मेरे शिष्यकल्प मित्र डॉ॰ कुन्दन कुमार मिश्र ने मुझसे साधिकार अनुरोध किया है कि मैं उनके कुमारसम्भव (पञ्चम सर्ग) के संस्करण की उपयुक्त भूमिका लिख दूँ जिससे यह सर्वोपयोगी हो सके। मेरी सारी कृतियाँ, जिनकी व्याप्ति सन् 1960 से अद्यावधि है, किसी-न-किसी व्यक्ति या संस्था के अनुरोध पर ही कृतित्व की श्रेणी में आ सकी हैं। अतः यह तथाकथित भूमिका भी मेरी कृतिमाला का एक अभिनव आघ्रेय सुमन है।
संस्कृत काव्य-जगत् में महाकवि कालिदास भारतीय भूमि में प्रायः दो हजार वर्षों से कवियों, भावकों तथा समीक्षक-रसिकों के मानस में गहराई से प्रविष्ट हैं जिससे उनके विषय में ‘श्रेष्ठ कवीनां खलु कालिदास :’ का उद्घोष संस्कृत के एक-एक साधक के कण्ठ में गुञ्जित होता है। पिछली दो-तीन शताब्दियों से कालिदास विश्व-पटल पर भी छाये हुए हैं जब विलियम जोन्स ने 1789 ई० में ही अभिज्ञानशाकुन्तल नाटक का अंग्रेजी अनुवाद प्रकाशित किया और 1791 ई० में ही इसका जर्मन अनुवाद भी प्रस्तुत हुआ जिस पर जर्मन महाकवि ने अपनी अमर प्रतिक्रिया पद्य में काव्यात्मक रूप से प्रकट की थी जिसका अंग्रेजी रूपान्तर है Wouldst thou see spring’s blossoms and the fruits of its decline. Wouldst thou see by what the souls enrupted, feasted, fed. –
Wouldst thou have this earth and heaven in one sole name combine. I name thee, O Shakuntal! And all at once is said.
अर्थात् वसन्त के पुष्प और ग्रीष्म के फल को, मन को तृप्त और मोहित करने वाले रसायन को, स्वर्गलोक और भूलोक को एकीभूत अपूर्व रूप में देखने की लालसा हो तो शाकुन्तल नाटक का अवलोकन, रसास्वादन करो। इस प्रशस्ति का संस्कृतानुवाद डॉ. वामन विष्णु मिराशी ने इस प्रकार किया हैवासन्तं कुसुमं फलं च युगपद् ग्रीष्मस्य सर्वं च यद् यच्चान्यन्मनसो रसायनमतः सन्तर्पणं मोहनम् । एकीभूतमभूतपूर्वमथवा स्वर्लोकभूलोकयो
रैश्वर्यं यदि वाञ्छसि प्रियसखे शाकुन्तलं सेव्यताम् ॥
ऐसा भावुक उद्गार अठारहवीं शताब्दी के कवि गेटे (Goethe) ने अपनी नाट्यरचना ‘फाउस्टस’ की प्रस्तावना में प्रकट किया था, जिससे पाश्चात्त्य समीक्षकों ने भारतीय कविता के प्रति अपनी आदरणीय दृष्टि डाली थी। तब से कालिदास को विश्वकवि की श्रेणी मिलने लगी।
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