ग्रन्थ का नाम – संस्कृत – व्याकरणदर्शन के विविध सोपान
लेखक का नाम – डॉ. रामप्रकाश वर्णी
‘दृश्यतेऽनेनेति दर्शनम्’ इस व्युत्त्पति के अनुसार दर्शन शब्द का अर्थ है – ‘दृष्टि’। यह दृष्टि सामान्यदृष्टि न होकर विशेष, आसाधारण या दिव्यदृष्टि होती है। शास्त्रों का गूढ़ रहस्य दर्शनों के माध्यम से ही प्रस्तुत किया जाता है।
प्रस्तुत पुस्तक में संस्कृत के दार्शनिक स्वरुप को प्रदर्शित किया गया है, इसके अध्यायों का संक्षिप्त परिचय निम्न प्रकार है –
प्रथम अध्याय – इस ग्रन्थ के प्रथम अध्याय का नाम है – व्याकरणदर्शन का उद्भव और विकास। इसमें ‘संस्कृत व्याकरणदर्शन’ के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए शब्द ब्रह्म के स्वरुपज्ञान से मुक्ति का प्रतिपादन किया गया है। अन्त में व्याकरणदर्शन की सम्पूर्ण ऐतिहासिक परम्परा का प्रदर्शन करते हुए इसको उपसंहृत किया गया है।
द्वितीय अध्याय – इस अध्याय का शीर्षक है – धात्वार्थ निरुपण। इसमें सर्वप्रथम ‘धात्वार्थ’ के सम्बन्ध में मीमांसक मण्डन मिश्र, प्रभाकरमिश्र, खण्डदेव आदि के मतों का प्रदर्शन करते हुए उसकी समीक्षा की गई है। तदन्तर नैय्यायिकों में प्राचीन नैय्यायिकों और नव्यनैय्यायिकों के मत को प्रस्तुत कर उसकी समीक्षा की गयी है। अन्त में वैयाकरणों के मत को प्रस्तुत कर उसका औचित्य सिद्ध किया गया है।
तृतीय अध्याय – इस अध्याय का मुख्य प्रतिपाद्य है – ‘लकारार्थ-निरुपण’ इसमें लडादि दश लकारों के अर्थों का निरुपण किया गया है। यहाँ लादेश तिङों की कृति में शक्ति होती है, इस नैय्यायिक मत का प्रदर्शन करके इसका अनेक युक्तियों से खण्डन किया गया है तथा इस विषय में मुनित्रय एवं भर्तृहरि की सम्मति प्रदर्शित करके ‘कर्त्ता’ और कर्म अर्थों में इनकी शक्ति को व्यवस्थित किया गया है। तदन्तर लडर्थ वर्तमानत्व और लिडर्थ परोक्षत्व का परिष्कार करते हुए लुट्, लेट् और लोट् लकारों के अर्थों पर विचार किया गया है तथा लिङर्थ के विषय में इष्टासाधनत्व को ही वैयाकरणसम्मत लिङर्थ मानते हुए नैयायिक और प्रभाकर मीमांसकों के मत का युक्तियुक्त खण्ड़न किया गया है। अन्त में लादेश ही वाचक होते हैं, इस नागेशभट्ट के मत और लत्वेन लकार ही वाचक होते हैं, इस कौण्डभट्ट के मत पर विचार किया गया है।
चतुर्थ अध्याय – इस अध्याय का शीर्षक है – नामार्थ विचार। इसमें एकं द्विकं त्रिकं चाथ चतुष्कं पञ्चकं तथा, इस कारिका के अनुसार नामार्थ के सम्बन्ध में नाना मतों को प्रदर्शित करते हुए महिमभट्ट, बौद्धदार्शनिकों, वेदान्तियों और नैयायिकों के मतों की समीक्षा की गयी है तथा महाभाष्यसम्मत ‘मम्मटाचार्य’ की सम्मति को प्रस्तुत करके नागेश भट्ट के मतानुसार प्रवृत्तिनिमित्त और उसके आश्रय को अनेक युक्तियों से नामार्थ सिद्ध किया गया है। अन्त में शब्द की भी नामार्थता को महाभाष्य, कैयट, कौण्ड भट्ट और नागेश भट्ट की युक्तियों से सिद्ध करके षोढ़ा प्रातिपदिकार्थ इस सिद्धान्त को स्थापित किया गया है।
पञ्चम अध्याय – इस अध्याय की मुख्य विषयवस्तु सुबर्थ निर्णय को लेकर सुसंग्रथित है। इसमें सभी कारकों और क्रिया पर विचार किया गया है। इस सम्बन्ध में नाना मतों को प्रदर्शित करके हुए उनकी सटीक समीक्षा भी की गयी है। सभी सम्बन्ध में नाना मतों को प्रदर्शित करके उनकी सटीक समीक्षा भी की गई है। सभी कारकों के भेदों और विभक्तियों के अर्थों को भी उक्तरीति से प्रस्तुत किया गया है। सम्प्रदान और अपादान के कारकत्व और अकारकत्व पर विचार करते हुए कृधातुघटितत्वं कारकत्वं की विशद समीक्षा की गई है। अन्त में सप्तम्यधिकरण के स्वरुप को विमृष्ट करते हुए शक्तिःकारकमाहोस्वित् शक्तिमत्कारकम् पर विचार किया गया है।
षष्ठं अध्याय – इस अध्याय का शीर्षक है – निपातार्थ और समासशक्ति। इसमें निपातार्थ पर विचार करते हुए उनके वाचकत्व और द्योतकत्व तथा सम्भूयार्थवाचकत्व रूप तीनों पक्षों को स्पष्ट किया गया है। इसके साथ ही इस अध्याय में समासशक्ति पर भी विचार किया गया है। यहाँ व्यपेक्षावादी नैयायिकों और मीमांसकों के मत को प्रस्तुत करते हुए उनका प्रबल युक्तियों से खण्डन करके समास में एकार्थीभाव रूप विशिष्टशक्ति को सिद्धान्ततः स्थापित किया गया है।
सप्तम अध्याय – यह अध्याय इस ग्रन्थ में वृत्तिस्वरुप विमर्श के नाम से उल्लेखित हुआ है। इसमें वृत्ति शब्द के अर्थ को स्पष्ट करते हुए क्रमशः अभिधा, लक्षणा और व्यञ्जना के स्वरुप को स्पष्ट किया गया है। प्रसङ्गानुकूल विभिन्न मतों की समीक्षा भी गई है।
अष्टम अध्याय – इस अध्याय का शीर्षक है – स्फोट और उसके भेद। इसमें स्फोट सिद्धान्त की विवेचना करते हुए स्फोट को वृत्तियों का एकमात्र आश्रय सिद्ध किया गया है। यहां स्फोट का एकत्व और अखण्डत्व प्रदर्शित करते हुए उस पर विहित भट्ट कुमारिल के आश्रेप का निराकरण किया गया है। साथ ही स्फोट और ध्वनि में अन्तर स्पष्ट करते हुए स्फोट के भेदों और उन सभी में वाक्यस्फोट की प्रमुखता का भी प्रतिपादन किया गया है।
नवम अध्याय – यह अध्याय इस ग्रन्थ में अन्तिम अध्याय है। इसका शीर्षक प्रकीर्ण विषय है। इसमें साधु शब्द प्रयोग से धर्मलाभ, शब्दों की विविध प्रवृत्तियाँ, वाक् के भेद पद-विभाग को प्रदर्शित किया गया है।
अन्त में उपसंहार शीर्षक में ग्रन्थ के साररूप को प्रस्तुत किया गया है।
इस ग्रन्थ से निश्चय ही व्याकरण दर्शन के अध्येता छात्रगण और अध्यापकगण लाभान्वित होंगे।
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