पुस्तक का नाम – वेदों में मानवीय मूल्य
लेखक का नाम – प्रा. डॉ. नयनकुमार आचार्य
वेद यह परमात्मा का अमर संदेश है। इसी वेदज्ञान के माध्यम से संसार अनादि काल से प्रगति पथ पर विराजमान है। सृष्टि में विद्यमान जो ज्ञानतत्व हैं, वे सभी वेदों में विद्यमान हैं। भले ही पाश्चात्य जगत् वेदों के प्रति आस्थाभाव न रखता हो, या हमारे ही देश के कुछ लोग वेदज्ञान को गलत अर्थों से समझते हो? किन्तु सत्य तो यह है कि मानव इसी ज्ञान को आधार मानकर अपने जीवन की सारी गतिविधियों का संचालन करता दिखाई दे रहा है। इसलिए संसार माने या न माने वेदज्ञान त्रिकालाबाधित सत्य पर टिका है। सृष्टि के सूक्ष्म व स्थूल तत्त्वों में छिपे इस ज्ञान की खोज पहले से लेकर अबतक निरन्तर जारी है। वेदज्ञान के मूल में जीवात्मा के पूर्ण कल्याण की बातें निहित हैं, जिनके सम्यक् पालन से केवल मानव की ही नहीं, बल्कि हर एक प्राणी की विभिन्न समस्याओं का स्थायी समाधान होगा।
समस्या चाहे कल की हो या आज की! उनका निवारण तो वेदों द्वारा निर्दिष्ट उत्तमोत्तम ज्ञानतत्त्वों द्वारा ही सम्भव है। इसके लिए मानव को आवश्यक है कि वह वेदों के आदेशों व उपदेशों को यथावस्थित जानकर उन्हें जीवन में उतारने का प्रयास करें। इन आचरणीय तत्त्वों को ही ‘मानवीय मूल्य’ कहा जाता है।
जब-जब मानव ने अज्ञानतावश या जान-बूझकर इन मानवीय मूल्यों की उपेक्षा की, तब-तब सुख के स्थान पर उसे दुःख मिला है। आज संसार में यही हो रहा है। आज समग्र विश्व पतन की ओर इसलिए है कि उसने वेद व सृष्टिविज्ञान के शाश्वत नियमों व मूल्यों की ओर पूर्णतः अनदेखी की है। आज के मूल्यविहीन परिवेश में मानवमात्र को सही अर्थों में पूर्ण आनन्द और शान्ति प्राप्त करनी हो, तो उसे वेद प्रतिपादित इन मानवीय मूल्यों को अपनाना होगा अन्यथा जीवन में दुःख ही दुःख आयेगा।
प्रस्तुत पुस्तक वेदों में मानवीय मूल्य के प्रथम अध्याय में वेदों की प्राचीनता व महत्ता को दर्शाते हुए उनकी सार्वभौमिकता का प्रतिपादन किया है। साथ ही जीवन के समुचित मूल्यों का भी वर्णन हुआ है। वेद समग्र विद्याओं का प्रमुख केन्द्र है। सारी विद्याओं की धारा यहीं से प्रवाहित होती हैं। यहीं विद्याएँ परवर्ती काल में विभिन्न माध्यमों से सर्वत्र फैलती गयी। अध्यात्म ज्ञान, भौत्तिक विज्ञान, सृष्टि विज्ञान, अगाध राष्ट्र प्रेम, सामाजिक जीवन, सदाचार, पर्यावरण तथा आयुर्वेद आदि तत्त्वों को इस अध्याय में प्रकाशित किया है।
द्वितीय अध्याय में वैदिक दार्शनिक विचारों का वर्णन है। ईश्वर, जीवात्मा व प्रकृति इन तीन तत्त्वों की विस्तार से चर्चा करते हुए इनकी स्वतंत्र सत्ता को दर्शाया गया है। ईश्वर के गुण, कर्म तथा उसकी महत्ता को अभिलक्षित कर उसकी महानता व सर्वशक्तिमत्ता का प्रतिपादन किया गया है। साथ ही पुनर्जन्म सिद्धान्त व धर्मार्थ काम मोक्ष इन चार पुरुषार्थों का वर्णन हुआ है। दुःख का निवारण योग के मार्ग से सुलभ होता है, अतः इस अध्याय में योग के आठों अंगों को विस्तार के साथ बताया है। परिशोधन के कारण ही मानव का निर्माण सम्भव है, अतः वैदिक सोलह परिशोधन की महत्ता व उनकी उपयुक्तता को उद्धृत किया है।
तृतीय अध्याय में वैदिक संस्कृति के मूल्यों का दिग्दर्शन किया गया है, जिसमें वर्ण एवं आश्रम व्यवस्था, पञ्चमहायज्ञ, कर्मफल सिद्धान्त, शिक्षा व्यवस्था एवं त्यागवाद की भावना को विस्तृत रुप में बताया गया है।
चौथे अध्याय में वैदिक अर्थव्यवस्था की आदर्श परम्परा अभिव्यक्त हुई है, जो कि मानवीय मूल्यों की संरक्षिका मानी जाती है। इस अध्याय के अन्तर्गत अर्थ की महत्ता, उसके आधार, धन की तीन गतियाँ व राजा के वित्तिय नियोजन के संदर्भ कर्तव्यों का वर्णन किया है। कृषि हमारे देश का मूलभूत आधार है। वेदों के कृषि विषयक विचारों के साथ ही पशुपालन, व्यापार, उद्योग, कला-कौशल एवं व्यवसायों की महत्ता का प्रतिपादन किया है, जिसमें गृहनिर्माण, शिल्पविद्या एवं पाककला का भी समावेश है। प्रजा के हित में वैदिक करप्रणाली का प्रारुप एवं काम के महत्त्व को इसी अध्याय में प्रस्तुत किया है।
पाँचवाँ अध्याय वेद प्रतिपादित राज्यव्यवस्था का दर्शन कराता है। इसमें आदर्श राजा की योग्यता, प्रजा के कल्याण हेतु उसके कर्तव्य तथा उसके आधीन सभा, समिति आदि का वर्णन है। राष्ट्र की सेना कैसी हो? इसकी चर्चा भी इसी अध्याय में मिलेगी।
छठे अध्याय में उदात्त राष्ट्रीय भावनाओं को प्रतिपादित किया है। शरीर व आत्मा का मनोविज्ञान, शरीरान्तर्गत पांच कोश, मन, बुद्धि, चित्त का स्वरुप, चित्त की चार अवस्थाएँ, काम, क्रोधादि प्रवृत्तियों तथा संवेगों का वर्णन किया है। साथ ही शिवसंकल्प सूक्त को सातवें अध्याय में प्रस्तुत किया है।
आठवें अध्याय में मानवीय मूल्यों के आधारभूत तत्त्वों का सादरीकरण हुआ है। वे मूल्य, जिनके बिना मानवता जागृत नहीं रह सकती, उनका वेदों के आधार पर प्रतिपादन किया है। इन मूल्यों में परोपकार, दान, श्रद्धा, शरीर व आत्मा की उन्नति, पारिवारिक व सामाजिक जीवन, तप, स्वावलम्बन, संगठन आदि का वर्णन हुआ है।
अन्तिमतः उपसंहार में वेदप्रणित उन सभी मानवीय मूल्यों की समाज व राष्ट्र के नवनिर्माण हेतु प्रासङ्गिकता किस प्रकार अवश्यम्भावी है? तथा समाज सुधार व विश्व शान्ति में उनकी औचित्यता का विवेचन हुआ है।
इस तरह प्रस्तुत ग्रन्थ में वेद की मानवीय मूल्याधारित विचारधारा को बहुत ही सरलता से शब्दबद्ध किया है।
आशा है कि यह ग्रन्थ तृषार्त मानवसमूह को शाश्वत सुख व आनन्द का मार्ग प्रशस्त करने हेतु सदैव दिशानिर्देश करता रहेगा
Reviews
There are no reviews yet.