पाणिनीय व्याकरणशास्त्र में यशस्वी मुनि भाष्यकार पतञ्जलि का मूर्धाभिषिक्त स्थान है। प्रत्येक विवादग्रस्त स्थल पर सूत्रकार पाणिनि तथा वातिककार कात्यायन की अपेक्षा इनका ही मत प्रामाणिकतम माना जाता है। इनकी सर्वपथीन मनीषा न केवल व्याकरणशास्त्रविषयक गूढ-गूढतर सिद्धान्तों के समीचीन विवेचन में ही समुन्मिषित होती है अपितु प्रसक्तानुप्रसक्त अन्य दार्शनिक विषयों के समञ्चित प्रपञ्च में भो क्रममाण होती हुई अव्याहतप्रवृत्ति- वाली देखी जाती है। इनके सुचिन्तित विवेचन में अर्थसतत्त्व का महत्त्वपूर्ण पूर्ण निरूपण समुचित विकास के साथ सर्वत्र समुल्लसित रहता है।
भाष्यकार पतञ्जलि अपनी स्वोपज्ञ प्रज्ञा के विज्ञान से और नूतन, अद्भुत, तथा चित्र-विचित्र प्रतिभा के बल से जहां शब्द प्रयोगों के साधन में सूत्रकार- निदिष्ट पद्धति का आश्रयण करते हैं, वहाँ नवनवोन्मेषशालिनी, नानाविध तर्कसमन्वित, महती सूक्ष्मेक्षिका से अनुस्यूत तथा प्रभूतानुभूतिसंभूत अनोखी सूझ-बूझ से शब्दसिद्धि का सुगम मागं बताते हुए शास्त्रीय सिद्धान्तों का यथोचित प्रतिपादन भी करते हैं। इस सिद्धान्त प्रतिपादन प्रक्रिया में भाष्यकार के परिष्कृत मस्तिष्क से निकली हुई चिररुचिर अनल्प कल्पनायें भी समाहित होती हैं। इन कल्पनाओं का बहुत गहराई से पर्यालोचन करने पर भी पेलवधी तो क्या, व्युत्पन्नमति भी इनके गूढ़ाशय को समझने में प्रायः असमर्थ रहते हैं। परिणामतः टीकाकारों में भी भाष्याशय को लेकर अनेकत्र मतभेद दिखायी देता है।
भाष्यकारीय व्याख्यानशैली की यह एक महती विशेषता है कि वे जब जिसका अन्वाख्यान कर रहे हों, तब उसी को सिद्धि के लिए पूरा जोर लगा देते हैं और अनुकूल तर्को का पूरा जाल बिछा देते हैं। इसलिए वे जब पूर्वपक्ष को स्थापना कर रहे होते हैं तो उसके पक्ष में ऐसी प्रबल युक्तियाँ प्रस्तुत करते हैंः कि यदि पाठक प्रबुद्ध न हो तो वह उसे हो उत्तरपक्ष मानने का प्रमाद करः सकता है। किन्तु बाद में भाष्यकार जब उत्तरपक्ष पर आते हैं तब पूर्वोक्त युक्तियों के ठीक विपरीत, ठोस तथा अकाट्य तकों से उत्तरपक्ष को स्थापितः करते हैं।
Reviews
There are no reviews yet.