श्रीमद्भागवत महापुराण महर्षि बादरायण व्यास की तपस्या का निर्गलित अखण्ड फल है, उनकी सारस्वत साधना का सर्वस्व है, उनकी लेखनी का अमृत-निष्यन्द है। विश्ववन्द्य इस पुराण-रत्न को पढ़ने से ऐसा प्रतीत होता है कि महर्षि व्यास की लेखनी कल्पतरु की सुकुमार शाखा की बनी थी। वे कामधेनु के नवनीत को जलाकर मसी बनाते थे। उसमें अमृत की धार उड़ेल कर उसे तरल करते थे फिर भूर्जपत्र के अतिपावन खण्डों पर शारदी कौमुदी के पुनीत वितान के नीचे बैठकर श्रीमद्भागवत का ‘श्रीगणेशाय नमः’ किये थे। यदि यह बात न होती तो इस पुराण में द्राक्षा को माधुरी, ज्योत्स्ना की स्निग्धता तथा कुन्द की मादक सुरभि की उमड़ती पवित्र त्रिवेणी का पावन संगम कैसे होता? यदि हिमगिरि के उत्तुङ्ग शृङ्ग की ऊँचाई और सागर की गहराई का एकत्र आकलन करना हो तो आप श्रीमद्भागवत को, भागवत-हृदय को अवश्य पढ़ें।
महर्षि व्यास ने पुराणों की रचना त्रिविध भाषाओं में की है-लौकिक-भाषा, विचित्र अथवा परकीय-भाषा और समाधिभाषा। लौकिक-भाषा साधारण भाषा को, विचित्र-भाषा अध्यात्म-प्रधान भाषा को और समाधि- भाषा ब्रह्मानन्दमय भाषा को कहते हैं। इसी को इस प्रकार भी कह सकते हैं-साधारण भावों की अभिव्यक्ति लौकिक भाषा के द्वारा, अध्यात्म-प्रधान भावों का प्रकाशन विचित्र भाषा द्वारा और ब्रह्मानन्दमय भावों का प्रकटन समाधि-भाषा द्वारा किया गया है। भागवत समाधि-भाषा-प्रचुर पुराण है-“समाधिनाऽनुस्मर तद्विचेष्टितम्। “”
श्रीमद्भागवत समस्त वेद-वेदाङ्ग का सार है, ब्रह्मसम्मित है। “गीताभाष्यभूतोऽसौ ” के अनुसार यह श्रीमद्भगवद्रीता का भाष्य है। इसकी रचना संसार-सागर में डूबते-उतराते प्राणियों के उद्धार के लिये हुई है। यदि साहित्यिक, परिमार्जित एवं स्निग्ध भाषा की छिटकती छटा का दर्शन करना हो, समाधि-भाषा की अगाध गम्भीरता की अनुभूति करनी हो और शैली को शीतल सरिता में अवगाहन का अमन्द लेना हो तो बादरायण व्यास की इस कृति का सेवन अवश्य करें। भागवत में आकण्ठ निमग्न मेरा यह साधिकार साभिमान दावा है कि संसार में प्रचण्ड मार्तण्ड के प्रकाश-पुञ्ज में अन्वेषण करने पर भी कहीं ऐसा ग्रन्थ-रत्न नहीं मिल सकता।
श्रीमद्भागवत तो दार्शनिक सिद्धान्तों का आकार ग्रन्थ है। द्वैत, अद्वैत, द्वैताद्वैत, विशिष्टाद्वैत आदि सारे दार्शनिक अपने मतों की पुष्टि के लिये इसी ग्रन्थ की शरण में जाते हैं। सभी मतावलम्बी भागवत कथा-माता कौ अङ्गुलि पकड़ कर चलना सीखें हैं। भगवान् शङ्कराचार्य का सारा अद्वैत-सिद्धान्त श्रीमद्भागवत पर ही अवलम्बित है-यह मैं साधिकार सिद्ध कर सकता हूँ। षड्दर्शनों का तो यह समन्वय ग्रन्थ है। इन दर्शनों के सिद्धान्तों को ठीक-ठीक हृदयङ्गम किये बिना गर्भ-स्तुति और वेद-स्तुति में तो व्यक्ति का सम्यक् प्रवेश सम्भव ही नहीं है।
श्रीमद्भागवत ग्रन्थ निष्काम कर्मयोग, भक्तियोग और ज्ञानयोग की त्रिवेणी का पावन सङ्गम है। भक्तियोग का जैसा उमड़ता हुआ सागर श्रीमद्भागवत में दृष्टि-गोचर होता है, वैसा अन्यत्र दुर्लभ है। भागवत का यह डिण्डिम-घोष है कि केवल भक्ति-योग के सहारे भगवाशरणागति के बल पर व्यक्ति गौलोकधाम का अधिकारी बन सकता है। भक्तिः यह अकेला साधन है, जो ज्ञान और वैराग्य का परम साधक है। भक्ति दो प्रकार की होती है-अनुराग-भक्ति और वैर-भक्ति। गोपों की गोपियों की नन्द तथा यशोदा आदि की कृष्ण के प्रति अनुरक्ति भक्ति थी, राणानुगा भक्ति थी। रावण, केस, शिशुपाल और दन्तवक्त्र की वैर-भक्ति थी। वैर-भक्ति की यह विशेषता है कि व्यक्ति खाते-पीते, सोते-जगते, उठते-बैठते प्रत्येक क्षण शत्रु का, भगवान् का ही ध्यान करता है, यह स्वप्न में भी भगवान् को देखता है। फलतः शरीर छूटते ही वह भगवान् में मिल जाता है-
अन्यत्रयानुगुणितवैरसंख्यया
ध्यायंस्तन्मयतां यातो भायो हि
केवलेन हि भावेन गोप्यो गायो
थिया।
भवकारणम्।। भाग. १०१७४८४६ ।।
नगर मृगाः।
येऽन्ये मूद्धधियो नागाः सिद्धा मामीयुरासा।। वही ११।१२।८
यदि में यह कहूँ कि ब्रह्मसूत्र, महाभारत और श्रीमद्भागवत के लिये ही व्यास महाराज का अवतरण हुआ था तो कोई अत्युक्ति न होगी। इन्हीं ग्रन्थ-रत्नों के प्रकाश से संसार का कल्याण करने के लिये ही महर्षि पराशर जैसे तपस्वी ने अपने शिर पर अपयश का मुकुट बाँधा था।
महर्षि व्यास का अवतरण-भगवान् भास्कर दिन के मध्य में विराजमान थे। यमुना का पावन पुलिन
था। मल्लाह दासराज की बेटी घर से भोजन लाई थी। भूखा दासराज भोजन कर रहा था। बेटी ‘सत्यवती’ बगल में बैठी थी। वह निर्निमेष नयनों से यमुना की उभरती-विलीन होती हुई लहरियों को निहार रही थी। यमुना आज उसे अत्यधिक नयनाभिराम प्रतीत हो रही थी। वस्तुतः ‘सत्यवती’ दासराज की पुत्री नहीं, पालिता पुत्री थी। चाप-बेटी का यह सम्बन्ध पालन-पोषण के नाते था। एक बार की घटना है। उपरिचर वसु विमान से यात्रा कर रहे थे, उनकी दृष्टि किसी अनिन्दा देवसुन्दरी पर पड़ी। काम के वेग के कारण उनका वीर्य स्खलित होकर यमुना के जल में गिर पड़ा। एक विशाल मछली ने उसे निगल लिया। भगवान् की इच्छा बड़ी विचित्र होती है, उसके आगे किसी का तर्क-वितर्क नहीं चलता। समय आने पर मछली के गर्भ से एक कन्या का जन्म हुआ। कन्या के शरीर से मछली जैसी दुर्गन्ध निकलती थी, बहुत दूर तक फैलती थी। यही कारण है कि उसे ‘मत्स्यागन्धा’ अथवा ‘योजनगन्धा’ कहा जाता था। दासराज की दृष्टि उस अबोध शिशु पर पड़ी। उसका हृदय करुणा से भर आया। फलतः उसने उसे उडा लिया और घर लाकर उसका पालन-पोषण किया। अतः वह दासराज की बेटी कहीं जाती थी।
भगवान् के मर्म को कोई जान नहीं सकता। उनकी इच्छा सबसे प्रबल होती है। उसी समय महर्षि पराशर वहाँ पहुँचे। उनका भाल तप से उद्दीप्त हो रहा था। उन्होंने दासराज से यमुना पार कराने के लिये कहा। भोजन करते हुए दासराज ने सत्यवती से कहा- “बेटी, महर्षि को आदर के साथ नैया पर बैठा कर यमुना पार करा दो। सत्यवती ने तट से बंधी हुई नैया खोली। ऋषि को नम्रता के साथ उस पर बैठाया और चल पड़ी मझधार की ओर।
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