Vedrishi

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ईश्वर स्तुति

वेदों में अनेक मन्त्र हैं, जिनमें परमात्मा की स्तुति, प्रार्थना और उपासना का उपदेश है. आइये पहले इसके अर्थों पर मनन करें।

स्तुति: ईश्वर के गुणों का चिन्तन करना, ईश्वर में प्रीति, उसके गुण, कर्म, स्वभाव से अपने गुण, कर्म, स्वभाव का सुधारना।

स्तुति 2 प्रकार की होती है:
१) सगुण स्तुति : ईश्वर में जो-जो गुण हैं, उन-उन गुणों के सहित स्तुति सगुण स्तुति कहलाती है। जैसे, ईश्वर पवित्र है, तो हम भी पवित्र बने।
२) निर्गुण स्तुति : जिस-जिस गुण से ईश्वर पृथक है, उन गुणों/अवगुणों से स्वयं को पृथक करना निर्गुण स्तुति कहलाती है। जैसे, ईश्वर निर्विकार है, तो हम भी निर्विकारी बने।

प्रार्थना: नम्रतापूर्वक ईश्वर से निवेदन करना, इससे निरभिमानता, उत्साह और सहायता मिलती है।

उपासना: अष्टांगयोग का अनुष्ठान करना। योग के 8 अंग निम्नलिखित हैं:
१) यम ( अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह)
२) नियम (शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय, ईश्वर-प्रणिधान)
३) आसन
४) प्राणायाम (वाह्यवृत्ति, आभ्यान्तरवृत्ति, स्तम्भवृत्ति, वाह्य-आभ्यान्तर-विषय-आक्षेपी)
५) प्रत्याहार
६) धारणा
७) ध्यान
८) समाधि

संयम उपासना का नवम् अंग है. अष्टांगयोग के निरन्तर अभ्यास से, शरीरस्थ मलदोष, चित्तस्थ विक्षेप-दोष, बुद्धिगत आवरण-दोष दूर होकर, परमात्मा का साक्षात्कार होता है।


अथ ईश्वर स्तुतिप्रार्थनोपासना मन्त्रा:
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सब संस्कारों के आरम्भ में, निम्नलिखित 8 मन्त्रों का पाठ और अर्थ द्वारा एक विद्वान् वा बुद्धिमान पुरुष, ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना और उपासना स्थिरचित्त होकर परमात्मा में ध्यान लगाकर करे, और सब लोग उसमें ध्यान लगाकर सुने और विचारें।

1.
ऋषि- नारायण, देवता- सविता, छन्द-गायत्री, गायन-स्वर- षडज
ओ३म् विश्वानि देव सवितार्दुरितानि परासुव यद् भद्रम् तन्न आसुव
– यजुर्वेद अध्याय-30, मन्त्र-3

अर्थ: हे (सवितः) सकल जगत के उत्पत्तिकर्त्ता, समग्र ऐश्वर्ययुक्त (देव) शुद्धस्वरुप, सब सुखों के दाता परमेश्वर ! आप कृपा करके (नः) हमारे (विश्वानि) सम्पूर्ण (दुरितानि) दुर्गुण, दुर्व्यसन और दुःखों को (परासुव) दूर कर दीजिये. (यत्) जो (भद्रम्) कल्याणकारक गुण, कर्म, स्वभाव और पदार्थ हैं, (तत्) वह सब (नः) हमको (आसुव) प्राप्त कीजिये।


2.
ऋषि- प्रजापति, देवता-हिरण्यगर्भ, छन्द- आर्षी त्रिष्टुप, गायन-स्वर- धैवत
हि॒र॒ण्य॒ग॒र्भः सम॑वर्त॒ताग्रे॑ भू॒तस्य॑ जा॒तः पति॒रेक॑ आसीत् । स दा॑धार पृथि॒वीम् द्यामु॒तेमाम् कस्मै॑ दे॒वाय॑ ह॒विषा॑ विधेम ॥
– यजुर्वेद अध्याय-25, मन्त्र-10, यजुर्वेद अध्याय-13, मन्त्र-4, ऋग्वेद मण्डल-10, सूक्त-121, मन्त्र-1

अर्थ: जो (हि॒र॒ण्य॒ग॒र्भः) स्वप्रकाशस्वरुप और जिसने प्रकाश करने वाले सूर्य-चन्द्रमादि पदार्थ उत्पन्न करके धारण किये हैं, जो (भू॒तस्य॑) उत्पन्न हुए सम्पूर्ण जगत् का (जा॒तः) प्रसिद्ध (पति॒:) स्वामी (एक॑) एक ही चेतनस्वरूप (आसीत्) था, जो (अग्रे॑) सब जगत् के उत्पन्न होने से पूर्व (सम॑वर्त॒त) वर्त्तमान था, (स:) वह (इमाम्) इस (पृथि॒वीम्) भूमि (उत) और (द्याम्) सूर्यादि को (दा॑धार) धारण कर रहा है, हमलोग उस (कस्मै॑) सुखस्वरूप (दे॒वाय॑) शुद्ध परमात्मा के लिए (ह॒विषा॑) ग्रहण करने योग्य योगाभ्यास और अतिप्रेम से (विधेम) विशेष भक्ति किया करें।

3.
ऋषि- प्रजापति, देवता-परमात्मा, छन्द- निचृत्त्रिष्टुप्, गायन-स्वर- धैवत
य आ॑त्म॒दा ब॑ल॒दा यस्य॒ विश्व॑ उ॒पास॑ते प्र॒शिषं॒ यस्य॑ दे॒वाः । यस्य॑ छा॒यामृतं॒ यस्य॑ मृ॒त्युः कस्मै॑ दे॒वाय॑ ह॒विषा॑ विधेम ॥
– ऋग्वेद मण्डल-10, सूक्त-121, मन्त्र-2, यजुर्वेद अध्याय-25, मन्त्र-13

अर्थ: (य:) जो (आ॑त्म॒दा) आत्मज्ञान का दाता, (ब॑ल॒दा:) शरीर, आत्मा और समाज के बल का देने वाला, (यस्य॒) जिसकी (विश्व॑) सब (दे॒वाः) विद्वान् लोग (उ॒पास॑ते) उपासना करते हैं, और (यस्य॑) जिसका (प्र॒शिषं॒) प्रत्यक्ष सत्यस्वरूप शासन, न्याय अर्थात् शिक्षा को मानते हैं, (यस्य॑) जिसका (छा॒या) आश्रय ही (अमृतम्) मोक्षसुखदायक है, (यस्य॑) जिसका न मानना अर्थात् भक्ति न करना ही (मृ॒त्युः) मृत्यु आदि दुःख का कारण है, हमलोग उस (कस्मै॑) सुखस्वरूप (दे॒वाय॑) सकल ज्ञान के देने वाले परमात्मा की प्राप्ति के लिए (ह॒विषा॑) आत्मा और अन्तःकरण से (विधेम) विशेष भक्ति अर्थात् उसी की आज्ञा-पालन करने में तत्पर रहे।

4.
ऋषि- प्रजापति, देवता-ईश्वर, छन्द- त्रिष्टुप्, गायन-स्वर- धैवत
यः प्रा॑ण॒तो नि॑मिष॒तो म॑हि॒त्वैक॒ इद्राजा॒ जग॑तो ब॒भूव॑ । य ईशे॑ अ॒स्य द्वि॒पद॒श्चतु॑ष्पद॒: कस्मै॑ दे॒वाय॑ ह॒विषा॑ विधेम ॥
– ऋग्वेद मण्डल-10, सूक्त-121, मन्त्र-3, यजुर्वेद अध्याय-25, मन्त्र-11

अर्थ: (यः) जो (प्रा॑ण॒त:) प्राणवाले और (नि॑मिष॒त:) अप्राणीरूप जगत् का (म॑हि॒त्वा) अपनी अनन्त महिमा से, (एक॒: इत्) एक ही (राजा॒) विराजमान राजा (ब॒भूव॑) है, (यः) जो (अ॒स्य) इस (द्वि॒पद॒:) मनुष्यादि और (चतु॑ष्पद॒:) गौ आदि प्राणियों के शरीर की (ईशे॑) रचना करता है, हमलोग उस (कस्मै॑) सुखस्वरूप (दे॒वाय॑) सकल ऐश्वर्य के देनेवाले परमात्मा के लिए (ह॒विषा॑) अपनी सकल उत्तम सामग्री से (विधेम) विशेष भक्ति करें।

5.
ऋषि- स्वयम्भू ब्रह्म, देवता-परमात्मा, छन्द- निचृत्त्रिष्टुप्, गायन-स्वर- धैवत
येन॒ द्यौरु॒ग्रा पृ॑थि॒वी च॑ दृ॒ळ्हा येन॒ स्व॑ स्तभि॒तं येन॒ नाक॑: । यो अ॒न्तरि॑क्षे॒ रज॑सो वि॒मान॒: कस्मै॑ दे॒वाय॑ ह॒विषा॑ विधेम ॥
– ऋग्वेद मण्डल-10, सूक्त-121, मन्त्र-5, यजुर्वेद अध्याय-32, मन्त्र-6
अर्थ: (येन॒) जिस परमात्मा ने (उग्रा) तीक्ष्ण स्वभाव वाले, (द्यौ:) सूर्य आदि (च॑) और (पृ॑थि॒वी) भूमि को (दृ॒ढा) धारण किया, (येन॒) जिस जगदीश्वर ने (स्व॑:) सुख को (स्तभि॒तम्) धारण किया, और (येन॒) जिस ईश्वर ने (नाक॑:) दुःखरहित मोक्ष को धारण किया है, (य:) जो (अ॒न्तरि॑क्षे॒) आकाश में, (रज॑स:) सब लोक-लोकान्तरों को (वि॒मान॒:) विशेष मानयुक्त अर्थात् जैसे आकाश में पक्षी उड़ते हैं, वैसे सब लोकों का निर्माण करता और भ्रमण कराता है, हमलोग उस (कस्मै॑) सुखदायक (दे॒वाय॑) कामना करने के योग्य परब्रह्म की प्राप्ति के लिए, (ह॒विषा॑) सब सामर्थ्य से (विधेम) विशेष भक्ति करें।

6.
ऋषि- प्रजापति, देवता-कः, छन्द- विराट्त्रिष्टुप्, गायन-स्वर- धैवत
प्रजा॑पते॒ न त्वदे॒तान्य॒न्यो विश्वा॑ जा॒तानि॒ परि॒ ता ब॑भूव । यत्का॑मास्ते जुहु॒मस्तन्नो॑ अस्तु व॒यं स्या॑म॒ पत॑यो रयी॒णाम् ॥
– ऋग्वेद मण्डल-10, सूक्त-121, मन्त्र-10
अर्थ: हे (प्रजा॑पते॒) सब प्रजा के स्वामी परमात्मा ! (त्वत्) आपसे (अन्य:) भिन्न दूसरा कोई (ता) उन (एतानि) इन (विश्वा॑) सब (जा॒तानि॒) उत्पन्न हुए जड चेतानादिकों को (न) नहीं (परि॒ब॑भूव) तिरस्कार करता है, अर्थात् आप सर्वोपरि हैं। (यत्का॑मा:) जिस-जिस पदार्थ की कामना वाले हमलोग, (ते) आपका (जुहु॒म:) आश्रय लेवें और वान्छा करें, (तत्) उस-उस की कामना (नः) हमारी सिद्ध (अस्तु) होवें। जिससे (व॒यम्) हमलोग (रयी॒णाम्) धनैश्वर्यों के (पत॑य:) स्वामी (स्याम) होवें।

7.
ऋषि- स्वयम्भू ब्रह्म, देवता-परमात्मा, छन्द- निचृत्त्रिष्टुप्, गायन-स्वर- धैवत
स नो बन्धुर्जनिता स विधाता धामानि वेद भुवनानि विश्वा । यत्र देवा अमृतमानशानास्तृतीये धामन्नध्यैरयन्तः॥
– यजुर्वेद अध्याय-32, मन्त्र-10
अर्थ: हे मनुष्यों ! (सः) वह परमात्मा (नः) अपने लोगों का (बन्धु:) भ्राता के समान सुखदायक, (जनिता) सकल जगत् का उत्पादक, (सः) वह (विधाता) सब कार्यों का पूर्ण करनेवाला, (विश्वा) सम्पूर्ण (भुवनानि) लोकमात्र और (धामानि) नाम, स्थान, जन्मों को (वेद) जानता है, और (यत्र) जिस (तृतीये) सांसारिक सुख-दुःख से रहित, नित्यानन्दयुक्त (धामन्) मोक्षस्वरुप धारण करनेहारे परमात्मा में (अमृतम्) मोक्ष को (आनशाना:) प्राप्त होके (देवाः) विद्वान् लोग (अध्यैरयन्तः) स्वेच्छापूर्वक विचरते हैं, वही परमात्मा अपना गुरु, आचार्य, राजा और न्यायधीश है, अपने लोग मिलकर सदा उसकी भक्ति किया करें।

8.
ऋषि- अगस्त्य, देवता- अग्नि, छन्द- निचृत्त्रिष्टुप्, गायन-स्वर- धैवत
अग्ने॒ नय॑ सु॒पथा॑ रा॒ये अ॒स्मान्विश्वा॑नि देव व॒युना॑नि वि॒द्वान् । यु॒यो॒ध्य॒॑स्मज्जु॑हुरा॒णमेनो॒ भूयि॑ष्ठाम् ते॒ नम॑उक्तिम् विधेम ॥
– ऋग्वेद मण्डल-1, सूक्त-189, मन्त्र-1
अर्थ: हे (अग्ने॒) स्वप्रकाश, ज्ञानस्वरुप, सब जगत् के प्रकाश करनेवाले (देव) सकल सुखदाता परमेश्वर ! आप जिससे (वि॒द्वान्) सम्पूर्ण विद्यायुक्त हैं, कृपा करके (अ॒स्मान्) हमलोगों को (रा॒ये) विज्ञान वा राज्यादि ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिए (सु॒पथा॑) अच्छे धर्मयुक्त आप्तलोगों के मार्ग से (विश्वा॑नि) सम्पूर्ण (व॒युना॑नि) प्रज्ञान और उत्तम-कर्म (नय॑) प्राप्त कराईये और (अस्मत्) हमसे (जुहुरा॒णम्) कुटिलतायुक्त (एनः) पापरूप कर्म को (यु॒यो॒धि) दूर कीजिये। इस कारण हमलोग (ते॒) आपकी (भूयि॑ष्ठाम्) बहुत प्रकार की स्तुतिरूप (नम॑:उक्तिम्) नम्रतापूर्वक प्रशंसा (विधेम) सदा किया करें और सर्वदा आनन्द में रहें।

वेदों के इन मन्त्रों में निहित उपदेशों के अनुसार, दृढनिष्ठा से परमात्मा की नियमित स्तुति, प्रार्थना और उपासना से हमारे अवगुणों का नाश और सद्गुणों का विकास होकर सांसारिक सुख एवं मोक्षसुख की प्राप्ति अवश्य होती है.

साभार: संस्कार-विधि (स्वामी दयानन्द सरस्वती)

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