पुस्तक परिचयः- औपनिषदिक-पदानुक्रम-कोष लेखकः- आचार्य विश्वबन्धु शास्त्री
संस्कृत साहित्य कोष की दृष्टि से समृद्ध साहित्य रहा है। निघण्टु से प्रारम्भ हुई कोष की यात्रा अमरकोष आदि के रूप में आगे बढ़ती हुई वाचस्पत्यम्, शब्दकल्पद्रुम, हलायुध, मोनियर विलियम्स आदि के संस्कृत-इंग्लिश कोश के रूप में विकसित होती हुई आज भी निरंतर प्रवाहमान है। वर्तमान युग में आचार्य विश्वबन्धु शास्त्री ने इसको एक नया आयाम प्रदान किया, इन्होने समस्त वैदिक साहित्य को आधार बनाकर वैदिक-पदानुक्रम-कोश की परम्परा का शुभारम्भ किया। इस नवीन और अध्ययन की दृष्टि से उपयोगी पद्धति को और आगे बढ़ाते हुए मेरे माध्यम से परम पिता परमात्मा ने सम्पूर्ण ऋग्वेद के समस्त भाष्यकारों के पद और उनके पदार्थ को ऋग्भाष्य-पदार्थ-कोषः के रूप में पूर्ण कराकर उपस्थापित किया। उक्त ग्रंथ 8 भागों में 2013 में प्रकाश में आ चुका है। इसी श्रृंखला में प्रस्थानत्रयी-पदानुक्रम-कोषः भी 2014 में प्रकाशित हो चुका है।
भारतीय वाङ्ममय की समृद्ध अध्यात्मपरम्परा का प्रतिनिधित्व करने वाला उपनिषद् साहित्य शोध के लिए जनसामान्य को सुलभ हो, वह जिस किसी सम्प्रदाय के साथ निकटता अनुभव करता हो, उस तक उसकी पहुँच हो जाये, यह लक्ष्य रखकर प्रस्तुत औपनिषदिक-पदानुक्रम-कोषः का गठन किया गया है। निश्चित रूप से यह कहा जा सकता है कि शोधार्थी अल्पप्रयास में वांछित बिन्दु तक पहुँचकर शोध के निष्कर्षों को सुसंगत आधार प्रदान कर सकेंगे।
प्रस्तुत ग्रन्थ भारतीय दर्शन शास्त्र का इतिहास के चतुर्थ भाग में मध्यकालीन आचार्यों का दर्शन निरूपित किया है। लेखक ने इस ग्रन्थ में अद्वैत तथा द्वैत दार्शनिक मध्यकालीन सम्प्रदायों के दर्शन का विस्तार पूर्वक विवेचन किया है।
इस ग्रन्थ के विषय-प्रवेश में अद्वैतवेदान्त, विशिष्टाद्वैत, और द्वैतवाद के आचार्यों के दर्शन का संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत किया है। इसके अनन्तर आचार्य गौड़पाद के दर्शन का संक्षिप्त तत्वमीमांसीय अध्ययन प्रस्तुत करते हुए बौद्धों के दर्शन से उसकी तुलना एवं समीक्षा का प्रस्तुतीकरण हुआ है। आचार्य शंकर, आचार्य रामानुज और आचार्य मध्व के दर्शनों का तत्वमीमांसीय एवं ज्ञानमीमांसीय अध्ययन का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है।
इन उपर्युक्त दर्शनों के अनुसार ब्रम्ह, जीवात्मा, सृष्टि संरचना, नीतिशास्त्र और मोक्ष का तात्विक विवेचन सर्वत्रा अद्वैतवादी विशिष्टाद्वैतवादी और द्वैतवादी विचारधारा का साम्य एवं वैषम्य का निरूपण करते हुए दार्शनिक विश्लेषण हुआ है।
जो पाठक मध्यकालीन आचार्यों के दर्शन का विस्तारपूर्वक अध्ययन एक ही ग्रन्थ में करना चाहे, उनके लिए यह ग्रन्थ अनुपम कृति है। इस ग्रन्थ का प्रणयन भारतीय विश्वविद्यालयों के प्राध्यापकगण, ए. ए. शोधछात्र और दर्शन के जिज्ञासु के लिए किया गया है। यह ग्रन्थ आई. ए. एस. एवं पी. सी. एस. के प्रतियोगी एवं प्रशासनिक प्रतियोगियों के लिए भी अत्यधिक उपयोगी ग्रन्थ है। भारतवर्ष में समस्त विश्वविद्यालयों के पुस्तकालयों के लिए यह ग्रन्थ संग्रहणीय है।
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