पुस्तक का नाम – मांसाहार धर्म, अर्थ और विज्ञान के आलोक में
लेखक का नाम – आचार्य अग्निव्रत जी नैष्ठिक
बुद्धि वह वस्तु है, जो मनुष्यों को पशुओं से अलग बनाती है। परमपिता परमात्मा ने मनुष्य को संसार का सबसे अधिक बुद्धिमान प्राणी बनाया है। इससे हमारा उत्तरदायित्त्व बढ़ जाता है कि हम पर्यावरण और प्राणियों का संरक्षण करें। परमात्मा ने मनुष्य के भोजन के लिए नाना प्रकार के फल, दूध, सब्जी, मेवे आदि स्वादिष्ट एवं स्वास्थ्यवर्धक पदार्थ बनाये। परन्तु निर्दयी मनुष्य ने अपनी जिह्वा की तृप्ति के लिए अनेकों निर्दोषों, निरीह प्राणियों को ही खाना प्रारम्भ कर दिया।
कुछ तथाकथित प्रबुद्ध महानुभाव भारतीय संस्कृति, सभ्यता तथा वैदिक धर्म को नष्ट करने के लिए मांसाहार जैसे पाप को वैज्ञानिक सिद्ध करने का प्रयास करते रहते हैं। कोई खाने की स्वतंत्रता के नाम पर, कोई वैज्ञानिक व आर्थिक तर्क देकर, तो कोई यह कहकर कि हम इन्हें नहीं खाएँगे, तो जानवरों की संख्या बहुत बढ़ जाएगी, मांसाहार का समर्थन करते हैं। ऐसे ही एक महानुभाव हैं, मोहम्मद फारुख खांजी, जिन्होने ‘दया व मांसाहार’ नाम वाली एक लघु पुस्तिका लिखी थी, जिसमें इन्होने मांसाहार के पक्ष में वैज्ञानिक तर्क देने का असफल प्रयास किया। इन सबके उत्तर में आचार्य जी ने प्रस्तुत पुस्तक मांसाहार – धर्म, अर्थ और विज्ञान के आलोक में, लिखकर उनको तर्कपूर्ण उत्तर दिया है। प्रस्तुत संस्करण पहले वाले संस्करण की तुलना में संशोधित संस्करण है, जिसमें आचार्य जी ने कुछ नए अध्याय, स्वयं मंत्रों के भाष्य जोड़ कर नया रूप देने का प्रयास किया गया है।
कुछ तथाकथित ब्राह्मणों अथवा वेद विरोधियों ने हमारे कुछ आर्ष ग्रन्थों में मिलावट कर दी तथा ग्रन्थों को न समझने से उनके गलत अर्थ कर दिए, इसी कारण आर्ष ग्रन्थों में कहीं कहीं मांसाहार के प्रकरण देखने को मिलते हैं। वेद – विरोधी लोग इसी बात का लाभ उठाकर इन महान ग्रन्थों पर आक्षेप लगाते हैं। आर्ष ग्रन्थों में ऐसे आक्षेपों का खंड़न भी इस पुस्तक में देखने को मिलेगा।
आशा है कि इस पुस्तक के अध्ययन से लोग भ्रमित होने से बचेंगे तथा सभी बुद्धिमान एवं सभ्य महानुभाव मांस, मछली, अंडे आदि अभक्ष्य पदार्थों का त्याग करेंगे, जिससे मानव जाति अनेकों रोगों से मुक्त होगी, पर्यावरण शुद्ध होगा और प्राकृतिक प्रकोप भी कम होंगे
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