हिन्दुओं के १६ संस्कार – भाग (१/९)
संस्कार शब्द का मूल अर्थ ‘शुद्धिकरण‘ है। चरक ऋषि ने कहा है, ‘संस्कारो हि गुणान्तराधानमुच्यते‘ अर्थात पहले से विद्यमान दुर्गुणों को हटा कर उनके स्थान पर सदगुणों को स्थापित करना संस्कार कहलाता है। ‘संस्कार’ शब्द का प्रयोग हमारे मन पर पड़े भावों के लिए भी होता है। हमारी सभी प्रवृतियों का संप्रेरक हमारे मन में पलने वाला संस्कार होता है। प्राचीन भारतीय ग्रंथों में व्यक्ति (एवं व्यक्तित्व) निर्माण पर बहुत बल दिया गया है। हिन्दू संस्कारों की इसमें महत्वपूर्ण भूमिका है। ये सुधार (शुद्धि) मन, बुद्धि, वाणी, कर्म और शरीर के सुधार हैं। चूँकि जीवनपर्यन्त सुधार की आवश्यक्ता हो सकती है अत: हमारे ऋषियों ने जन्म से मृत्यु तक जीवन के विभिन्न चरणों के लिए संस्कार सुझाएँ हैं।
किसी भी सुधार का परिणाम बुद्धि द्वारा उसके लिए आवश्यक क्रिया को स्वीकारने पर अत्यंत निर्भर है। यदि हमारी बुद्धि किसी कार्य के उद्देश्य को स्वीकार करती है तो हमारे भीतर उस कार्य को सम्पन्न करने हेतु उत्साह, प्रेरणा व ऊर्जा का संचार होता है। इसके विपरीत यदि बुद्धि उस कार्य के हेतु को समझ नहीं पाती परन्तु हमें किन्ही कारणों से फिर भी वह कार्य करना पड़ता है तो ऐसे में हमें वह कार्य बोझ समान प्रतीत होता है। हम निरुत्साहित से उस कार्य को करते हैं व हमारे भीतर सदा यह विचार चलता रहता है कि वह कार्य शीघ्र समाप्त होवे।
गर्भाधानं पुंसवनं सीमंतो जातकर्म च।
नामक्रियानिष्क्रमणेअन्नाशनं वपनक्रिया:।
कर्णवेधो व्रतादेशो वेदारंभक्रियाविधि:।
केशांत स्नानमुद्वाहो विवाहाग्निपरिग्रह:।
त्रेताग्निसंग्रहश्चेति संस्कारा: षोडश स्मृता:।
(व्यासस्मृति १/१३-१५)
महर्षि वेदव्यास रचित व्यासस्मृति में हमें उपरोक्त १६ संस्कारों का उल्लेख मिलता है। ये संस्कार हैं :
१): गर्भाधान २): पुंसवन ३): सीमन्तोन्नयन ४): जातकर्म
५): नामकरण ६): निष्क्रमण ७): अन्नप्राशन ८): चूड़ाकर्म
९): कर्णवेध १०): उपनयन ११): वेदारम्भ १२): समावर्तन
१३): विवाह १४): वानप्रस्थ १५): संन्यास १६): अन्त्येष्टि
संस्कारों को मन पर बने एक चित्र की भांति समझा जा सकता है। (मन व उस पर पड़े संस्कार: अन्य लेख में) यह चित्र नित नए कर्मों (अनुभवों) से गहरा, फीका व बदल सकता है। मृत्यु होने पर मन आत्मा के साथ देह का त्याग कर देता है। मन पर पड़ा यह संस्कारों का चित्र जैसा था वैसा रह जाता है। नया जन्म मिलने पर आत्मा के साथ मन संस्कारों के उस पुराने चित्र के साथ नए शरीर में आता है। हमने अवश्य ही अपने बड़े-बुजुर्गों से सुना है कि संस्कार जन्म-जन्मांतरों तक साथ (आत्मा के) चलते हैं व आत्मा की उन्नति अथवा अवनति (नए जन्म की योनि व श्रेणी; जैसे मनुष्य योनि में ही स्वस्थ देह अथवा रोगी देह के साथ जन्म समान नहीं है) का कारण बनते हैं। शिशु जब जन्म लेता है तब वह अपने साथ अपने पिछले जन्मों के संस्कार लाता है। अपने जीवन में वह अपने परिवार, संबंधियों, परिजनों, समाज, आदि जिनके सम्पर्क में भी वह आता है उनके प्रभाव से नए संस्कार पाता है अथवा पुराने संस्कारों को दृढ़ या धूमिल करता है। यह संस्कार अच्छे व बुरे (जिनसे आत्मा की उन्नति अथवा अवनति होती हो) हो सकते हैं।
जिस प्रकार सुनार अशुद्ध स्वर्ण को अग्नि में तपा कर उसकी अशुद्धियाँ निकाल कर उसे शुद्ध करता है उसी प्रकार वैदिक संस्कृति में बालक (एवं बालिकाएं; लेख में मात्र सुविधा हेतु पुल्लिंग प्रयोग किया गया है। वैदिक संस्कार दोनों के लिए समान हैं) को संस्कारों की अग्नि में तपा कर दुर्गुणों से शुद्ध कर सदगुण स्थापित करने का प्रयास किया जाता है।
ये १६ संस्कार हमारे ऋषियों द्वारा रचित उस योजना का अंग है जिसमें मानव निर्माण हेतु अच्छे संस्कारों को विकसित होने का अवसर एवं वातावरण मिले और साथ-साथ बुरे संस्कारों को चाहे वे पिछले जन्मों के हों अथवा इस जन्म में प्राप्त किए हों, निर्बीज कर दिया जाए। हमारे ऋषियों की यह योजना मानव के सर्वांगीण विकास पर केंद्रित है न कि मात्र भौतिक विकास पर।
१) गर्भाधान संस्कार: वैदिक संस्कृति गर्भाधान को श्रेष्ठ गुण, कर्म, स्वभाव वाली आत्मा के आह्वान हेतु पवित्र यज्ञ मानती है। जिस प्रकार एक किसान अपनी एक अच्छी उपज की कामना को अच्छी भूमि, अच्छे बीज, उत्तम खाद, जल, वातावरण तथा उसकी रक्षा आदि से सुनिश्चित करता है, उसी प्रकार एक श्रेष्ठ संस्कार वाली संतान की कामना के साथ संतान की कामना करने वाले माता-पिता को गर्भाधान से पूर्व तैयारी करनी होती है।
आयुर्वेद के अनुसार स्त्री व पुरुष दोनों ही एक निश्चित आयु के होने चाहिए जिससे कि स्त्री का गर्भाशय अपरिपक्व न रहें एवं पुरुष का वीर्य भी शिथिल न हो कर स्थिर व शक्तिवर्धक हो जाए। रज, वीर्य, लिंग व गर्भाशय की परिपक्वता निश्चित आयु का हो जाने पर स्वत: ही हो जाएगी ऐसा मान लेना उचित नहीं है। निश्चित आयु को प्राप्त होने से पहले दोनों ने ब्रह्मचर्य का कैसे पालन किया है, उनका खान-पान-विहार, दिनचर्या, अध्धयन, चिंतन आदि भी उनके शरीर व मनोविज्ञान पर अपना प्रभाव डालते हैं। आयुर्वेद विषयक ग्रंथों में इन विषयों पर विस्तार से बताया गया है। उन्हें अवश्य देखना चाहिए। (क्रमश :- )
भारतीय चिकित्साविज्ञान के तीन बड़े नाम हैं – महर्षि चरक, महर्षि सुश्रुत और महर्षि वाग्भट। चरक संहिता, सुश्रुतसंहिता तथा महर्षि वाग्भट का अष्टांगसंग्रह आज भी भारतीय चिकित्सा विज्ञान (आयुर्वेद) के मानक ग्रन्थ हैं।
हम न भूलें कि
हमारे कर्मों पर सदैव परिस्थियों का प्रभाव रहता है। भिन्न परिस्थितियों में समान कर्म के भिन्न परिस्थितियों के प्रभाव के कारण भिन्न परिणाम निकलते हैं। जैसे- यह सर्वविदित है कि पानी १००° से. पर उबलता है। यदि पानी उबालते समय हम बाह्य हवा के दबाव में परिवर्तन कर दें तो हम पानी को १००° से अधिक अथवा कम तापमान पर भी उबाल सकते हैं।
पश्चिमी चिकित्सा पद्धति भी वर्तमान में स्वस्थ शिशु के जन्म हेतु मादक पदार्थों के सेवन को न्यूनतम करने को एवं स्वस्थ भोजन ग्रहण करने को कहती है। गर्भाधान से पहले उनके कोई विशेष सुझाव नहीं हैं। गर्भाधान से पहले के समय के लिए भी उनका यही सुझाव होता है।
अपने भौतिकवाद के वातावरण के कारण एलोपैथी शरीर की भौतिक स्थिति के आगे सोच नहीं पाती है। अत: उसके सभी सुझाव इस भौतिक शरीर तक सीमित रह जाते हैं।
16 Sanskārs of Hindus – Part (1/9)
The root meaning of the word sanskār is ‘purification’. Sage Charak has said, ‘sanskāro hi guṇāntarādhānmuchyate’ that means removal of the already existing bad qualities and replacing them with good qualities and values is called sanskār. The word ‘sanskār’ is also used for the values-imprint on our mind. The motivator of all our habits and tendencies is the sanskār dwelling within ourselves. In ancient Indian texts, great emphasis has been laid on the development of the individual (and personality). Hindu rituals play an important role in this. These purification rituals are for the improvement of mind, intellect, speech, actions (karm) and body. As there is a need for improvement throughout one‘s life, our sages have suggested rituals for different stages of life starting from birth until death.
The outcome of any improvement is highly dependent on the acceptance of the required action by the intelligence of an individual. If our intellect accepts the reason and purpose of any work, then enthusiasm, and energy rises and we are inspired to complete that work. On the contrary, if the intellect does not accept the purpose but we still have to do that work due to some reasons, then that work seems like a burden to us.
garbhādhānam punsavanam sīmanto jātkarm cha
nāmkriyānishkramṇe annāshanam vapankriyā
karnvedho vratādeśho vedārambhkriyāvidhi
keshānt snānmudvāho vivahagniparigraḥ
tretāagnisangrahścheti sanskārā: śhodaśh smritā
(Vyāssmriti 1/13-15)
In Vyāssmriti composed by Maharishi Ved Vyās 16 rituals are mentioned. These rituals are:
1) Garbhādhān 2) Punswan 3) Sīmantonayan 4) Jātkarm
5) Nāmkaraṇ 6) Niśhkarmaṇ 7) Annprāśhan 8) Chudākarm
9) Karṇvedh 10) Upnayan 11) Vedārambh 12) Samāvartan
13) Vivāh 14) Vānprasth 15) Sannyās 16) Antyeśhti
Sanskārs can be understood like an impression on the mind. (The mind and its imprints: in another article) This impression can darken, fade or change with every new ‘karm’ of ours (deeds and their experiences). At death, mind leaves the body along with the soul. The impressions of these sanskārs lying on the mind remain as they were. With a new birth, the mind with previous impressions of sanskārs and the soul, get a new body. We must have heard from our elders that the sanskārs go along (with the soul) birth after birth, and control the progress or degradation of the soul (the type and category of the new birth is always different; birth of a human being with a healthy body or an unhealthy body cannot be considered as same). A child is born with sanskārs from his previous lives. In his present life, the influence of his family, relatives, society, atmosphere etc. weakens or strengthens his old sanskārs and also give him new sanskārs. These sanskārs can be good or bad (which lead to the advancement or degradation of the soul).
A goldsmith heats impure gold to purify it from impurities, similarly in Vedic culture also, efforts are made to purify souls by putting them in the fire of rituals to remove bad values from them. (In the article masculine gender has been used later for convenience. Vedic rites are same for male and female.)
These 16 sanskārs are part of the plan made by our sages in which good sanskārs get an opportunity and environment to develop. At the same time bad sanskārs, whether they are of previous lives or obtained in this birth, are tried to be removed from root. Our sages’ plan is focused on the all-round development of human beings and not just on material development.
1) Garbhādhān Sanskār (Conception): Vedic culture considers conception to be sacred for the invocation of a soul with superior values, karm and nature. A farmer ensures his desire for a good crop with good land, good seed, good manure, water, environment and its protection etc. similarly the parents have to prepare themselves before conception to be blessed with a child having good sanskārs.
According to Ayurved, both men and women should be of a certain age so that the woman’s uterus does not remain immature and the semen of the man should not be sluggish but become stable and strong. It is not correct to assume that semen, male organ, uterus and body maturity will happen automatically after attaining a certain age. How the couple has followed celibacy before attaining a certain age, their eating habits, routine, education, contemplation etc. also have their effect on their body and psychology. These topics have been explained in detail in the texts of Ayurved. One must read them. (To continue :- )
There are three big names of Indian medical science – Maharishi Charak, Maharishi Sushrut and Maharishi Vagbhat. Charak Samhitā, Sushrut Samhitā and Ashtāngsangrah of Maharishi Vagbhat are still the standard texts of Indian Medical Science (Ayurved).
Let us not forget that
Circumstances always have an effect on our actions. The same karm (action) under different circumstances produces different results. It is well known that water boils at 100°C. But if we change the outside air pressure while heating the water to boil it, then we can boil water at a temperature higher or lower than 100°C.
Western system of medicine (allopathy) currently also instructs us to minimize the consumption of drugs and to eat healthy food for the birth of a healthy baby. Allopathy does not have any special tips before conception. (They have the same suggestion for the time before conception.)
Allopathy is unable to think beyond the physical condition of the body due to its materialistic environment. Therefore all of its suggestions remain confined to this physical body.