रागाविरोगान् सततानुषक्तानशेषकायप्रसृतानशेषान् । औत्सुक्यमोहारतिवाञ्जघान योऽपूर्ववैद्याय नमोऽस्तु तस्मै ॥ 1 ॥
अष्टाङ्गहृदयः
अन्वय- यः अशेषकायप्रसृतान्, सततानुषक्तान्, औत्सुक्यमोहारतिवान्, अशेषान् रागादिरोगान् जघान, तस्मै अपूर्ववैद्याय नमः अस्तु।
शब्दार्थ- यः – जिन्होंने, अशेषकायप्रसृतान् (सभी प्राणियों के) सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त, सततानुषक्तान् – निरन्तर संलग्न, औत्सुक्यमोहारतिदान् उत्सुकता (विषयों के प्रति आसक्ति), मोह (बुद्धि-विभ्रम) एवं अरति (बेचैनी) को उत्पन्न करने वाले, अशेषान् समस्त, रागादिरोगान् राग आदि रोगों को, जघान नष्ट किया, तस्मै उन, अपूर्ववैद्याय अपूर्व वैद्य (अर्थात् भगवान बुद्ध) के लिए, नमः (मेरा) प्रणाम, अस्तु हो।
भावार्थ- जिन्होंने सभी प्राणियों के सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त और निरन्तर संलग्न रहने वाले तथा उत्सुकता (विषयों के प्रति आसक्ति), मोह (बुद्धि-विभ्रम) एवं अरति (बेचैनी) को उत्पन्न करने वाले समस्त राग आदि रोगों को नष्ट किया उन अपूर्व वैद्य (अर्थात् भगवान बुद्ध) को मैं (वाग्भट) प्रणाम करता हूँ।
विमर्श- ‘रागादि रोगान्’ से राग, द्वेष, काम, क्रोध, लोभ, मोह, ईर्ष्या आदि मानसिक रोगों के साथ-साथ वात-पित्त आदि जनित शारीरिक रोगों एवं जरा, मृत्यु आदि स्वाभाविक रोगों का भी ग्रहण होता है।
यहाँ पर ‘अपूर्व वैद्य’ का सम्बन्ध ‘भगवान् बुद्ध’ से है, क्योंकि आचार्य वाग्भट ने अष्टाङ्ग संग्रह नामक अपनी पूर्ववर्ती रचना के मङ्गलाचरण में ‘बुद्धाय तस्मै नमः’ कहा है (तृष्णादीर्घमसद्विकल्पशिरसं प्रद्वेषचञ्चत् फणं, कामक्रोधविषं वितर्कदशनं रागप्रण्डेक्षणम्। मोहास्यं स्वशरीरकोटरशयं चित्तोरगं दारुणं, प्रज्ञामन्त्रबलेन यः शमितवान् बुद्धाय तस्मै नमः॥ रागादिरोगाः सहजाः समूला येनाशु सर्वे जगतेऽप्यपास्ताः। तयेकवैद्यं शिरसा नमामि वैद्यागमज्ञांश्च पितामहादीन्।। अ.सं.सू. 1/1-2) और अ.हृ.सू. 18/18 में रोगी को बमन-विरेचन औषधि पिलाते समय भी भगवान् तथागत बुद्ध को नमस्कार किया है।
Reviews
There are no reviews yet.