वैदिकवाङ्मय समस्त ज्ञान का प्राचीनतम कोश है। यह क्रान्तदृष्टा भारतीय ऋषियों की ऋतम्भरा-प्रज्ञा की शाश्वत परिणति है। शब्द-ब्रह्म की पावन अवधारणा को सिद्ध करने वाला वैदिकवाङ्मय विश्व विश्रुत है। मानव सभ्यता, संस्कृति एवं ज्ञान-विज्ञान का सूर्योदय ‘वेद’ से ही हुआ है। वेद अक्षय-ज्ञान की निधि हैं। इसमें ऐहिक एवं आमुष्मिक दोनों ही प्रकार का ज्ञान-विज्ञान पुष्कल मात्रा में विद्यमान है। प्राचीन भारतीयों का धर्म, दर्शन, आचार, रहन-सहन तथा परम्पराएँ आदि सब वैदिक वाङ्मय में सुरक्षित है।
राष्ट्रीयएकता एवं अखण्डता किसी भी राष्ट्र का मूल आधार है, इसके बिना राष्ट्र का सर्वाङ्गीण विकास सम्भव ही नहीं हैं। वैदिक विदुषी डॉ० अन्नपूर्णा मिश्रा ने गम्भीर वैदिक वाङ्मय का गहन अध्ययन व अनुशीलन कर चारों वेदों, ब्राह्मणग्रन्थों, आरण्यकों तथा उपनिषदों में राष्ट्रीय एकता व अखण्डता का सार्थक अन्वेषण किया है, जो सकल सारस्वत-संस्कृतसाहित्य में सर्वथा उपयोगी होगा, ऐसा मुझे विश्वास है।
अपने शोधग्रन्थ में स्थान-स्थान पर वैदिक सूक्तों के अनेक उद्धरणों द्वारा डॉ० अन्नपूर्णा मिश्रा ने राष्ट्रीयएकता व अखण्डता को बड़ी बुद्धिमत्ता से खोज निकाला है। उदाहरणार्थ- “राष्ट्रे जागृयाम बयम्” अर्थात्, हम सब राष्ट्र में जागें, इस वैदिक सूक्त का आशय यही है कि मानवमात्र में राष्ट्र की एकता तथा अखण्डता के प्रति जागरूकता सदा बनी रहे।
वैदिक काल में प्रत्येक व्यक्ति अपने राष्ट्र के प्रति कर्त्तव्य बोध से परिचित होता था, उस समय मात्र राजा में ही गुणों की अपेक्षा नहीं की गई थी, अपितु नागरिकों में भी राष्ट्र के प्रति दायित्व निश्चित किये गये थे। यथा- “मा त्वद्राष्ट्रमधिभ्रशत्” अर्थात् – तुमसे राष्ट्र (कभी) गिरे नहीं। यहाँ राष्ट्र के न गिरने का अभिप्राय इसका एकता व अखण्डता की सुरक्षा की कामना से ही है।
डॉ० मिश्रा के शोधग्रन्थानुसार, राष्ट्रीयएकता से ही राष्ट्र की अखण्डता सुनिश्चित होती है, तथा वही राष्ट्र शत्रु का सामना करने में पूर्ण सक्षम होता है- मिश्रा जी का यह कथन एक पूर्णतया अनुभूत सत्य है।
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