वैदिक-गीता
पुस्तक का नाम – वैदिक-गीता
लेखक का नाम – महामहोपाध्याय पं. आर्यमुनि
विश्व के आध्यात्मिक साहित्य में गीता का प्रतिष्ठित स्थान है। यह जीवन में कर्म की महत्ता पर प्रकाश डालती है। इसकी प्रासंगिकता हमेशा रहेगी, क्योंकि कर्म के बिना मानव की न तो सार्थकता है और न ही इसका कोई अर्थ शेष रह जाता है।
वैसे मानव क्या समस्त जीव जगत बिना कर्म के रह ही नहीं सकता। यह कैसे सम्भव है कि मनुष्य कर्म करे ही नहीं। कर्म के अभाव में शव में और चैतन्य मनुष्य में अन्तर क्या रह जायेगा। कर्म तो प्रत्येक प्राणी करता ही है।
एक कर्म मनुष्य सामान्य जीवन संचालन के लिये करता है। खाना – पीना – चलना – देखना – सुनना, यह तो करना ही पड़ता है। कुछ कर्म ऐसे हैं जो शारीरिक उन्नति के साथ लोक परलोक तथा समाज-देश-मानवता के लिये किये जाते हैं। इनके पीछे प्रायः कुछ प्राप्ति की कामना रहती है। यदि कर्म करने के पश्चात् भी अपेक्षित परिणाम नहीं निकले तो मानव मन विह्वल होकर विचारता है ऐसा क्यों?
गीता यहीं व्यक्ति को असीम शान्ति प्रदान करती है कि कर्म करने के पश्चात् भी अपेक्षित परिणाम नहीं निकले तो उदास न होकर विचारना चाहिये-कहां न्यूनता रह गई। फिर कर्म करते रहना चाहिये। कर्म का फल मिलता ही है। हम उसे देख या अनुभव नहीं कर पाते। मानव जीवन की सफलता कर्म करते रहने में ही है।
गीता की ऐतिहासिकता पर प्रश्न करनेवालों से हमारा निवेदन है कि एक वेद मन्त्र के अमूल्य भावों का भाव गीता के सन्देश पर ध्यान केन्द्रित कर जीवन सफल बनाने की दिशा में अग्रसर रहें।
मानव को कल्याणकारी दिशा देने का यत्न करने के उद्देश्य से इस वैदिक गीता नामक गीताभाष्य की आर्यमुनि जी ने रचना की है।
इस ग्रन्थ के अध्ययन से गीता का यथार्थ भाव प्रकट होगा।
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