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हिन्दुओं के १६ संस्कार – भाग (२/९)

16 Sanskārs of Hindus – Part (2/9)

गर्भाधान से पहले व गर्भ धारण होने के पश्चात भी जैसी शारीरिक व मानसिक स्थिति माता-पिता की होती है, उसका बहुत प्रभाव आने वाले शिशु पर पड़ता है। अधिकांशत: गर्भ धारण हो जाने के पश्चात पुरुष समझते हैं कि शिशु का विकास तो माँ के गर्भ में होना है अत: माता को सदा सचेत रहना चाहिए। वे अपने दायित्व से तनिक विमुख होने लगते हैं। पिता को ऐसा विचार कदाचित नहीं आना चाहिए। संतान के जन्म में नि:संदेह माता का पिता की अपेक्षा शारीरिक रूप से अधिक योगदान है। माता की अच्छी, तनाव रहित मानसिक स्थिति रहे इसमें पिता का नित्य सहयोग अनिवार्य है। अच्छी संतान के लिए गर्भावस्था की अवधि भी बहुत महत्त्वपूर्ण है। इस अवधि में डाले गए संस्कार जन्म-जन्मांतरों के पुराने संस्कारों को दबा सकते हैं। वे मन पर बने चित्र में बदलाव ला सकते हैं। हम सभी ने संभवत: महाभारत काल में अभिमन्यु को चक्रव्यूह तोड़ने का ज्ञान मां सुभद्रा के गर्भ में पिता अर्जुन द्वारा मिला था, सुना है। माता गर्भाधान के पश्चात जैसे वातावरण में रहेगी वैसा प्रभाव शिशु पर पड़ेगा। माता-पिता अपनी भावी संतान की जैसी कामना करते हैं वैसा वातावरण वे बनाए, वैसा आचरण वे करें कि भावी संतान में माता-पिता के सोचने-विचारने व कर्मों का प्रभाव पड़े।

२) पुंसवन संस्कार: गर्भ में जो शिशु है वह बलवान, निरोगी, हृष्ट-पुष्ट, लम्बी आयु जीने वाला, सुसंस्कारित, सुंदर, आदि हो ऐसी इच्छाएँ लगभग सभी माता-पिता की होती हैं (समाज में हो रहे गर्भपातों के कारण सभी माता-पिता ऐसे विचार रखते हैं, नहीं कहा जा सकता)। इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए मां के उदर में गर्भ ठहर जाने के २ अथवा ३ माह पश्चात पुंसवन संस्कार किया जाता है।

गर्भ ठहरने के पश्चात माता को गर्भ की रक्षा, वृद्धि एवं विकास के किए विशेष सावधानियां रखनी पड़ती हैं जिससे कि गर्भ स्थिर रहे न कि वह सूख जाए, मर जाए या स्राव ही हो जाए। आयुर्वेद के चरक-संहिता में इसका विस्तार से उल्लेख है। सावधानियां न लेने पर अकस्मात गर्भपात भी हो सकता है। जब संतान गर्भ में होती है तब माता के व्यवहार और आचरण का संतान के शरीर-निर्माण पर प्रभाव होता है। यह माता का कर्त्तव्य है कि संतान के शारीरिक-विकास को ध्यान में रखते हुए वह अपने खान-पान, रहन-सहन, व्यवहार आदि की ओर सजग व सावधान रहे कि उनका संतान पर किसी भी प्रकार का दुष्प्रभाव न पड़े। हम यह पाते भी हैं कि यदि किसी भी शारीरिक दोष के कारण गर्भवती स्त्री का जो भी अंग पीड़ित होता है, गर्भ में स्थित शिशु का वही अंग पीड़ित होने लगता है। आज हम सभी ने वंशानुगत (हैरिडिट्री) रोगों के बारे में सुना हुआ है। एलोपैथी भी अब अपनी खोजों के आधार पर यह स्वीकार कर रही है कि हमारे खान-पान, रहन-सहन, व्यवहार आदि का हमारे डी एन ए पर प्रभाव पड़ता है और वह बदल जाता है। यही कारण है कि आज चिकित्सक व इसका ज्ञान रखने वाले लोग ‘पौष्टिक आहार’ पर बल दे रहे हैं और ‘फास्ट फूड’ को अब ‘जंक फूड’ बता कर उससे दूरी बनाने को कह रहे हैं।

३) सीमन्तोन्नयन संस्कार: ‘सीमन्त’ शब्द का अर्थ है मस्तिष्क एवं ‘उन्नयन’ शब्द का अर्थ है विकास। इस प्रकार सीमन्तोन्नयन संस्कार गर्भ में पल रहे शिशु के मस्तिष्क के अच्छे विकास हेतु जो भी सुधार अनिवार्य हैं, उन पर केंद्रित है। पुंसवन संस्कार शारीरिक विकास का संस्कार है और सीमन्तोन्नयन संस्कार मानसिक विकास का संस्कार है। इस प्रकार ये दोनों संस्कार शिशु के शारीरिक व मानसिक विकास को समाहित करते हैं।

ऋषि सुश्रुत ने लिखा है कि गर्भ के पांचवे माह में शिशु का मन अधिक जागृत हो जाता है, छठे माह में बुद्धि व सातवें माह में अंग-प्रत्यंग अधिक व्यक्त होने लगते हैं। (अल्ट्रासाउंड तस्वीरें ऋषि सुश्रुत द्वारा लिखित शिशु के शारीरिक विकास की बातों की पुष्टि करती हैं) ऋषि सुश्रुत के अनुसार गर्भस्थ संतान का चौथे माह में मस्तिष्क का निर्माण होने लगता है। इस लिए सीमन्तोन्नयन संस्कार चौथे माह में किया जाता है। इस संस्कार का मूल उद्देश्य है कि माता यह भली प्रकार समझ ले कि अब से संतान के मानसिक विकास का दायित्त्व भी उस पर आ पड़ा है। वह अब से जो कुछ भी करे यह सोच समझकर करे कि उसके प्रत्येक विचार का प्रभाव उसके गर्भ में पल रही संतान पर परोक्ष रूप में पड रहा है।

संतान की इच्छा स्त्री-पुरुष दोनों ने की थी। माँ का दायित्त्व गर्भ धारण करने से अवश्य ही अधिक हो जाता है परन्तु पुरुष को कदाचित यह नहीं सोचना चाहिए कि उसका दायित्त्व कम हो गया है। पुरुष को सदैव यह स्मरण रहना चाहिए कि जैसा मानसिक जीवन वह दम्पत्ति व्यतीत करेगा उसी की छाप उनकी संतान पर पड़ेगी। गर्भवती स्त्री जिस भी प्रकार का चित्र अपने मन में बना लेगी वह उसी प्रकार की संतान को जन्म देगी। इसलिए उत्तम संतान के लिए दम्पत्ति को ऐसे वातावरण में रहना चाहिए जिससे संतान उत्तम व शुद्ध विचारों वाली हो। हम समाज में देखते भी हैं कि गर्भवती स्त्री को ज्ञानवर्धक, प्रेरणादायक पुस्तकें पढ़ने को, चित को शांति प्रदान करने वाला संगीत सुनने को, स्वच्छ-सुगंधित वातावरण में रहने को, कहा जाता है। गर्भवती स्त्री के विचारों को प्रभावित करने हेतु कक्ष में भिन्न-भिन्न तस्वीरें लगाई जाती है। उसके जीवन-साथी से सदैव यह अपेक्षा की जाती है कि वह निरंतर सुनिश्चित करे कि उसकी स्त्री चित से शांत, तनावरहित व चिंतामुक्त रहे। पति को भी सदा हंसमुख व प्रसन्न रहना चाहिए ताकि पत्नी अपने पति की और से भी निश्चिंत व आश्वस्त रहे। स्त्री के मस्तिष्क में यह विचार नहीं आए कि अब जब वह अपनी गर्भावस्था के कारण गृहस्थी की दिनचर्या में वैसा सहयोग नही दे पा रही जैसा वह गर्भावस्था से पहले देती थी, जिस कारण गृहस्थी अव्यवस्थित हो रही है अथवा उसके पति पर अनायास ही अधिक बोझ आ गया है जिसे उठाने में उसे कठिनाई हो रही है।

हम न भूलें कि

  • हिन्दू पुनर्जन्म में विश्वास रखते है। मृत्यु के पश्चात आत्मा के साथ मन, मन पर पड़े संस्कार व बुद्धि नए शरीर में जन्म लेते हैं। मन पर पड़े संस्कारों से ही व्यक्ति का स्वभाव बनता है जिसके वशीभूत वह कर्म करता है।

  • गर्भावस्था वह समय है जिसमें माता-पिता जैसी संतान वे चाहते उसे वैसे ढाल सकते है। जन्मोपरांत तो बाहर के समाज की परिस्थियों (चाहे वे अच्छी हो या बुरी) का प्रभाव प्रबल हो जाता है।

  • पश्चिम का समाज भी अब ‘व्यक्ति की मनोस्थिति का उसके स्वास्थ्य पर प्रभाव पड़ता है’ इसको स्वीकार कर रहा है। वहां कि सुशिक्षित जागरूक गर्भवती महिलाएँ स्वस्थ संतान हेतु अपनीमानसिक स्थिति को ओर सजग रहती हैं। (क्रमश :- )

16 Sanskārs of Hindus – Part (2/9)

The physical and mental condition of the parents before conception and even after conception has a big effect on the unborn child. Mostly after conception, men believe that as the development of the child will be in the mother’s womb, hence it is her responsibility to be always careful. Undoubtedly, the mother has more physical contribution than the father in the birth of a child. For a good, stress-free mental state of the mother, the constant support of the partner is essential. For a healthy child the pregnancy period is very important. Sanskārs given during this period can suppress the old sanskārs of earlier lives and can bring a change on the previous impressions on the mind. We all have probably heard that in the Mahābhārat period Abhimanyu got the knowledge of breaking the Chakravyuh from his father Arjun in the womb of her mother Subhadrā. The environment in which the mother will live after conception has correspondingly similar effect on the baby. Parents should think and behave in a way that is in accordance to their desires on the behavior of their future child. They should create an atmosphere around them to enable them do so.

2)Punsavan Sanskār: Nearly all parents wish for a healthy, cultured, beautiful, long-living, etc. child in the womb (due to child abortions happening in the society, it cannot be said that all parents have such desires)., Punsavan Sanskār is performed after 2 or 3 months of pregnancy to fulfill parent’s such wishes for a child. After conceiving, the mother has to take special precautions for the protection, growth and development of the fetus for a stable pregnancy. All about this is mentioned in detail in Charak-Samhitā of Ayurved. Accidental abortion can also occur if precautions are not taken. When the child is in the womb, then every action of the mother has an effect on the body of the child. It is the duty of the mother to keep the physical development of the child in mind. She should be careful about her food, lifestyle, behavior, etc. We find that if any part of the pregnant woman suffers due to any physical defect, the same part of the baby in the womb starts suffering. Today we all have heard about hereditary diseases. On the basis of new research and findings allopathy is also now accepting that our food, lifestyle, behavior etc. have an effect on our DNA and it can change. This is the reason that today doctors and people having knowledge of it are emphasizing on ‘nutritious diet‘ and calling ‘fast food’ as ‘junk food’ and asking people to distance themselves from such eating habits.

3) Sīmantonayan Sanskār: The word ‘Sīmant’ means mind and the word ‘Unnayan’ means development. In this way, Sīmantonayan Sanskār focuses on whatever improvements are necessary for the good development of the mind of the unborn child. Punsavan Sanskār is the sacrament of physical development and Sīmantonayan Sanskār is the sacrament of mental development. In this way, both of these sanskārs comprise the physical and mental development of the child.

Sage Sushrut has written that in the fifth month of pregnancy, the child’s mind becomes more awake, in the sixth month the intellect and in the seventh month the organs develop more. (Ultrasound pictures today confirm the physical development of the child as written by sage Sushrut) According to sage Sushrut, the brain of the fetus begins to form in the fourth month. For this reason, the Sīmantonayan ceremony is performed in the fourth month. The basic purpose of this sanskār is that the mother should understand fully that from now on the responsibility of mental development of the child has also fallen on her. She must be aware that whatever she does from now on, will have a direct or indirect effect on the child in her womb.

Both men and women have wished to have a child. Although the responsibility of the mother is more by conceiving, a man should not think that his responsibility has decreased. A man should always remember that the psychological life the couple will lead will have its imprint on their child. Whatever type of picture a pregnant woman makes in her mental frame, she will give birth to the same type of child.

Therefore, to have a child as desired, the couple should live in such an environment so that the child is of good and pure thoughts. We see in the society also that a pregnant woman is asked to read informative, inspirational books, listen to music that gives peace to her mind, to live in a clean-, pleasant-smelling environment. Different pictures are put in the room to influence the thoughts of the pregnant woman. It is always expected from her life partner that he should constantly ensure that his wife remains calm, stress free and worry free. The husband should always be cheerful and happy so that the wife is not worried of his well-being. She should never think that now due to her pregnancy she is not able to cooperate in the household as she used to before pregnancy. She should not get the feeling that the household is getting disorganized or her husband is unintentionally more burdened and finding it difficult to cope up with the household. (To continue :- )

Let us not forget that

  • Hindus believe in reincarnation. After death, the mind (and also the impressions on mind; sanskārs) and intellect leave the body along with soul to take new birth. The character of a person is formed by the sanskārs lying on the mind, under whose influence and control the person acts and behaves.

  • Pregnancy is the time in which parents can mold their to be born child as they wish. After birth, the influence of the external social conditions (whether they are good or bad) becomes strong.

  • The society of the West is also now accepting that ‘the state of mind of a person has an effect on his health’. A well-educated pregnant woman is lot more aware and cautious of her mental state for a healthy child.

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यहाँ पर कुछ विशेष लेखों को ब्लॉग की रूप में प्रेषित क्या जा रहा है। विभिन्न विद्वानों द्वारा लिखे गए यह लेख हमारे लिए वैदिक सिद्धांतों को समझने में सहायक रहें गे, ऐसी हमारी आशा है।

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