पुस्तक का नाम – गौतम धर्मसूत्रम्
अनुवादक का नाम – डॉ. नरेन्द्र कुमार
कल्पसूत्रों का महत्त्व प्रकट करते हुए कुमारिल भट्ट ने लिखा है –
“वेदादृतेऽपि कुर्वन्ति कल्पैः कर्माणि याज्ञिकाः।
कल्पैर्विना केचिन्मन्त्र ब्राह्मणमात्रकात्।।”
कस्पसूत्र को वेदरूपी पुरुष का हाथ बताया गया है। हाथ प्रतीक है कर्म का अर्थात् कल्पसूत्रों में कर्मकाण्ड़ की चर्चा है। मनुष्य कितना भी ज्ञानी हो जाये यदि वह कर्म न करें तो उसका ज्ञान अधूरा ही माना जाता है। अतः कर्मकाण्ड़ की दृष्टि के कल्पसूत्रों का अपना ही महत्त्व है। इन कल्पसूत्रों के श्रौत, गृह्य, धर्म, शुल्व नाम से चार भेद माने गये हैं।
इन भेदों में से धर्मसूत्र में मनुस्मृति और वेदों के अनुसार वर्ण, आश्रम, आचार, शिक्षा, शासन, आशौचाचार एवं प्रायश्चित आदि की विस्तार से विवेचना की गई है। इन धर्मसूत्रों में मीमांसा के सिद्धान्तानुसार जो वेदानुकूल है वही ग्राह्य है और जो वेदों के प्रतिकूल है, वह अग्राह्य समझना चाहिए।
प्रस्तुत ग्रन्थ गौतम धर्मसूत्र है, जिसका हरदत्तकृत टीका के साथ हिन्दी अनुवाद डॉ. नरेन्द्रकुमार जी ने किया है। इस धर्मसूत्र में 18 अध्यायों में निम्न विषयों को तीन प्रश्नों में रखा गया है जिनका विवरण निम्न प्रकार है –
प्रथम प्रश्न – इसमें नौ अध्याय हैं। इसमें मुख्यतः धर्मप्रमाण, उपनयन, ब्रह्मचारी, शौचाचार, गृहस्थाश्रम, महत्त्व, विवाह भेद, पञ्च महायज्ञ, शिक्षा, दान देने के नियम, व्रतों का पालन, भोजन आचार, स्नान और शयनादि की चर्चा है।
द्वितीय प्रश्न – यह 9 अध्यायों में विभक्त है। इसमें आश्रम-धर्म, वर्णों के कर्तव्य, धर्म, कर, राजा, पुरोहित के कर्म, दण्ड-विधान, स्त्री के कर्तव्य, स्वयंवर विवाह, कन्यादान आदि की चर्चा की गई है।
तृतीय प्रश्न – इस प्रश्न में 10 अध्याय है। इसमें प्रायश्चित नियम, शुद्धि के साधन, जप आदि के लिए अनुकूल स्थान, सुरापान की हानियां और प्रायश्चित, सम्पत्ति का बँटवारा, धर्मशास्त्र और धर्मपरिषद के लक्षण और प्रशंसा आदि का वर्णन किया गया है।
इन धर्मसूत्रों के अध्ययन और पालन के द्वारा चारों पुरुषार्थों की सिद्धि करनी चाहिए
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