वेदों का महत्त्व-वेद आर्यजाति के सर्वस्व हैं और मानवमात्र के लिए प्रकाशस्तम्भ एवं शक्तिस्रोत हैं। वेदों का ज्ञान ही मानव जाति को सुख और शान्ति दे सकता है। वही अज्ञान, निराशा, अनाचार और आधि-व्याधि से मुक्त करके जीवन का मार्ग प्रशस्त कर सकता है।
वेद और आयुर्वेद-मनु का कथन है कि ‘सर्वज्ञानमयो हि सः’ (मनु० २.७) वेदों में सभी विद्याओं का भंडार है। वेदों में आयुर्वेद-विषयक सैकड़ों मन्त्र हैं, जिनमें विविध रोगों की चिकित्सा वर्णित है। अथर्ववेद को भेषज अर्थात् भिषग्वेद के नाम से पुकारा गया है। चरक और सुश्रुत में आयुर्वेद को अथर्ववेद का उपांग बताया गया है। इससे ज्ञात होता है कि आयुर्वेद का उद्गम स्रोत अथर्ववेद है। ऋग्वेद और यजुर्वेद में भी आयुर्वेद-विषयक पर्याप्त सामग्री उपलब्ध है।
ऋग्वेद आदि में ओषधियों का भी यथास्थान उल्लेख है। ऋग्वेद में ६७ वनस्पतियों का उल्लेख है, यजुर्वेद में ८२ और अथर्ववेद में २८८ का । इनका विस्तृत विवरण अध्याय १२ में दिया गया है।
अध्यायों का विभाजन- अध्यायों के विभाजन में चरक, सुश्रुत आदि आयुर्वेदीय ग्रन्थों की विभाजन-प्रक्रिया को अपनाया गया है। इस प्रकार क्रमशः सूत्रस्थान, शारीर-स्थान, निदान-स्थान और चिकित्सा-स्थान अध्यायो को रखा गया है। शरीरांगों आदि के अनुसार रोगों को क्रमबद्ध किया गय है । प्राकृतिक चिकित्सा का विस्तृत विवेचन प्रस्तुत किया गया है। शल्य- चिकित्सा पर महत्त्वपूर्ण सामग्री एकत्र की गई है।
वेदामृतम्-ग्रन्थमाला-इस ग्रन्थमाला के १२ पुष्प जनता की सेवा अर्पित किए जा चुके हैं। भाग १३. शरीर विज्ञान, भाग १४. रोग चिकित्स भाग १५. विष-चिकित्सा और भाग १६. विविध ओषधियाँ, ये चारों भा इस ग्रन्थ में एकत्र किए गए हैं। इससे आयुर्वेद-विषयक समस्त सामग्री ए स्थान पर संगृहीत हो सकी है। उपयोगिता की दृष्टि से चारों भागों को इक छापना उचित समझा गया। छपाई की कुछ कठिनाइयों के कारण सभी पाव टिप्पणियाँ प्रत्येक अध्याय के अन्त में क्रमशः दी गई हैं। पाठक उन्हें क देखने का कष्ट करें ।
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