ब्रह्मचर्य ही जीवन है, अब्रहाचर्य मृत्यु है
प्राचीन भारतीय संस्कृति और जीवन पद्धति जिन व्यवस्थाओं पर टिकी हुई है उनमें’ ब्रहाचर्य’ सर्वप्रथम और सब से महत्त्वपूर्ण आधार है। यह समझिए कि ब्रहाचर्य वह नींव है जिस पर वैदिक संस्कृति का वैभवशाली महल स्थित है। और ब्रहाचयं वह प्राणशक्ति है जिस से स्वस्थ जीवन संचालित रहता है, स्वस्थ मन उत्प्रेरित होता है।
ब्रह्मचर्य ही जीवन है, शक्ति है
ब्रह्मचर्य व्यापक अर्थ में ब्रह्मचर्य नामक आश्रम का बोधक है, जिस आश्रम का पालन कर के बालक और बालिकाएँ विद्या तथा शरीर बल का संचय करते हैं। ब्रह्म का अर्थ ईश्वर, वेद और तेज हैं। ब्रह्मचर्य आश्रम में इन्हीं गुणों का संचय किया जाता है और जीवन को समर्थ बनाया जाता है। विशेषार्थ में ब्रह्मचर्य का अर्थ है- वीर्य की रक्षा करके उसे जीवन की ओज धातु के रूप में परिणत करना। यही ओज धातु प्राणशक्ति, चेतना, आयु तेज और सक्रियता की जननी है। योगदर्शन में महर्षि पतंजलि ने पाँच यमों में ब्रह्मचर्य को स्वीकार कर के उसे योगसाधना का अंग माना है। ब्रह्मचर्य की सिद्धि का लाभ दर्शाते हुए वे लिखतें हैं-
ब्रह्मचर्य प्रतिष्ठायां वीर्यलाभः ॥ २.३८ ॥
अर्थात् – ब्रह्मचर्य की सिद्धि कर लेने से वीर्य का लाभ होता है। वीर्य का अर्थ है-बल या तेज। वीर्य से शारीरिक तथा आत्मिक बल की वृद्धि होती है। ब्रह्मचर्य हीन व्यक्ति निस्तेज, निर्बल और कमजोर आत्मा का होता है। वीर्य ही वह शक्ति है जिससे शरीर में बल का संचार होता है और आत्मिक बल का विकास होता है। वीर्यहीन व्यक्ति जहाँ अनेक शारीरिक रोगों से आक्रान्त रहता है वहीं इच्छाशक्ति के अभाव रूप मानसिक रोग से ग्रस्त रहता है। दुर्बल मानस का व्यक्ति मानसिक रोगों से पीड़ित रहता है। वह किसी भी प्रकार का दृढ़ निश्चय नहीं कर पाता। सबल मानस का व्यक्ति साधारण भयों से तो घबराता ही नहीं, वह मृत्यु जैसे महाभय को भी पराजित कर देता है। अथर्ववेद ने ब्रह्मचर्य के इस महत्त्व पर ओजस्वी
वाणी में प्रकाश डाला है-
ब्रह्मचर्येण तपसा देवा मृत्युमपाघ्नत । इन्द्रो ह ब्रह्मचर्येण देवेभ्यः स्वराभरत् ॥ – अथर्ववेद ॥
अर्थात् – ‘ब्रह्मचर्य की साधना के बल से विद्वानों ने मृत्यु पर विजय प्राप्त की है। निश्चय ही परमात्मा ने ब्रह्मचर्य के द्वारा देवताओं के लिए दिव्य धन प्राप्त कराया है।’
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