Vedrishi

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और देश बंट गया

Aur Desh Bant Gaya

380.00

SKU 37475-SP03-0H Category puneet.trehan

In stock

Subject : Aur Desh Bant Gaya
Edition : N/A
Publishing Year : N/A
SKU # : 37475-SP03-0H
ISBN : 81-89622-95-1
Packing : Paperback
Pages : 380
Dimensions : N/A
Weight : NULL
Binding : Paperback
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ऐतिहासिक घटनाओं की कुछ व्याख्याओं को बहुधा लोग आप्त सत्य मान बैठते हैं। उस व्याख्या से अनुकूलता बैठाने के लिए इतिहास को तोड़-मरोड़ दिया जाता है और फिर वही भावी पीढ़ियों के लिए ऐतिहासिक घटना-क्रम के विकास का प्रामाणिक इतिवृत्त बन जाता है। विशेषतः, जब घटनाएँ निकट भूतकाल की होती हैं और प्रमुख राजनीतिक हस्तियों ने उनमें भाग लिया होता है, तब इस प्रवृत्ति का प्रभावी होना निश्चित है। स्वभावतः, इस प्रक्रिया में इतिहास विकृत हो जाता है और इतिहास का विकृत एवं भ्रष्ट संस्करण राष्ट्र की भावी प्रगति के लिए न तो प्रेरणा बन सकता है, न ही चेतावनी।

ऐसा ही कुछ घटित हुआ प्रतीत होता है हमारे देश के विभाजन के प्रसंग में भी। नि:संदेह गत सहस्रों वर्षों के उतार-चढ़ावों से भरे हमारे संपूर्ण इतिहास में देश का विभाजन सर्वाधिक निर्णायक एवं दारुण दुःख की घटना थी। गत एक सहस्र वर्षों में जब-तब हमारे देश के अनेक भागों पर पहले मुसलमानों का और बाद में अंग्रेजों का शासन रहा, परन्तु राष्ट्र ने मातृभूमि के किसी भी भाग पर सिद्धांततः उनकी प्रभुसत्ता कभी स्वीकार नहीं की। इसके परिणामस्वरूप, उन भागों से आक्रामकों को -निकाल बाहर करके उन्हें स्वतंत्र कराने का प्रयत्न भी हमारे राष्ट्र ने कभी नहीं छोड़ा। और, इतिहास साक्षी है कि अंततः उसे विदेशी आक्रमणकारियों के पंजों से समूचे भू-भाग को मुक्त कराने में सफलता मिल गयी। परन्तु, इतिहास में प्रथम बार, विभाजन ने देश के कुछ भागों पर उनके नैतिक और वैधानिक अधिकार को स्वीकृति देकर एक सहस्र वर्ष से चले आ रहे वीरतापूर्ण स्वातन्त्र्य-युद्ध के अपयशपूर्ण समापन की घोषणा कर दी सम्भव था – इस प्रकार सिद्धांत के प्रश्न पर यह अपमानजनक आत्मसमर्पण था, परन्तु सामान्यतः आजकल की विभाजन-संबंधी व्याख्याएँ इस पक्ष पर एक शब्द भी नहीं बोलती। विभाजन को एक त्रासदी मानते हुए भी, ऐसा प्रकट किया जाता है कि उस समय एकमात्र यही व्यावहारिक मार्ग एक ऐसा मूल्य, जिसे स्वतंत्रता के उपलक्ष में चुकाना आवश्यक था।

विभाजन को अपरिहार्य या निर्दोष बताने वाली इसी आधारभूत मान्यता की समालोचनात्मक परीक्षा करने की आवश्यकता है। 'क्या विभाजन अपरिहार्य था?', 'वे कौन-सी बातें थीं जिन्होंने अंततः उस विनाशकारी छोर पर पहुँचा दिया?', 'क्या इसकी वर्तमान शक्तियों के लिए कोई चेतावनी है?', 'क्या यह भावी पीढ़ियों के लिए कोई सँजोकर रखने योग्य रिक्त या पूरा किये जाने योग्य कोई स्वप्न छोड़ गया है?' – ऐसी जिज्ञासाएँ और प्रश्न उत्तर माँगते हैं, ऐसे उत्तर, जो तथ्यात्मक, सत्यपरक, प्रामाणिक और अकाट्य हों। ।

एक बात और। इतिहास व्यक्तियों की मुखदेखी नहीं कहता। वह जैसे महान् लोगों की भव्य सफलताओं को प्रदर्शित करता है, वैसे ही उनकी निराशाजनक असफलताओं को भी। इस प्रकार वह उन व्यक्तियों और संगठनों को उनके समग्र स्वरूप में देखने में हमारी सहायता करता है, जिनके हाथों राष्ट्रों की नियतियाँ गढी गयी हैं। उदाहरणार्थ- भारत के कुछ ही दिनों पूर्व के ऐतिहासिक स्वातन्त्र्य-संघर्ष में ऐसे लोगों द्वारा , का संतुलित मूल्यांकन उन सब क्षेत्रों में भी उनकी भूमिकाओं का आकलन करने पर ही संभव होगा।

निभायी गयी भूमिकाएँ उन सभी के उज्ज्वल और अनुज्ज्वल रूपों को प्रकट कर देती हैं। वे नेता स्वाधीनता-संघर्ष के निर्विवाद नायक थे जिन्होंने विदेशी शासन के प्रति राष्ट्र के अन्तःकरण में दबी हुई वीरतापूर्ण प्रतिरोध की चिनगारी को प्रज्ज्वलित किया था। उनमें से थोड़े से व्यक्तियों द्वारा राष्ट्रीय पुनर्जागरण के अनेक अन्य क्षेत्रों में निभायी गयी भूमिकाएँ भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं थीं।

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