Vedrishi

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ऋग्वेद संहिता (5 भाग)

Rigved Samhita (set of 5 Vol.)

7,500.00

SKU 37791-CS00-SH Category puneet.trehan
Subject : Rigved Samhita (set of 5 Vol.), ऋग्वेद संहिता (5 भाग)
Edition : 2020
Publishing Year : 2020
SKU # : 37791-CS00-SH
ISBN : 9788170848417
Packing : Hardcover
Pages : 3312
Dimensions : 16X26X22
Weight : 300
Binding : Hardcover
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प्रस्तुत संस्करण के सन्दर्भ में

मानव चेतना के प्रथम उच्छ्वास ऋग्वेद के प्रौढ़ चिन्तन से प्रतीत होता है कि स्रष्टा ने अपनी सृष्टि के संरक्षण- संवर्धनार्थ जिन सिद्धान्त-तरङ्गों का रेडियो तरङ्गों की भाँति अन्तरिक्ष में प्रक्षेपण किया; उन्हें ऋषियों की तपःपूत मेघागत ग्राहक ऊर्जा ने यथावत् ग्रहण कर मन्त्र रूप में छन्दोबद्ध कर दिया है। ऋग्वेद का चिन्तन इतना पूर्ण, प्रौढ़, सार्वदेशिक और सार्वकालिक है कि उसे डारविन के विकासवाद के सिद्धान्त से जोड़कर देखा ही नहीं जा सकता है। उपवेदों, वेदाङ्गों, आरण्यकों, उपनिषदों, रामायण, महाभारत, पुराणों, सांख्य-योग-न्याय-वैशेषिक-मीमांसा वेदान्तादि दर्शनों में ही नहीं, अपितु विश्व के समस्त धर्म-दर्शनों, सम्प्रदायों के मूल में वेदों के सिद्धान्त वैसे ही व्याप्त देखे जा सकते हैं, जैसे कटक- कुण्डलादि स्वर्णाभरणों में कनक की व्याप्ति परिलक्षित होती है।

सृष्टि के संरक्षण एवं संवर्धन हेतु पर्यावरण-शोधन की बढ़कर आवश्यकता है, तदर्थ यज्ञ-कर्म की प्रधानता वेदों में है। तन-मन स्वस्थ रहे, इसके लिए ‘स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवांसस्तनूभिर्व्यशेम देवहितं यदायुः’ — ऋग्वेद (1.89.8) का कथन है। सामाजिक सौमनस्य, सौहार्द एवं सहयोगपूर्ण जीवन के लिए दशम मण्डल का अन्तिम सूक्त सं० 191 भरत वाक्य इव द्रष्टव्य है । वेदमन्त्रों के मन्थन से प्रकट अमृततत्त्व ही मानवता को अमरत्व प्रदान कर सकता है। आज मनुष्य भटक गया है, स्वार्थ साधन में संलग्न आत्मकेन्द्रित वह सब कुछ अपने लिए ही चाहता है; अपनी संकुचित परिधि से बाहर निकल कर वह सृष्टि के संरक्षणार्थ- संवर्धनार्थ जिसमें कि उसका अपना अस्तित्व (existence) निहित है, सोचने को तैयार ही नहीं है; संसार के संघर्षो विषमताओं, शोषणों, उत्पीडनों का मूल कारण यही है द्वेष, दम्भ, घृणा, अपहरण, अशान्ति आदि इसी . से है। ऋग्वेद कहता है-जीवन को दातव्य-प्रधान बनाओ, सूर्य-चन्द्र जैसा जीवन बनाओ, प्रकाश भरो अन्धकार हरो, उदार बनो। सूर्य-चन्द्र देते ही रहते हैं, वे लेते कुछ नहीं। अपने प्रकाश वितरण का ‘बिल’ वे नहीं भेजते हैं। यही कल्याण का मार्ग है, जिस पर चलकर व्यक्ति, समाज और राष्ट्र सभी का समान हित सन्निहित है; यथा— ‘स्वस्ति पन्थामनुचरेम सूर्याचन्द्रमसाविव’ (ऋग्वेद 5.51.15) । सकारात्मक जीवन-दर्शन कल्याणहेतुक है, जिसका संक्षिप्त प्रारूप इस मन्त्र में प्रस्तुत है-

‘भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवा भद्रं पश्येमाक्षभिर्वशः स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवांसस्तनूभिर्व्यशेम देवहितं यदायुः ॥ (ऋग्वेद 1.89.8) इसका छन्दोबद्ध भाव-विस्तार इस प्रकार है-

देवगण कृपा वारि बरसाओ,
हमे इस भाँति समर्थ बनाओ,
हमारे श्रवण सुनें शुभ बात,
नयन का शुभ दर्शन से नात ।
स्वस्थ हो देह, पुष्ट हो अङ्ग, शक्ति सम्पन्न बने सभी प्रत्यङ्ग, देव-आराधन में संलग्न आयु पूरी सौ वर्ष दिलाओ। देवगण…..

जीवन-जगत् का ऐसा कोई भी अंग नहीं है, जिसकी चर्चा वेदों में न हो। आवश्यकता है तल में प्रविष्ट होकर उन्हें समझने और समझाने की। किन्तु इस पथ में वेदों की भाषा और शैलीगत दुरुहता दुर्लभ्य चट्टानवत् खड़ी हो जाती है। इसी दुरूहता को दूर करने के उपायरूप में प्रस्तुत भाष्य को देखा जा सकता है। इस भाष्य में प्रथम सबसे ऊपर मन्त्र के केन्द्रीय भावबोधक शीर्षक को दिया गया है, फिर शब्दार्थ, फिर भावार्थ फिर यथोचित टीका-टिप्पणी प्रस्तुत है कथित प्रक्रियाओं | मे गुजरा हुआ वेदार्थ सरस, सरल और और सुबोध हो, इसकी भरपूर चेष्टा की गई है। पाँच खण्डों में प्रस्तुत इस भाष्य के साथ- साथ वैदिक मन्त्रों के गूढ तात्पर्य को अधिकाधिक सुबोध एवं ग्राहा बनाने हेतु – हिन्दी साहित्य में भी समानरूप से अधिकार रखने वाले विद्वान् लेखक, जो एक सुहृदय छायावादी कवि भी है, ने इसके प्रत्येक मन्त्र का हिन्दी में पद्यात्मक भावविस्तार भी प्रस्तुत किया है, जिसे उपरोक्त भाष्य के प्रत्येक खण्ड के क्रम में ही विभाजित कर उसी प्रकार पाँच खण्डों में पृथक् से प्रस्तुत किया गया है। इस प्रकार यह सम्पूर्ण ग्रन्थ कुल 10 (5-5) खण्डों में प्रस्तुत किया गया है। इसके प्रथम खण्ड में समीक्षापरक भूमिका भी प्रस्तुत की गई है। आशा है, सुधी सहृदय पाठक भारतीय संस्कृति के मूल उत्स ब्रह्मवाणी वेद को समादृत कर विश्वस्तरीय प्रचार-प्रसार में योगदान देकर विद्वान् लेखक के श्रम को सफल करेंगे।

Weight 6150 g

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