मर्यादापुरुषोत्तम राम और योगेश्वर श्रीकृष्ण भारतीय इतिहास के दो जाज्वल्यमान रत्न हैं। ये दोनों महापुरुष अनेक भूले-भटके लोगों के लिए प्रेरणा के स्रोत रहे हैं, हैं और रहेंगे। दोनों ही महापुरुषों का जीवन अति-पावन और पवित्र रहा है, परन्तु वाममार्ग के प्रभाव से इन पर साम्प्रदायिकता की धूल पड़ गई है। योगेश्वर कृष्ण के पावन जीवन को शुद्ध रूप में रखने के लिए अनेक आर्य-विद्वानों ने उनकी जीवनियाँ लिखीं परन्तु श्रीराम के जीवन पर कोई ऐसा ग्रन्थ नहीं रचा गया जो उनके पावन जीवन को शुद्ध रूप में पाठकों के समक्ष प्रस्तुत कर सके । इसी कमी को दूर करने के लिए यह प्रयास किया गया है। कहाँ श्रीराम का पावन जीवन और कहाँ मेरे जैसा एक साधारण लेखक ! हमारे ऊपर तो कालिदास का यह श्लोक पूर्णरूपेण चरितार्थ होता है-
क्व सूर्यप्रभवो वंश ? क्व चाल्पविषया मतिः ! तितीर्षुर्दुस्तरं मोहादुडुपेनास्मि सागरम् ।।
कहाँ सूर्य से उत्पन्न हुद्या वंश रघुकुल और कहाँ अल्प विषयों को ग्रहण करनेवाली मेरी बुद्धि ! मेरी स्थिति तो उस व्यक्ति की भाँति है जो अज्ञान से छोटी-सी डोंगी द्वारा दुस्तर सागर को पार करने की इच्छा रखता हो ।
श्रीराम के पावन चरित्र को चित्रण करने में मैं कहाँ तक सफल हुआा हूँ, यह निर्णय तो पाठकों के ऊपर ही है। हाँ, इस जीवन के स्वाध्याय से यदि एक व्यक्ति का भी सुधार हुआ तो मैं अपने परिश्रम को धन्य समझूंगा ।
महर्षि वाल्मीकि ने मुनिश्रेष्ठ नारद से पूछा, “भगवन् ! इस समय इस संसार में गुणी, शूरवीर, धर्मयज्ञ, सत्यवादी और दृढ़- प्रतिज्ञ कौन है ? सदाचारी, सब प्राणियों का हित करनेवाला, प्रियदर्शन, धैर्ययुक्त तथा काम-क्रोधादि शत्रुओं को जीतनेवाला कौन है ? मुझे यह जानने की प्रबल अभिलाषा है। महर्षे ! आप इस प्रकार के श्रेष्ठ पुरुष के जानने में समर्थ हैं, अतः मुझे बताइये ।”
महर्षि वाल्मीकि के ऐसा पूछने पर मुनिश्रेष्ठ नारद ने कहा, “महर्षे ! आपने जिन गुणों का वर्णन किया है वे बहुत, श्रेष्ठ और दुर्लभ हैं तथा उन सबका एक ही व्यक्ति में मिलना कठिन है, फिर भी आप द्वारा पूछे सभी गुणों से युक्त एक व्यक्ति हैं जो इक्ष्वाकु वंश में उत्पन्न हुए हैं और ‘राम’ नाम जगद्विख्यात हैं । वे अति बलवान्, धैर्ययुक्त, जितेन्द्रिय, बुद्धिमान्, प्रियवक्ता, शत्रुघ्रों के नाशक, धर्म के जाननेवाले, सत्यवादी, प्राणियों के हित में तत्पर, वेदों के ज्ञाता, धनुर्वेद में कुशल, आार्य, प्रियदर्शन, गम्भीरता में समुद्र के समान, धेयं में हिमालय के सदृश, पराक्रम में विष्णु के तुल्य, क्रोध में कालाग्नि जैसे, क्षमा में पृथिवी सम,
दान करने में कुबेर और सत्य बोलने में दूसरे धर्म के समान हैं।” त्रेतायुग के अन्त में सूर्यवंशी सम्राट् अज के दशरथ कोसल देश की राजधानी अयोध्यापुरी पुत्र महाराज में राज्य करते थे।
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