पुस्तक का नाम – ईशावास्योपनिषद् (श्रीशङ्करभाष्ययुता)
अनुवादक का नाम – प्रो. के. के. कृष्णन नमबूथिरि (हिन्दी अनुवादक)
डॉ. वी. वासुदेवन् पोट्टि (आंग्लानुवाद)
मनुष्य का प्रमुख ध्येय सुःख प्राप्ति होता है। सुःखों का भी वर्गीकरण दो प्रकार से किया जा सकता है जैसे कि भौत्तिक सुःख और आध्यात्मिक सुःख।
भौत्तिक सुःख की प्राप्ति मनुष्य को भौत्तिक साधनों से होती है तथा आध्यात्मिक सुःख की प्राप्ति योगानुष्ठान और संध्यादि ईश्वरोपासना से होती है। आजकल मनुष्य का जीवन भौत्तिकवाद प्रदान है इसीलिये मनुष्यों का अधिकतर ध्येय भौत्तिक सुःखों की प्राप्ति मात्र ही रह गया है। आध्यात्म के प्रति मनुष्यों में लगाव नही रहा है। इस आध्यात्मिक सुःख की उपेक्षा के कारण मनुष्यों में कृतघ्नता का भाव, स्वार्थसिद्धि, ईश्वर पर अविश्वास आदि की वृद्धि हो रही है। भौत्तिक सुःख की प्राप्ति में मनुष्य प्राकृतिक संसाधनों का भी अंधाधुंध दोहन करता जा रहा है जिससे सृष्टि विनाश की ओर शीघ्रता से प्रवृत्त हो रही है तथा कई प्रकार की शारीरिक और मानसिक व्याधियाँ भी उत्पन्न होती जा रही है, यदि सूक्ष्म दृष्टि से देखा जावें तो भौत्तिक सुःखों की प्राप्ति की होड़ में मनुष्यों को अल्पकालिक सुःख के साथ – साथ कई विकट दुःख और समस्याओं का भी सामना करना पड़ रहा है। वस्तुतः यहां की जा रही आध्यात्मिक सुःखों की प्राप्ति के कथन से यह भी नहीं समझना चाहिये कि भौत्तिक आवश्यकताओं का सदा ही लोप कर दिया जावें क्योंकि मनुष्य के सर्वांगीण विकास के लिये भौत्तिक उन्नति भी आवश्यक है किन्तु उसमें यदि अध्यात्म का प्रवेश नहीं किया गया तो भौत्तिक उन्नति स्वार्थ की पूरक होकर विनाश की ओर धीरे – धीरे ले जाने वाली होती है, इससे न केवल स्वयं पर अपितु सम्पूर्ण जीव – जगत पर भी प्रभाव पड़ता है। आध्यात्मिक क्रियाकलाप या धार्मिक सिद्धान्त हमें श्रेय और पेय मार्गों के माध्यम से उपदेश करते हैं कि हमें किस कार्य को किस प्रकार और कैसे करना चाहिये?
हमारे क्या कर्तव्य है और अपने से पृथक् अन्यों के प्रति हमारे क्या दायित्व हैं? इसको एक उदाहरण से भी समझा जा सकता है कि भौत्तिकता के साथ – साथ आध्यात्मिकता कितनी महत्त्वपूर्ण है –
जैसे किसी को भूख लगी और उसके समीप एक बकरा है और एक तरफ फलों से भरा हुआ पात्र।
यहां व्यक्ति की भूख का नाश फलों को खाने से भी हो सकता है और बकरे को मार कर भी खाने से हो सकता है। किन्तु जिसका अध्यात्म में चिन्नमात्र भी प्रवेश है वो बकरे को देखकर उसमें अपने ही समान जीवन और आत्मा को देखकर तथा जीवन के महत्त्व को देखकर बकरे को मारना अनुचित समझेगा, बकरे को मारने के लिये उद्धृत होने पर उसकी आत्मा में ग्लानि का भाव उत्पन्न होगा अतः वह बकरे को न मारकर अपनी भूख को फलों द्वारा ही शान्त कर लेगा। इसी प्रकार भौत्तिक उन्नति के ऐसे मार्ग जिससे हमे भौत्तिक सुख भी प्राप्त हो तथा जीव – जगत को भी उससे कोई हानि न हो तथा सृष्टि पर भी प्रतिकूल प्रभाव न पड़े तो ऐसे मार्ग की प्राप्ति हमें अपने जीवन में अध्यात्म को सम्मलित करने से हो सकती है। इससे स्वयं का और अन्यों का कल्याण हम कर सकते हैं तथा शुभ कर्मों को करते – करते मोक्ष को भी प्राप्त कर सकते हैं क्योंकि मनुष्य का आत्मा अनकूलता को प्राप्त कर सुःख प्राप्त करने वाला होता है तथा प्रतिकूलता का त्याग करता है अतः जैसे मुट्ठीभर गेहूं को देखकर गेहूं के बहुत से भण्डारों का अनुमान होता है उसी प्रकार ध्यानादि और उपासनादि के द्वारा थोडें से आनन्दरूपी सुःख को देखकर मोक्षरूपी परान्तकाल पर्यन्त आनन्दरूपी मोक्ष का अनुमान होता है। इसीलिये मनुष्यों को भौत्तिक उन्नति के साथ – साथ आध्यात्मिक उन्नति का समन्वय करते हुये अपने जीवन को श्रेष्ठ बनाना चाहिये तथा मोक्ष प्राप्ति के लिये अग्रसर होना चाहिये।
आध्यात्मिक उन्नति और मोक्ष के लिये ऋषियों ने अनेकों उपदेश किये हैं, वे उपदेश स्मृतियों, उपनिषदों, आरण्यकों और दर्शनों में संग्रहित हैं। इन सब ग्रन्थों का मूल वेद ही है। इन ग्रन्थों के माध्यम से आध्यात्मिक उन्नति की प्राप्ति के लिये तीन प्रमुख सौपानों का विधान किया गया है – ज्ञान, कर्म और उपासना।
कर्म यदि अज्ञानपूर्वक होगा तो वो श्रमसाध्य होने पर भी सुःख के स्थान पर दुःख देता है या अत्यल्प फलवाला होता है, इसके विषय में एक कहावत बड़ी प्रसिद्ध है –“खोदा पहाड़ निकली चुहिया”
किन्तु यदि कर्म ज्ञानपूर्वक और नीतिपूर्वक हुआ तो वही अल्पश्रम साध्य होने पर भी अच्छे परिणाम प्राप्त करवाता है।
यदि कर्म अधर्म पूर्वक हुआ तो भी वह पतन की ओर ले जाने वाला होता है तथा धर्म पूर्वक होने पर शिखर की ओर ले जाता है। इसीलिये सर्वप्रथम ज्ञान को महत्त्व दिया है, ज्ञान होने पर ही व्यक्ति सम्यक् कर्म और उपासना कर सकता है अन्यथा सदा भ्रमित ही रहेगा।
यदि ज्ञान नहीं तो उपासना भी करना असम्भव है क्योंकि किसकी उपासना करें और क्यों करे तथा उपासना से क्या लाभ प्राप्त होते हैं? ये सब ज्ञान के कारण ही ज्ञात होते हैं। इसीलिये ज्ञान को प्रधान रखते हुये, ऋषियों ने उपासना और मोक्ष की प्राप्ति के लिये प्रयासरत उपासकों के लिये उपनिषदों का उपदेश किया। यह वह ज्ञान है जो उपासक को यह बताता है कि किसकी उपासना करनी चाहिये? किस प्रकार करनी चाहिये और क्यों करनी चाहिये?
उपासना से मनुष्य परमात्मा और स्वयं के प्रति एकत्वभाव को अनुभव करता है। परमात्मा के प्रति उसकी निष्ठा बढ़ती जाती है। व्यक्ति को वह आत्मिक बल प्राप्त होता है कि व्यक्ति बाधाओं से घबराता नहीं है वह उसका दृढ़ता से सामना करता है। वह अशुभ और पाप कर्मों से दूर होता जाता है जिसका लाभ समाज को भी मिलता है। व्यक्ति के मन के स्वस्थ होने के कारण उसका शरीर भी स्वस्थ रहता है क्योंकि आयुर्वेद में कहा गया है कि यथा मन तथा शरीर अर्थात् जैसा मन होता है वैसा ही शरीर हो जाता है। यदि मन अशांत और विकृत है तो शरीर में भी अशांती और विकृति आ जाती है क्योंकि स्थूल शरीर का आधार सूक्ष्म शरीर होता है। अतः मन का शांत और विकार रहित होना अत्यन्त आवश्यक है और इसकी प्राप्ति का सबसे बड़ा साधन उपासना ही है। ईश्वर का सामीप्य प्राप्त कर लेने पर व्यक्ति को ईश्वर सदृश्य गुणों की प्राप्ति होती है क्योंकि संगीति का प्रभाव अवश्य ही जीवन में पड़ता है। अतः ईश्वर की संगीति से बल, ज्ञान, धैर्य, साहस, कीर्ती आदि की प्राप्ति होती है। उपासना का जो सबसे बड़ा लाभ है वो यह है कि इससे व्यक्ति ईश्वर के प्रति कृतज्ञ होता है क्योंकि वह जान लेता है कि उसे जो मिल रहा है उसका आदिमूल परमेश्वर ही है इसीलिये उसमें घमण्ड़ का भाव लुप्त हो जाता है अर्थात् वह घमण्डी़ नहीं रहता है। अतः उपासना और उसके लिये उपनिषदों का अध्ययन सभी सज्जनों के लिये अत्यन्त आवश्यक है।
प्रस्तुत पुस्तक ईशावास्योपनिषद का संस्कृत से हिन्दी और आंग्लाभाषानुवाद है। इस भाषान्तर से न केवल हिन्दी भाषी पाठक अपितु आंग्लाभाषी पाठक भी लाभान्वित होंगे। इस उपनिषद की मूल शिक्षाऐं ईश्वर के एक, विभु और सर्वजज्ञ तथा मनुष्यों को धर्मानुसार कर्म करते हुए ईश्वरोपासना के लाभों को बताना आदि है। प्रस्तुत अनुवाद में उपनिषद् के भाषान्तर के अत्तिरिक्त शंकराचार्य का उपनिषद भाष्य भी प्रस्तुत किया गया है। जिससे इस उपनिषद की अन्य व्याख्याओं और टीकाओं की शाङ्कर भाष्य से तुलनात्मक अध्ययन करने में भी सुविधा होगी।
आशा है कि स्वाध्यायप्रेमी पाठक ईश्वर, जीव और प्रकृति के रहस्यों के अध्ययन के लिये रहस्य नाम से प्रसिद्ध उपनिषदों का अध्ययन अवश्य करेंगे तथा प्रस्तुत व्याख्या को भी अपने पुस्तकालय में संग्रहित करेंगे।
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