मेरी पिछली पुस्तक – अन्तर्जागरण: नव उपनिषदों के कुछ विशेष प्रकरण – की सफलता के पश्चात्, प्रतिज्ञानुसार, इस पुस्तक में पातञ्जल योगदर्शन पर लिखे मेरे लेखों का संग्रह प्रस्तुत कर रही हूं। ये वही लेख हैं जो कि आर्ष साहित्य प्रचार ट्रस्ट, दिल्ली, की पत्रिका दयानन्दसन्देश में पूर्व ही छप चुके हैं, तथापि पुस्तक के लिए इनमें कुछ सुधार व सामञ्जस्य लाया गया है। इसलिए पाठकों के लिए यह पुस्तक बहुत उपयोगी होगी, ऐसा मेरा विश्वास है। योगदर्शन षड्दर्शनग्रन्थों में से एक है। दर्शनग्रन्थ भारतीय विचारधारा की पराकाष्ठा हैं,
और क्योंकि भारतीय सूक्ष्म सोच ही विश्व में सबसे उत्कृष्ट रही है, इसलिए ये ग्रन्थ संसार-भर के सबसे अनमोल रत्न हैं। ये ग्रन्थ अवश्य ही क्लिष्ट हैं, परन्तु इनपर श्रम करना रत्नों की खान को खोदने के तुल्य है। वस्तुतः, इनको पढ़ना-पढ़ाना आर्यों (शिष्ट मानवों) का धर्म है।
पतञ्जलि मुनि कृत योगदर्शनम् एक अनुपम ग्रन्थ है जिसमें कि मुमुक्षु को मोक्ष का मार्ग बहुत ही स्पष्ट रूप से बताया गया है। जिसने अभी इस मार्ग पर पदार्पण ही किया है, या फिर जो कुछ समय से साधना में जुटा है – दोनों ही प्रकार के मुमुक्षुओं के लिए इस ग्रन्थ के उपदेश जानना अनिवार्य है। और मुमुक्षु ही क्यों, सभी साधारण जनों को भी इसमें वर्णित अष्ट अंगों, जीवन के व्यूह, आदि, सिद्धान्तों से परिचित होना चाहिए, क्योंकि इन सिद्धान्तों से सम्पूर्ण जीवन को सार्थक बनाया जा सकता है। बड़े ही स्पष्ट व सरल ढंग से ऋषि पतञ्जलि ने जीवन का सार, योगसाधना मार्ग, उसमें अवरोध, उनका निवारण, साधना के फल और अन्त में जीवन्मुक्त हो जाने का वर्णन किया है। –
प्रथम बार जब मैंने यह ग्रन्थ पढ़ा था, तो मुझे झटका लगा कि यहां परोपकार और यज्ञ के विषय में तो कोई चर्चा ही नहीं है, जो कि धर्म की नींव माने जाते हैं ! अनन्तर मुझे समझ में आया कि यह इसीलिए है कि यह उपदेश प्रथमतया संन्यासी या योगी के लिए है जिसका सारा समय अब साधना के लिए है। वह दूसरों को उपदेश देकर परोपकार करे तो भी वस्तुतः वह उसका कर्तव्य नहीं माना जा सकता, वह केवल उसका अन्यों पर अनुग्रह होता है। इसी प्रकार वह यज्ञकर्म से भी निवृत्त होता है। इसलिए यम-नियमों में इन दोनों का कोई संकेत नहीं है। तथापि योगदर्शन के उपदेश साधारण मनुष्यों को भी अपने जीवन में यथासम्भव उतारने आवश्यक हैं, नहीं तो जीवन निकल जाएगा और हमारी कुछ भी आध्यात्मिक उन्नति न हो पाएगी!
योग शब्द की व्युत्पत्ति तीन धातुओं से भावार्थक घञ् प्रत्यय लगकर होती है – • युज समाधौ – गहन ध्यान के अर्थ में । सो, यह योगदर्शन का विशेष विषय है।
युज संयमने – नियन्त्रण के अर्थ में। सो, जो यम, नियम, आदि, योग के अंश हमें स्वनियन्त्रण करने की सीख देते हैं, वे यहां लक्षित हैं।
. – युजिर् योगे – जुड़ने के अर्थ में । सो, इसके द्वारा आत्मा का परमात्मा के साथ योग होना, अथवा आत्मा का अपने साथ योग होना – क्योंकि शरीर में आते ही आत्मा अपने स्वरूप को भूलकर, शरीर को ही अपना स्वरूप मानने लगता है – ये दो अर्थ ग्रहण करने योग्य हैं। सम्भवतः, योग के साथ यही अर्थ लोक में सबसे अधिक प्रचलित है। और यही अर्थ सबसे महत्त्वपूर्ण भी है, क्योंकि यह अन्तिम लक्ष्य को द्योतित करता है।
इस प्रकार तीनों ही व्युत्पत्तियां योगदर्शन के लिए पूर्णतया उपयुक्त हैं। प्रत्युत यदि हम पतञ्जलि की परिभाषा देखें – योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः ॥१॥२॥ – तो चित्तवृत्तियों के निरोध में भी समाधि, स्वनियन्त्रण व आत्मदर्शन, ये तीनों ही अर्थ सन्निहित हैं। इन कारणों से 'योग' शब्द इस विषय की अत्युत्तम संज्ञा है।
योगदर्शन का प्राचीनतम भाष्य जो आज उपलब्ध है, वह है व्यास मुनि का । सम्भव है कि ये वही व्यास हों जिन्होंने महाभारत और उत्तरमीमांसा दर्शन भी लिखे। महाभारत का काल स्वयं बहुत पुरातन है। इससे कुछ संकेत मिलता है कि उससे पूर्ववर्ती योगदर्शन कितना पुरातन होगा ! इसके अतिरिक्त इस ग्रन्थ के काल के विषय में और कोई प्रमाण प्राप्त नहीं होता।
Reviews
There are no reviews yet.