आचार्य वाग्भट एक आयुर्वेदविद् होने के साथ-साथ उच्च कोटि के कवि भी हैं। इन्हें प्राचीन एवं मध्ययुगीन कड़ी के रूप में स्वीकार किया जाता है। इनकी रचना गुप्त काल की प्रतिनिधि रचना है। प्रारम्भ में आयुर्वेद समग्र रूप में था किन्तु कालान्तर में इसे आठ अङ्गों में विभाजित कर दिया गया। मानव जीवन की अपनी एक सीमा होने के कारण उन सभी अङ्गों का अध्ययन सम्भव नहीं था। इन्हीं विषयों को ध्यान में रखते हुए आचार्य वाग्भट द्वारा अष्टाङ्गहृदय की रचना की गयी। इस ग्रन्थ पर जितनी संस्कृत टीकाएं लिखी गयी उतनी किसी अन्य पर नहीं। यही इस ग्रन्थ की उपयोगिता को प्रमाणित करती है। इन सबमें अरुणदत्त कृत ‘सर्वाङ्गसुन्दरा’ एवं हेमाद्रि कृत ‘आयुर्वेद रसायन’ टीका का ही सर्वाधिक प्रचलन है। व्याख्याकार अरुणदत्त ने ‘हृदय’ के सूत्रों की व्याख्या के साथ-साथ सूत्रों में विद्यमान व्याकरण के सूत्रों एवं छन्दों का भी स्थान-स्थान पर उल्लेख किया है। मूल सूत्रों को स्पष्ट करने के लिए दोनों ही व्याख्याकारों ने ‘अष्टाङ्ग संग्रह’ को ही आधार के रूप में स्वीकार किया है।
चूंकि मूल ग्रन्थ एवं इनकी व्याख्यायें संस्कृत भाषा में ही उपलब्ध होने के कारण अति महत्वपूर्ण जनोपयोगी ज्ञान सामग्री का समुचित लाभ लोक सामान्य तक नहीं पहुंच पा रहा है। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए व्याख्याकार ने पठन-पाठन को रुचिपूर्ण एवं लोकप्रिय बनाने के लिए हिन्दी व्याख्या को महत्त्व दिया है। अनुवादक द्वारा विषयवस्तु के साथ-साथ भाषा के प्रवाह का विशेष ध्यान रखा गया है। व्याख्याकार ने कतिपय स्थानों पर वर्णित व्याकरण के सूत्रों एवं छन्दों को अनुवाद करते समय परिभाषित कर दिया है जिससे पाठक को विषय के हृदयाङ्गम में लेश मात्र भी कठिनायी का अनुभव न हो।
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