शतपथ ब्राह्मण शुक्लयजुर्वेद का महत्त्वशाली ब्राह्मण ग्रन्थ है। सभी ब्राह्मण गन्थों में यह सर्वाधिक विपुलकाय ब्राह्मण है। इसमें यज्ञों का सांगोपांग वर्णन किया गया है। ब्राह्मण ग्रन्थों के सम्बन्ध में अधिकांश पश्चिमी विद्वानों का यह विचार है कि ये यज्ञ सम्बन्धी प्रलाप मात्र है, परन्तु मेरी दृष्टि में पश्चिमी विद्वानों की इस प्रकार की धारणा सर्वथा निर्मूल है। ब्राह्मण ग्रन्थों को ‘यज्ञसम्बन्धी प्रलाप मात्र’ कहना उनके साथ अन्याय करना है। मैं इस सम्बन्ध में पं० बलदेव उपाध्याय के विचारों से पूर्णतया सहमत हूँ। उन्होंने ‘वैदिक साहित्य और संस्कृति’ में लिखा है कि “ब्राह्मणों के यागानुष्ठानों के विशाल सूक्ष्मतम वर्णन को आज का आलोचक नगण्य दृष्टि से देखने का दुःसाहस भले ही करे, परन्तु वे एक अतीत युग के संरक्षित निधि है; जिन्होंने वैदिक युग के क्रिया-कलापों का एक भव्य चित्र धर्ममीमासंकों के लिये प्रस्तुत कर रखा है, यह परिस्थिति के परिवर्तन होने से अवश्य ही धूमिल-सा हो गया है परन्तु फिर भी वह है धार्मिक दृष्टि से उपादेय, संग्रहणीय और मननीय।'””
सत्य तो यह है कि प्रत्येक कृति का महत्त्व इस तथ्य पर निर्भर करता है कि वह जन-जीवन के लिये कितनी उपयोगी है। दूसरे शब्दों में युग सापेक्ष्य मूल्यों की कसौटी पर कसकर ही किसी भी कृति का मूल्यांकन किया जा सकता है। ब्राह्मण ग्रन्थों के सम्बन्ध में भी यही बात है; क्योंकि ब्राह्मणकालीन युग में यज्ञों का अत्यधिक महत्त्व था, यज्ञों के सफल सम्पादन में ही मनुष्य अपना अहोभाग्य समझता था। फलस्वरूप याज्ञिक अनुष्ठानों की विस्तृत व्याख्या करने वाले ग्रन्थों का भी तत्कालीन समाज में महत्त्व होना स्वाभाविक ही है, फिर श०ब्रा० तो उनमें से प्रमुख है। आज परिस्थिति में परिवर्तन होने से श०ब्रा० का महत्त्व भी अपेक्षया कम अवश्य हो गया है, फिर भी यह निःसन्देह कहा जा सकता है कि यदि इस महनीय ग्रन्थ का श्रद्धापूर्वक प्रगाढ़ अनुशीलन किया जाय, तो यह सहज ही स्पष्ट हो जायेगा कि इस ग्रन्थ में यज्ञ सम्बन्धी विवेचन के अतिरिक्त अन्य प्रकार की सामग्री भी है जो तत्कालीन लोगों के सामाजिक, नैतिक व धार्मिक जीवन पर प्रकाश डालती है।
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