आर्यसमाज की आस्तिकता •
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– पंडित क्षितीश वेदालंकार
आर्यसमाज आस्तिकता का पक्षपाती है, परन्तु अन्य आस्तिक मतों से आर्यसमाज की आस्तिकता भिन्न है। अन्य आस्तिक मत किसी-न-किसी साकार या व्यक्ति-रूप ईश्वर (Personal God) में विश्वास करते हैं या अनेक देवों को आराध्य मानते हैं; जबकि आर्यसमाज केवल एक निराकार, सर्वव्यापक, सर्वज्ञ और सर्वशक्तिमान् ईश्वर में विश्वास करता है। निराकार ईश्वर अवतार लेकर या जन्म धारण करके साकार नहीं बन सकता। सर्वज्ञ ईश्वर को किसी काल विशेष की सीमा में नहीं बांधा जा सकता। ईश्वर सर्वव्यापक है, इसलिए वह किसी मन्दिर, मस्जिद या गुरुद्वारे में, या क्षीर-सागर और कैलास में, या चौथे या सातवें आसमान पर विराजमान नहीं हो सकता। सर्वशक्तिमान् होने के नाते रावण या कंस या शिशुपाल जैसे अत्याचारियों को मारने के छोटे-मोटे कार्यों के लिए उसे अवतार लेने की भी आवश्यकता नहीं।
निराकार होने के नाते किसी मूर्ति में ईश्वर के विग्रह की कल्पना करना गलत है और न ही मूर्ति के माध्यम से उसकी उपासना की जा सकती है। ईश्वर का साक्षात्कार केवल आत्मा के अन्दर ही सम्भव है, क्योंकि वहां आत्मा और परमात्मा दोनों एक-साथ विद्यमान हैं, जबकि मूर्ति में परमात्मा की विद्यमानता स्वयं-सिद्ध होने पर भी किसी तरह जीवात्मा की विद्यमानता सिद्ध नहीं की जा सकती। परमात्मा का दर्शन वहां ही सम्भव है, जहां आत्मा और परमात्मा दोनों ही साथ-साथ विद्यमान हों; और वैसा स्थान केवल जीवात्मा में ही सम्भव है, मूर्ति में नहीं। इसलिए अष्टधा या नवधा भक्ति से या अनेकधा पूजा विधियों से नहीं; प्रत्युत योगदर्शन द्वारा वर्णित अष्टांग योग के मार्ग से ही; जिसमें यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि का समावेश है, परमात्मा की प्राप्ति सम्भव है। ('चयनिका' से)
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