हिन्दुओं के १६ संस्कार – भाग (३/९)
16 Sanskārs of Hindus – Part (3/9)
संस्कार का सामान्य अर्थ है-किसी को संस्कृत करना या शुद्ध करके उपयुक्त बनाना। किसी साधारण या विकृत वस्तु को विशेष क्रियाओं द्वारा उत्तम बना देना ही उसका संस्कार है। यह सुधार वर्तमान-स्थिति से उन्नत-स्थिति में आने के लिए होता है। वैदिक विचारधारा मानव को मात्र शरीर नहीं मानती जिसे भूख-प्यास लगती है, जिसने काम करते हुए एक दिन मर जाना है। वैदिक संस्कृति अनुसार मनुष्य जन्म का उद्देश्य अच्छे संस्कारों द्वारा मन और बुद्धि पर पड़ी मैल (बुरे संस्कार) को धोना है।
आत्मा ने न जाने कितने ही जन्म लिए है। प्रत्येक जन्म में इस आत्मा के साथ जुड़े मन एवं बुद्धि पर प्रभाव पड़े है। भौतिकवाद व अन्य संप्रदायों के मत से भिन्न वैदिक संस्कृति संस्कारों द्वारा मानव का नित नव-निर्माण करना चाहती है। यह संस्कृति संस्कारों द्वारा मानव की मानवीयता को उच्चत्तम शिखर पर ले जाना चाहती है।
सामान्य भाषा में हम इन प्रभावों को संस्कार भी कहते हैं। ये प्रभाव भी पुराने प्रभाव में परिवर्तन (सुधार) लाते हैं। यह परिवर्तन अच्छा अथवा बुरा हो सकता है, जिसे अच्छा या बुरा संस्कार पड़ना कहा जाता है।
जब आत्मा मनुष्य योनि में तन धारण करती है तब उस पर संस्कार पड़ने अनिवार्य हैं। वैदिक संस्कृति की व्यवस्था में रचित संस्कारों की श्रंखला से उसे एक कवच द्वारा सुरक्षा प्रदान करने का प्रयास किया जाता है कि उस पर कोई अशुभ संस्कार न पड़े। यदि कोई व्यवस्था नहीं होगी तो अच्छे संस्कारों के स्थान पर बुरे संस्कारों के पड़ने की संभावना अधिक है। ऐसे में मानव-निर्माण के स्थान पर मानव-बिगाड़ होगा। यह मनुष्य जन्म ही है जिसमें नए जन्म के संस्कारों से मन की पुरानी मैल को धोया जाएगा और मन पर नए संस्कारों के रंग से नया चित्र बनाया जाएगा।
४) जातकर्म संस्कार: सन्तान के जन्म लेने के पश्चात जो कर्म किए जाते हैं वे जातकर्म कहलाते हैं। इन्हें ‘कर्म’ न कह कर ‘संस्कार’ इसलिए कहा गया है क्योंकि जन्म के उपरांत किए जाने वाले कर्मों के साथ-साथ इसमें कुछ ‘संस्कार’ भी किए जाते है, जिनके द्वारा संतान के अनभिज्ञ होते हुए भी उस पर संस्कार डालने का प्रयास किया जाता है।
शिशु के मुख, नाक, कान आदि साफ करना – जन्म से पूर्व शिशु एक भिन्न वातावरण में होता है। वह मुख से भोजन नहीं लेता, नाक से श्वास नहीं लेता। उसे भोजन व अन्य सब कुछ जो उसे जीवित रहने के लिए व अपने विकास के लिए चाहिए, गर्भनाल से मिल रहा होता है। गर्भ में शिशु एक थैली (एमनियोटिक सैक) जो एक तरल (एमनियोटिक द्रव) से भरी होती है, मे सुरक्षित रहता है। जन्म के समय यह थैली फटती है और द्रव बाहर निकलता है जिसे साधारण भाषा में ‘पानी की थैली फटना‘ कहा जाता है। गर्भ में यह द्रव शिशु के मुख या कान में न चला जाए इसलिए प्रकृति ने शिशु का मुख, नाक श्लेष्म (बलगम) झिल्ली से बंद कर दिया होता है। बाह्य जगत में उसका माता के साथ शारीरिक संबंध टूट जाता है। अब शिशु की नाक साफ की जाती है कि वह श्वास ले सके। मुख साफ किया जाता है कि वह दूध, पानी आदि पी सके। कान साफ कर उनके पास कुछ कहा अथवा बजाया जाता है कि कान अपना काम करें। गर्भ में शिशु के शरीर पर एक स्निग्ध (चिकना) लेप होता है जो एमनियोटिक द्रव से उसकी त्वचा की सुरक्षा करता है। इस लेप को शिशु को स्नान करा कर उतारा जाता है। ये सभी कर्म कुशल दाई द्वारा किए जाते हैं।
सिर पर घी का फाया (कपड़े का टुकड़ा) रखना – सिर का वह स्थान जहाँ खोपड़ी की २ अस्थियां एवं माथे की २ अस्थियां मिलती हैं इस स्थान (इसे तालु (अंग्रेजी में फॉन्टानेल ) भी कहा जाता है; मुख में ऊपर के भाग को भी तालु कहते हैं) को दृढ़ बनाने से बच्चा स्वस्थ रहता है। तालु को पोषण तत्व पहुंचाने हेतु ऋषि सुश्रुत तालु पर घी का फाया रखने का सुझाव देते हैं। सिर पर घी अथवा तेल के प्रयोग से बच्चे की सर्दी, जुकाम आदि से भी सुरक्षा होती है।
फॉन्टानेल (नर्म स्थान): वह स्थान जहां ललाट की २ हड्डियां व २ पार्श्विका हड्डियां मिलती हैं फॉन्टानेल कहलाता है। माँ के गर्भ में शिशु की खोपड़ी की हड्डियाँ एक दूसरे से पूर्ण रूप से जुडी नहीं होती और उनके बीच में रिक्त स्थान होता है। इस रिक्त स्थान को नर्म स्थान भी कहा जाता है। प्रसव के समय इस रिक्त स्थान के होने से शिशु को सरलता से बाहर आने में सहायता होती है। सिर में २ फॉन्टानेल होते हैं। जिस स्थान पर पुरुषों की शिखा (चोटी) का मूल होता है वहाँ दूसरा रिक्त स्थान होता है। जब शिशु का मस्तिष्क बढ़ने लगता है तो इन नर्म (रिक्त) स्थानों के होने से सिर को फैलने व बढ़ते मस्तिष्क को समायोजित करने में सहायता होती है। लगभग १८ माह से २ वर्ष की आयु तक फॉन्टानेल नरम रहता है। २ वर्ष होने तक चारों अस्थियाँ पूर्ण रूप से जुड जाती हैं।
यदि खोपड़ी का आकार पहले से ही कठोर व दृढ़ होगा तो मस्तिष्क को खोपड़ी में समायोजित करने में कठिनाई होगी।
मस्तिष्क लगभग ६०% वसा व शेष ४०% जल, प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट और लवण का एक संयोजन है। मस्तिष्क स्वयं एक मांसपेशी नहीं है। इसमें न्यूरॉन्स और ग्लियाल कोशिकाओं सहित रक्त वाहिकाएं और तंत्रिकाएं होती हैं।
घी व मधु के आयुर्वेद के अनुसार अत्यधिक औषध गुण है। जातकर्म संस्कार में नवजात शिशु का इनसे परिचय हो जाता है। गर्भ में शिशु की आंतों में एक प्रकार का गहरे हरे रंग का मल (जातविष्ठा; अंग्रेजी में मेकोनियम) जम जाता है। इस मल को निकालने के लिए भी घी व शहद अति उत्तम हैं तथा शिशु इन्हे सरलता से चाट भी लेता है। स्वर्ण स्वास्थ्य के लिए अत्यंत उत्तम है इसलिए यदि संभव हो तो आयुर्वेद स्वर्ण शलाका (सलाई) से घी व शहद चटाने का सुझाव देता है। (क्रमश :- )
आयुर्वेद के अनुसार शहद अपने साथ ली जाने वाली औषधि के गुणों में वृद्धि करता है। नियम से स्वर्ण का आहार (भस्म, वर्क के रूप में) करने वाले लोगों पर विष का प्रभाव नहीं होता।
हम न भूलें कि
किन्ही परिवारों में जन्म पर शिशु के कान में ‘ओ३म’ कहते है। कुछ परिवार स्वर्ण शलाका से घी व शहद चटाते हुए ‘ओ३म’ लिखते हैं। यह क्रिया माता-पिता के लिए भी संस्कार है कि वे शिशु को वैदिक वातावरण देंगे। दम्पत्ति यहां अपने ऊपर बहुत बड़ा दायित्त्व लेते हैं।
पाश्चात्य देशों में चुम्बन का प्रचलन है परन्तु वैदिक संस्कृति स्पर्श का वर्णन करती है। चुम्बन से संक्रांत रोग होने का भय रहता है।
शिशु को गोद में लेकर उसकी नासिका द्वार की वायु का स्पर्श करने पर आप शिशु का ध्यान अपनी ओर खींच सकते है।
16 Sanskārs of Hindus – Part (3/9)
The general meaning of ‘sanskār’ is to make an ordinary or deformed thing better by purifying it through some special actions or process. This improvement is to bring someone/something from its current-state to an advanced-state. The Vedic philosophy does not consider the human being as a mere body which feels hunger, thirst, has to work and die one day. According to it, the purpose of human birth is to wash away the scum (bad imprints) lying on the mind and intellect through good sanskārs.
No one knows about the number of births a soul has taken! The experiences made in each life leave impacts on the mind and intellect associated with the soul. Unlike materialism and ideologies of other sects, Vedic culture seeks to improve the human beings constantly and wants them to take their humanity to the highest pedestal by leading the life in accordance with rituals.
In common language we call these ‘impacts’ also as sanskārs. These impacts also bring a change (improvement) in the already existing old impacts. This change can be good or bad, which is called good or bad sanskār.
When the soul takes birth as a human being, the mind and intellect are bound to be influenced by the experiences one makes. An effort is made to protect it from inauspicious happenings with a shield of rites, composed in the system of Vedic culture. If no protective system is available, there is a high risk of mind getting influenced by bad sanskārs instead of good sanskārs. This will lead to human being getting spoiled rather getting reformed. The betterment of the human being will not take place. In human birth the old scum of the mind will be washed away by the sanskārs of the new birth and a new imprint will be made on the mind with the colours of the new sanskārs.
4) Jātkarm Sanskār: The actions that are performed after the birth of a child are called Jātkarm. They have been called ‘Sanskār’ instead of ‘Karm’ because along with the tasks done after birth, some ‘sanskārs’ are also performed. Although the newborn child is unaware, an attempt is made to perform such rites on the child.
Cleaning baby’s mouth, nose, ears etc. Before birth, the baby is in a different environment. It does not take food through its mouth, does not breathe through nose. It is getting food and all necessary things to survive and grow from the placenta. In the womb the baby is protected in a sack (amniotic sack) that is filled with a liquid (amniotic fluid). At the time of birth, this sack bursts and fluid comes out which in simple language is also called as ‘burst of water sack’. In the womb, the nature has protected the mouth and nose of the baby with the mucous membrane, which does not allow this fluid to go into the mouth or ears of the baby. In the external world, baby’s physical relationship with its mother is broken. The nose of the baby is cleaned so that it can breathe. The mouth is cleaned so that it can drink milk, water etc. After cleaning the ears, something is said or sounded near the ears so that they also start functioning. In the womb, the body of the baby is covered with an aliphatic (greasy) coating that protects its skin from the amniotic fluid. This coating is taken off by bathing the baby. All these actions are performed by skilled midwives.
Putting piece of cloth dipped in ‘ghee’ on the head – the area of the head where the two bones of the skull and the 2 bones of the forehead meet (Fontanelle) should be strong. This is essential for the good health (mental and physical) of a child. Sage Sushrut suggests to apply oil or ghee on the fontanelle to provide nutrients to it. Applying ghee or oil on the head protects the child also from cold, flu, etc.
Fontanelle (soft spot): The place where 2 frontal bones and 2 parietal bones meet, is called fontanelle. In the mother’s womb, the bones of the baby’s skull are not fully joined to each other and there is a space between them. It is also called as soft spot. This space helps the baby at the time of delivery to come out easily. There are 2 fontanelles in the head. At the place where the root of the ‘Shikha or Choti’ of men is, is the second space. When a baby’s brain begins to grow, these soft spaces help the head to expand and accommodate the growing brain. The fontanelle remains soft till about 18 months to 2 years of age. By the age of 2 years, all the four bones join completely leaving no space between them. If the shape of the skull would have been already hard and firm, it would have been difficult for the skull to accommodate the growing size of the brain.
The brain is about 60% fat and the remaining 40% a combination of water, protein, carbohydrates and salts. The brain itself is not a muscle. It contains blood vessels and nerves, including neurons and glial cells.
Ghee and honey have immense medicinal properties according to Ayurved. In the Jātkarm Sanskār, the newborn baby gets introduced to them. In the womb, a type of dark green stool (meconium) accumulates in the intestines of the baby. A baby can lick ghee and honey easily and the mixture of these both is very good to remove meconium from baby’s body. Gold is also good for health and Ayurved suggests to make the newborn lick ghee and honey from golden needle.
(To continue :- )
According to Ayurved, honey enhances the properties of the medicine taken with it. There is no effect of poison on people who take gold (in the form of powder or thin foil) in their diet in a prescribed way.
Let us not forget that
In some families, ‘OM’ is uttered in the ear of the baby at birth. Some families write ‘OM’ on the tongue of the newborn with the ghee and honey mixture. By doing so the couple also takes a huge responsibility on themselves that they will provide Vedic environment to the child. This ritual is also a sacrament for the parents.
Kissing is prevalent in western countries but Vedic culture prefer gentle touch. There is a fear of newborn getting sick by kissing.
By holding the baby in your lap and touching the exhale of his nostrils, you can get the attention of the baby towards you.