वेदऋषि द्वारा आर्ष ग्रंथों के साथ-साथ अनार्ष ग्रन्थों के विक्रय का कारण
वेद ऋषि प्रकल्प द्वारा आज तक आर्ष ग्रंथों का ही विक्रय किया जाता रहा है किन्तु जिज्ञासु पाठकों द्वारा अनार्षकोटि के तथा कुछ अन्य मतों व मान्यताओं के साहित्यों की भी मांग की जा रही थी। शोधार्थियों को आर्ष ग्रंथों के अलावा ऐसे साहित्यों की आवश्यकता शोध कार्य के लिए होती है। तुलनात्मक और शोधान्वेषण हेतु अनार्ष कोटि के साहित्य हेतु लोगों को अन्य स्थान पर न जाना पड़े इसके लिए वेद ऋषि प्रकल्प में एक विभाग बनाकर इन साहित्यों को भी विक्रय के लिए सम्मलित किया जा रहा है। ऐसा करने का एक सीधा प्रभाव यह होगा कि जिन लोगों को आर्ष-अनार्ष में भेद ज्ञात नहीं वे लोग अनायास ही वेद-ऋषि प्रकल्प द्वारा आर्ष ग्रन्थों का भी क्रय कर सकते हैं तथा ऐसा संभव है कि इसके कारण उनकी विचारधारा में परिवर्तन हो। अनार्ष ग्रन्थों के विक्रय में हमारा मूल उद्देश्य इन ग्रन्थों का प्रचार नहीं अपितु इसका वास्तविक कारण यह है कि धरातल पर सत्य तो यह है कि साहित्य पठन-पाठन में लोगों की रूचि घटती जा रही है तथा उसके कारण इस प्रकल्प का संचालन उचित प्रकार नहीं हो पाता है। आचार्य चाणक्य की नीति अनुसार धर्म का मूल धन है, अतः जो धन हमारे लोगों को आवश्यकता पड़ने पर अन्यों को देना पड़ता है उसे क्यों न एक वैदिक साहित्य प्रचार संस्थान की ओर मोड़ दिया जावे ऐसा विचारकर यह कदम लिया गया है। वैदिक साहित्य प्रचार हेतु जनसामान्य लोगों को भी वैदिक साहित्य के प्रचार हेतु विचार करना चाहिए जैसे कि जन्मदिवस, विवाह, वर्षगाँठ आदि पर वैदिक पुस्तकों को उपहार में देना, तुलनात्मक पुस्तकों का अन्य मत-मतान्तर वालों के मध्य वितरण करवाना, अपने गाँव, शहर, मुहल्ले की पुस्तकालयों में वैदिक साहित्य सम्मिलित करवाना अथवा वैदिक पुस्तकालयों की स्थापना करना, गणमान्य लोगों को भेंट स्वरूप वैदिक साहित्य भेंट में देना आदि।
समष्टि समुदाय को आकर्षित करने हेतु तथा वैदिक साहित्य प्रचार को बल देने हेतु विभिन्न पाठकगणों को एक तल पर लाने के लिए सभी प्रकार के साहित्यों को एक ही माध्यम वेद ऋषि से प्राप्त करने की सुगमता अब आरंभ की जा रही है। सुधी-जनों के इसपर विचार हों तो उनका स्वागत है।
जिन पाठकगणों को जानकारी है वे अपने विवेकानुसार तथा महर्षि दयानन्द सरस्वती द्वारा दी गई परिभाषानुसार आर्ष और अनार्ष ग्रंथों की पहचान कर लेते हैं किन्तु नए पाठकगणों की सुविधा हेतु हमारी वेबसाईट पर उपलब्ध ग्रन्थों और साहित्य को आर्ष तथा अनार्ष ग्रन्थों में बाँटा गया है।
“महर्षि दयानंद जी के अनुसार ऋषि प्रणीत आर्ष ग्रंथों को इसलिए पढना चाहिए कि वे विद्वान, सर्वशास्त्रविद् और धर्मात्मा थे। किन्तु वहीं अनृषि लोगों अर्थात् अल्प शास्त्र पढे लोगों द्वारा ग्रन्थ त्रुटियों तथा पक्षपातयुक्त युक्त हो सकता है।”
सत्यार्थ प्रकाश अनुसार आर्ष ग्रंथ निम्न हैं –
पूर्व मीमांसा पर व्यासमुनि कृत व्याख्या, वैशेषिक पर गौतममुनिकृत प्रशस्तपाद भाष्य, न्यायसूत्र पर वात्स्यायनकृत भाष्य, सांख्य पर भागुरिमुनिकृत भाष्य, वेदान्त पर वात्स्यायनकृत अथवा बोधायनमुनि कृत भाष्य।
ऐतरेय, गोपथ, साम और शतपथ चारों ब्राह्मण, शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निघण्टु – निरुक्त, छन्द और ज्योतिष। आयुर्वेद, गंधर्ववेद, अर्थवेद और धनुर्वेद ये सभी ऋषि प्रणीत ग्रंथ हैं। इनमें भी वेदविरुद्ध को त्याग देना चाहिए।
अब अनार्ष ग्रंथ लिखते हैं –
व्याकरण में कातन्त्र, सारस्वत, चन्द्रिका, मुग्धबोध, कौमुदी, शेखर, मनोरमा आदि। कोश में अमरकोशादि, शिक्षा में श्लोकात्मक प्रचलित पाणिनि शिक्षा, ज्योतिष में शीघ्रबोध, मुहुर्तचिंतामणि आदि। काव्य में नायिकाभेद कुवलयानन्द, रघुवंश, माघ, किरातार्जुनीय आदि। मीमांसा पर धर्मसिंधु, व्रताकार्दि, वैशेषिक में तर्कसंग्रह, न्याय में जागदीशी आदि, योग में हठयोगप्रदीपिका आदि। सांख्य में सांख्यतत्वकौमुदी, वेदान्त में योगवासिष्ठ और वैद्यक में शार्ङ्गधरादि। मनुस्मृति के प्रक्षिप्त श्लोक तथा अन्य सभी स्मृतियां, सब तंत्र, पुराण, उपपुराण तथा तुलसीकृत भाषा रामायण आदि सब अनार्ष ग्रंथ हैं।
वेदऋषि