither accepted Islam nor deviated from his faith, determination and devotion to duty.