भारत ही नहीं अपितु विश्वसंस्कृति की प्राचीनतम निधि वेद है, इस सत्य को निर्विवाद रूप से स्वीकार किया जाता है। भारतीय नवजागरण के पुरोधा महर्षि दयानन्द सरस्वती ने ‘वेद सब सत्यविद्याओं की पुस्तक है’ इस सत्य का बड़े स्पष्ट शब्दों में उद्घोष किया है। उसमें वह समस्त ज्ञानविज्ञान निहित है, जो मानव के आधिभौतिक, आधिदैविक और आध्यात्मिक उन्नति के लिये अपेक्षित है। वेद रहस्य के मर्मज्ञ आचार्य यास्क भी निरुक्त के प्रारम्भ में कहते हैं:-“पुरुषविद्यानित्यत्वात् कर्मसम्पत्तिर्मन्त्रो वेदे’ (निरु०,१.१.) कि पुरुष अर्थात् परमात्मा की विद्या नित्य होने से वेद के मन्त्रों से किया जाने वाला कर्म सफल होता है।
शतपथ ब्राह्मण का अभिमत है:-“परोऽक्षकामा हि देवाः” (शत०ब्रा०,६.१.१.२. (७.४.१.१०.) गोपथ ब्राह्मण भी कहता है:-“परोक्षप्रिया इव हि देवा भवन्ति प्रत्यक्षद्विषः ” (गो०ब्रा०, १.२.२१.) कि देवता परोक्षप्रिय और प्रत्यक्ष से द्वेष करने वाले होते हैं। यह वचन तब और गूढ हो जाता है, जब आचार्य पाणिनि जैसे उद्भट विद्वान्, जिन्होंने अपने व्याकरण का गठन मूलतः वेद को ध्यान में रखकर किया है और इसी कारण उन्हें अष्टाध्यायी में ११ बार ‘बहुलं छन्दसि’ सूत्र कहने के लिये विवश होना पड़ा है, ने एक भी देवता वाचक शब्द को व्युत्पन्न करने का प्रयास नहीं किया है। भला यह कैसे विश्वास किया जा सकता है कि जो महामनीषी रूस से लेकर सम्पूर्ण भारतीय उपमहाद्वीप की भाषाओं को व्याकरण के नियमों में बाँधने के लिये सचेष्ट है, वह इन्द्र, अग्नि सदृश देवताओं से अपरिचित रहा होगा। ऐसा प्रतीत होता है कि वह भी उक्त शतपथ ब्राह्मण-वचन के या उस जैसी किसी परम्परा अथवा मान्यता से प्रभावित है।
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